उदय
वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वारोही तेजी के साथ चले जा रहे थे। तीनों बाल्यावस्था में। एक बालिका, दो बालक। एक बालक की आयु 16 वर्ष, दूसरे की 14 से कुछ ऊपर। बालिका की 13 साल से कम।
बड़ा बालक कुछ आगे निकला था कि बालिका ने अपने घोड़े को एड़ लगाई। बोली, ‘‘देखूँ कैसे आगे निकलते हो।’ और वह आगे हो गई। बालक ने बढ़ने का प्रयास किया तो उसका घोड़ा ठोकर खा गया और बालक धड़ाम से नीचे जा गिरा। सूखी लकड़ी के टूकड़े से उसका सिर टकरा गया। खून बहने लगा। घोड़ा लौटकर घर की ओर भाग गया। बालक चिल्लाया, ‘‘मनू, मैं मरा।’
बालिका ने तुरन्त अपने घोड़े को रोक लिया। मोड़ा, और उस बालक के पास पहुंची। एक क्षण में तड़ाक से कूदी और एक हाथ से घोड़े की लगाम पकड़े हुए झुककर घायल बालक को ध्यानपूर्वक देखने लगी। माथे पर गहरी चोट आई थी और खून बह रहा था। बालिका मिठास के साथ बोली, ‘‘घबराओ मत, चोट बहुत गहरी नहीं है। लोहू बहने का कोई डर नहीं।’
मझला बालक भी पास आ गया। उतर पड़ा और विह्वल होकर अपने साथी की चोट को देखने लगा। ‘नाना, तुमको तो बहुत चोट लग गई।’ उस बालक ने कहा।
‘नहीं, बहुत नहीं है, ‘बालिका मुसकराकर बोली, ‘अभी लिए चलती हूँ। कोठी पर मरहम पट्टी हो जाएगी और बहुत शीघ्र चंगे हो जाएँगे।’
‘कैसे ले चलोगी, मनु ?’ बड़े लड़के ने कातर स्वर में कराहते हुए पूछा।
मनू ने उत्तर दिया, ‘तुम उठो। मेरे घोड़े पर बैठो। मैं उसकी लगाम पकड़े तुम्हें अभी घर लिए चलती हूँ।’
‘मेरा घोड़ा कहाँ है ?’ घायल ने उसी स्वर में प्रश्न किया।
मनू ने कहा, ‘भाग गया। चिंता मत करो। बहुत घोड़े हैं। मेरे घोड़े पर बैठो। जल्दी। नाना, जल्दी।’
नाना बोला, ‘मनू, मैं सध नहीं सकूँगा।’
मनू ने कहा, ‘मैं साध लूंगी। उठो।’
नाना उठा। मनू एक हाथ से घोड़े की लगाम थामे रही, दूसरे से उसने खून में तर नाना को बैठाया और बड़ी फुरती के साथ उचटकर स्वयं पीछे जा बैठी। एक हाथ से घोड़े का लगाम सँभाली, दूसरे से नाना को थामा और गाँव की ओर चल दी। पीछे-पीछे मँझला बालक भी चिंतित, व्याकुल चला। जब ये गांव के पास आ गए तब कई सिपाही घोड़ों पर सवार इन बालकों के पास आ पहुँचे।
‘चोट लगी तो नहीं ?’
‘ओफ बहुत खून निकल गया है।’
‘आओ, मैं लिए चलता हूँ।’
‘घर पर घोड़े के पहुँचते ही हम समझ गये थे कि कोई दुर्घटना हो गई है।’ इत्यादि उग्दार इन आगंतुकों के मुँह से निकले। इन लोगों के अनुरोध करने पर भी मनू नाना को अपने ही घोड़े पर सँभाले हुए ले आई। कोठी के फाटक पर पहुँचते ही एक उतरती अवस्था का और दूसरा अधेड़ वय का पुरुष मिले। दोनों त्रिपुंड लगाए थे। उतरती अवस्थावाला रेशमी वस्त्र पहने था और गले में मोतियों का कंठा। अधेड़ सूती वस्त्र पहने था। उतरती अवस्था वाले को कुछ कम दिखता था। उसने अपने अधेड़ साथी से पूछा, ‘क्या ये सब आ गए, मोरोपंत ?’
‘हाँ, महाराज।’ मोरोपंत ने उत्तर दिया। जब वे बालक और निकट आ गए तब मोरोपंत नामक व्यक्ति ने कहा, ‘अरे ! यह क्या ? मनू और नाना साहब दोनों लोहूलुहान हैं !’
जिनको मोरोपंत ने ‘महाराज’ कहकर संबोधन किया था, वह पेशवा बाजीराव द्वितीय थे। उन्होंने भी दोनों बच्चों को रक्त से सना देखा तो घबरा गए।
सिपाहियों ने झपटकर नाना को मनु के घोड़े से उतारा। मनू भी कूद पड़ी।
मोरोपंत ने उसको चिपटा लिया। उतावले होकर पूछा, ‘मनू, चोट कहाँ लगी है बेटी ?’
‘मुझको तो बिलकुल नहीं लगी, काका,’ मनू ने जरा मुसकराकर कहा, ‘‘नाना को अवश्य चोट आई है, परंतु बहुत नहीं है।’
‘कैसे लगी मनू ?’ बाजीराव ने प्रश्न किया।
कोठी में प्रवेश करते-करते मनू ने उत्तर दिया, ‘ऊँह, साधारण-सी बात थी। घोड़े ने ठोकर खाई। वह संभल नहीं सके। जा गिरे। घोड़ा भाग गया। घोड़ा ऐसा भागा, ऐसा भागा कि मुझको तो हँसी आने को हुई।’
मोरोपंत ने मनू के इस अल्हड़पने पर ध्यान नहीं दिया। नाना को मनू अपने घोड़े पर ले आई, वे इस बात पर मन ही मन प्रसन्न थे।
बाजीराव को सुनाते हुए मोरोपंत ने पूछा, ‘तू नाना साहब को कैसे उठा लाई ?’
मनू ने उत्तर दिया, ‘कैसे भी नहीं। वह बैठ गए। मैं पीछे से सवार हो गई। एक हाथ में लगाम पकड़ ली, दूसरे में नाना को थाम लिया। बस।’
नाना को मुलायम बिछौने पर लिटा दिया गया। तुरंत घाव को धोकर मरहम-पट्टी कर दी गई। घाव गंभीर न होने पर भी लंबा और जरा गहरा था। बाजीराव चिंतित थे।
मोरोपंत को विश्वास था कि चोट भयप्रद नहीं है तो भी वह सहानुभूति के कारण बाजीराव के साथ चिंताकुल हो रहे थे।
जब मनूबाई और मोरोपंत उसी कोठी के एक भाग में, जहाँ उनका निवास था, अकेले हुए, मनू ने कहा, ‘इतनी जरा-सी चोट पर ऐसी घबराहट और रोना-पीटना !’
‘बेटी, चोट जरा-सी नहीं है। कितना रक्त बह गया है !’
‘आप लोग हमको जो पुराना इतिहास सुनाते हैं, उसमें युद्ध क्या रेशम की डोरों और कपास की पौनियों से हुआ करते थे ?’
‘नहीं, मनू ! पर यह तो बालक है।’
‘बालक है ! मुझसे बड़ा है। मलखंब और कुश्ती करता है। बाला गुरु उसको शाबाशी देते हैं। अभिमन्यू क्या इससे बड़ा था ?’
‘मनू, अब वह समय नहीं रहा।’
‘क्यों नहीं रहा, काका ? वही आकाश है, वही पृथ्वी। वही सूर्य, चंद्रमा और नक्षत्र। सब वही हैं।’
‘तू बहुत हठ करती है।’
‘जब मैं सवाल करती हूँ तो आप इस प्रकार मेरा मुँह बंद करने लगते हैं। मैं ऐसे तो नहीं मानती। मुझको समझाइए, अब क्या हो गया है !’
‘अब इस देश का भाग्य लौट गया है। अंग्रेजों के भाग्य का सूर्योदय हुआ है। उन लोगों को प्रताप के सामने यहाँ के सब जन निस्तेज हो गए हैं।’
‘एक का भाग्य दूसरे ने नहीं पढ़ा है। यह सब मनगढंत है। डरपोकों का ढकोसला।’
‘तू जब और बड़ी होगी तब संसार का अनुभव तुझको भी यह सब स्पष्ट कर देगा।’
‘मैं डरपोक कभी नहीं हो सकती। आप कहा करते हैं—मनू, तू ताराबाई बनना, जीजाबाई और सीता होना। यह सब भुलावा क्यों ? अथवा क्या ये सब डरपोक थीं ?’
‘बेटी, ये सब सती और वीर थीं; परंतु समय बदलता रहता है। बदल गया है।’
‘यह तो हेर-फेरकर वही सब मनमाना तर्क है।’
‘फिर कभी बतलाऊँगा।’
‘मैं ऐसी गलत-गलत बात कभी नहीं सुनने की।’
‘तो सोएगी भी या रात-भर सवाल ही करती रहेगी !’ अंत में खीजकर परंतु मिठाश के साथ मोरोपंत ने कहा। मनू खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, ‘काका, आपने तो टाल दिया। मैं इस प्रसंग पर फिर बात करूँगी। अभी अवश्य करवट लेते ही सोई, यह सोई।’ फिर एक क्षण उपरांत मनू ने अनुरोध किया, ‘काका, देख आइए, नाना सो गया या नहीं। आपको नींद आ रही हो तो मैं दौड़कर देख आऊँ।’ मोरोपंत ने मनू को नहीं जाने दिया। स्वयं गए। देख आए। बोले, ‘नाना साहब सो गए हैं।’
मनू सो गई। मोरोपंत जागते रहे। उन्होंने सोचा, मनू की बुद्धि उसकी अवस्था से बहुत आगे निकल चुकी है। अभी तक कोई योग्य वर हाथ नहीं लगा। दक्षिण जाकर देखना पड़ेगा। इसी विचार के लौट-फेर में मोरोपंत का बहुत समय निकल गया। कठिनाई से अंतिम पहर में नींद आई।