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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

16 मई 2022

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उदय

वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वारोही तेजी के साथ चले जा रहे थे। तीनों बाल्यावस्था में। एक बालिका, दो बालक। एक बालक की आयु 16 वर्ष, दूसरे की 14 से कुछ ऊपर। बालिका की 13 साल से कम।

बड़ा बालक कुछ आगे निकला था कि बालिका ने अपने घोड़े को एड़ लगाई। बोली, ‘‘देखूँ कैसे आगे निकलते हो।’ और वह आगे हो गई। बालक ने बढ़ने का प्रयास किया तो उसका घोड़ा ठोकर खा गया और बालक धड़ाम से नीचे जा गिरा। सूखी लकड़ी के टूकड़े से उसका सिर टकरा गया। खून बहने लगा। घोड़ा लौटकर घर की ओर भाग गया। बालक चिल्लाया, ‘‘मनू, मैं मरा।’

बालिका ने तुरन्त अपने घोड़े को रोक लिया। मोड़ा, और उस बालक के पास पहुंची। एक क्षण में तड़ाक से कूदी और एक हाथ से घोड़े की लगाम पकड़े हुए झुककर घायल बालक को ध्यानपूर्वक देखने लगी। माथे पर गहरी चोट आई थी और खून बह रहा था। बालिका मिठास के साथ बोली, ‘‘घबराओ मत, चोट बहुत गहरी नहीं है। लोहू बहने का कोई डर नहीं।’

मझला बालक भी पास आ गया। उतर पड़ा और विह्वल होकर अपने साथी की चोट को देखने लगा। ‘नाना, तुमको तो बहुत चोट लग गई।’ उस बालक ने कहा।

‘नहीं, बहुत नहीं है, ‘बालिका मुसकराकर बोली, ‘अभी लिए चलती हूँ। कोठी पर मरहम पट्टी हो जाएगी और बहुत शीघ्र चंगे हो जाएँगे।’

‘कैसे ले चलोगी, मनु ?’ बड़े लड़के ने कातर स्वर में कराहते हुए पूछा।

मनू ने उत्तर दिया, ‘तुम उठो। मेरे घोड़े पर बैठो। मैं उसकी लगाम पकड़े तुम्हें अभी घर लिए चलती हूँ।’

‘मेरा घोड़ा कहाँ है ?’ घायल ने उसी स्वर में प्रश्न किया।

मनू ने कहा, ‘भाग गया। चिंता मत करो। बहुत घोड़े हैं। मेरे घोड़े पर बैठो। जल्दी। नाना, जल्दी।’

नाना बोला, ‘मनू, मैं सध नहीं सकूँगा।’

मनू ने कहा, ‘मैं साध लूंगी। उठो।’

नाना उठा। मनू एक हाथ से घोड़े की लगाम थामे रही, दूसरे से उसने खून में तर नाना को बैठाया और बड़ी फुरती के साथ उचटकर स्वयं पीछे जा बैठी। एक हाथ से घोड़े का लगाम सँभाली, दूसरे से नाना को थामा और गाँव की ओर चल दी। पीछे-पीछे मँझला बालक भी चिंतित, व्याकुल चला। जब ये गांव के पास आ गए तब कई सिपाही घोड़ों पर सवार इन बालकों के पास आ पहुँचे।

‘चोट लगी तो नहीं ?’

‘ओफ बहुत खून निकल गया है।’

‘आओ, मैं लिए चलता हूँ।’

‘घर पर घोड़े के पहुँचते ही हम समझ गये थे कि कोई दुर्घटना हो गई है।’ इत्यादि उग्दार इन आगंतुकों के मुँह से निकले। इन लोगों के अनुरोध करने पर भी मनू नाना को अपने ही घोड़े पर सँभाले हुए ले आई। कोठी के फाटक पर पहुँचते ही एक उतरती अवस्था का और दूसरा अधेड़ वय का पुरुष मिले। दोनों त्रिपुंड लगाए थे। उतरती अवस्थावाला रेशमी वस्त्र पहने था और गले में मोतियों का कंठा। अधेड़ सूती वस्त्र पहने था। उतरती अवस्था वाले को कुछ कम दिखता था। उसने अपने अधेड़ साथी से पूछा, ‘क्या ये सब आ गए, मोरोपंत ?’

‘हाँ, महाराज।’ मोरोपंत ने उत्तर दिया। जब वे बालक और निकट आ गए तब मोरोपंत नामक व्यक्ति ने कहा, ‘अरे ! यह क्या ? मनू और नाना साहब दोनों लोहूलुहान हैं !’

जिनको मोरोपंत ने ‘महाराज’ कहकर संबोधन किया था, वह पेशवा बाजीराव द्वितीय थे। उन्होंने भी दोनों बच्चों को रक्त से सना देखा तो घबरा गए।

सिपाहियों ने झपटकर नाना को मनु के घोड़े से उतारा। मनू भी कूद पड़ी।

मोरोपंत ने उसको चिपटा लिया। उतावले होकर पूछा, ‘मनू, चोट कहाँ लगी है बेटी ?’

‘मुझको तो बिलकुल नहीं लगी, काका,’ मनू ने जरा मुसकराकर कहा, ‘‘नाना को अवश्य चोट आई है, परंतु बहुत नहीं है।’

‘कैसे लगी मनू ?’ बाजीराव ने प्रश्न किया।

कोठी में प्रवेश करते-करते मनू ने उत्तर दिया, ‘ऊँह, साधारण-सी बात थी। घोड़े ने ठोकर खाई। वह संभल नहीं सके। जा गिरे। घोड़ा भाग गया। घोड़ा ऐसा भागा, ऐसा भागा कि मुझको तो हँसी आने को हुई।’

मोरोपंत ने मनू के इस अल्हड़पने पर ध्यान नहीं दिया। नाना को मनू अपने घोड़े पर ले आई, वे इस बात पर मन ही मन प्रसन्न थे।

बाजीराव को सुनाते हुए मोरोपंत ने पूछा, ‘तू नाना साहब को कैसे उठा लाई ?’

मनू ने उत्तर दिया, ‘कैसे भी नहीं। वह बैठ गए। मैं पीछे से सवार हो गई। एक हाथ में लगाम पकड़ ली, दूसरे में नाना को थाम लिया। बस।’

नाना को मुलायम बिछौने पर लिटा दिया गया। तुरंत घाव को धोकर मरहम-पट्टी कर दी गई। घाव गंभीर न होने पर भी लंबा और जरा गहरा था। बाजीराव चिंतित थे।

मोरोपंत को विश्वास था कि चोट भयप्रद नहीं है तो भी वह सहानुभूति के कारण बाजीराव के साथ चिंताकुल हो रहे थे।

जब मनूबाई और मोरोपंत उसी कोठी के एक भाग में, जहाँ उनका निवास था, अकेले हुए, मनू ने कहा, ‘इतनी जरा-सी चोट पर ऐसी घबराहट और रोना-पीटना !’

‘बेटी, चोट जरा-सी नहीं है। कितना रक्त बह गया है !’

‘आप लोग हमको जो पुराना इतिहास सुनाते हैं, उसमें युद्ध क्या रेशम की डोरों और कपास की पौनियों से हुआ करते थे ?’

‘नहीं, मनू ! पर यह तो बालक है।’

‘बालक है ! मुझसे बड़ा है। मलखंब और कुश्ती करता है। बाला गुरु उसको शाबाशी देते हैं। अभिमन्यू क्या इससे बड़ा था ?’

‘मनू, अब वह समय नहीं रहा।’

‘क्यों नहीं रहा, काका ? वही आकाश है, वही पृथ्वी। वही सूर्य, चंद्रमा और नक्षत्र। सब वही हैं।’

‘तू बहुत हठ करती है।’

‘जब मैं सवाल करती हूँ तो आप इस प्रकार मेरा मुँह बंद करने लगते हैं। मैं ऐसे तो नहीं मानती। मुझको समझाइए, अब क्या हो गया है !’

‘अब इस देश का भाग्य लौट गया है। अंग्रेजों के भाग्य का सूर्योदय हुआ है। उन लोगों को प्रताप के सामने यहाँ के सब जन निस्तेज हो गए हैं।’

‘एक का भाग्य दूसरे ने नहीं पढ़ा है। यह सब मनगढंत है। डरपोकों का ढकोसला।’

‘तू जब और बड़ी होगी तब संसार का अनुभव तुझको भी यह सब स्पष्ट कर देगा।’

‘मैं डरपोक कभी नहीं हो सकती। आप कहा करते हैं—मनू, तू ताराबाई बनना, जीजाबाई और सीता होना। यह सब भुलावा क्यों ? अथवा क्या ये सब डरपोक थीं ?’

‘बेटी, ये सब सती और वीर थीं; परंतु समय बदलता रहता है। बदल गया है।’

‘यह तो हेर-फेरकर वही सब मनमाना तर्क है।’

‘फिर कभी बतलाऊँगा।’

‘मैं ऐसी गलत-गलत बात कभी नहीं सुनने की।’

‘तो सोएगी भी या रात-भर सवाल ही करती रहेगी !’ अंत में खीजकर परंतु मिठाश के साथ मोरोपंत ने कहा। मनू खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, ‘काका, आपने तो टाल दिया। मैं इस प्रसंग पर फिर बात करूँगी। अभी अवश्य करवट लेते ही सोई, यह सोई।’ फिर एक क्षण उपरांत मनू ने अनुरोध किया, ‘काका, देख आइए, नाना सो गया या नहीं। आपको नींद आ रही हो तो मैं दौड़कर देख आऊँ।’ मोरोपंत ने मनू को नहीं जाने दिया। स्वयं गए। देख आए। बोले, ‘नाना साहब सो गए हैं।’

मनू सो गई। मोरोपंत जागते रहे। उन्होंने सोचा, मनू की बुद्धि उसकी अवस्था से बहुत आगे निकल चुकी है। अभी तक कोई योग्य वर हाथ नहीं लगा। दक्षिण जाकर देखना पड़ेगा। इसी विचार के लौट-फेर में मोरोपंत का बहुत समय निकल गया। कठिनाई से अंतिम पहर में नींद आई।

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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(भाग 4)

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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