ढूँढते हैं निशां तेरे, जब भी बगिया में आते हैं
मुहब्बत के गीत भंवरे, यहाँ अब भी सुनाते हैं
ज़रा मौसम यहाँ बदला, डालियाँ सज गई सारी
बिना तेरे फूल खिलते हुए, पर ना लुभाते हैं
मैं तो चुप हूँ मगर, झरने तो हरदम शोर करते हैं
तड़प के आह भर, ये तो तुम्हें अब भी बुलाते हैं
वो पल जिनमें हमारी, धड़कनों ने दोस्ती की थी
लाख चाहा मगर , वो फिर भी मुझसे ना भुलाते हैं
लाख पत्थर बनूं बाहर से, पर भीतर से टूटा हूँ
तेरी यादों के साये , मधुकर मुझे हरदम रूलाते हैं
रेणु
06 दिसम्बर 2018लाख पत्थर बनूं बाहर से, पर भीतर से टूटा हूँ
तेरी यादों के साये , मधुकर मुझे हरदम रूलाते _
बहुत सुंदर अशार आदरणीय शिशिर जी | बहुत दिनों बाद आपकी रचनाएँ पढने का सौभाग्य मिला | सादर बधाई और शुभकामनायें |
शिशिर मधुकर
07 दिसम्बर 2018तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय रेणु जी. ......