धड़ धड़ धड़ बरसा सावन
भीगे, फिसले कितने तन
घास उगी सूखे आँगन
प्यास बुझी ओ बंजर धरती तृप्त हुई
नीरस जीवन से तुलसी भी मुक्त हुई,
झींगुर की गूँजे गुंजन
घास उगी ...
घास उगी वन औ उपवन
गीले सूखे चहल पहल कुछ तेज हुई
हरा बिछौना कोमल तन की सेज हुई
दृश्य है कितना मन-भावन
घास उगी ...
हरियाया है जीवन-धन
कुछ काँटे भी कुछ फूलों के साथ उगे
आते जाते इसके उसके पाँव चुभे
सिहर गया डर से तन मन
घास उगी ...
स्वप्न स्वप्न स्वप्न, सपनो के बिना भी कोई जीवन है ...
रेणु
05 अगस्त 2019बहुत खूब , आदरनीय दिगम्बर जी ! सावन की महिमा गाता मधुर गान बहुत मनभावन है | सरस शब्दावली !! फूलों के साथ कांटे भी वाह ! कवि दृष्टि से कुछ भी छुप पाना संभव नहीं | सादर
दिगंबर नासवा
06 अगस्त 2019बहुत आभार रेनू जी ...