माना हम चिट्ठियों के दौर में नहीं मिलें, डाकिए की राह तकी नहीं हमने। हम मिले मुट्ठियों के दौर में। जिसमें रूमाल कम, फोन ज्यादा रहता था। माना हम किताब लेने देने के बहाने नहीं मिलें, जिसे पढ़ते, पलटते सीने पर रख, बहुत से ख्वाब लिए उसके साथ सो जाया करते। हम मिले मेसेज, मेसेंजर, वाट्स अप, एफ बी, इंस्टा के दौर में। जहां नजर एक टिक, दो टिक, नीले टिक पर अटक कर कभी खुशी, कभी झुंझलाहट पैदा करती। जब जरूरत या चाहत आवाज देती तो एक टिक जोड़ देता हमें। माना हम बाग बगीचों में नहीं मिलें, अमरूद, आम , फूल तोड़ने के बहाने। हम मिले बस, मेट्रो की भीड़ में, आगे टिकट बढ़ाने, सीट लेने देने के बहाने। माना हम नदियां किनारे नहीं मिलें, पानी भरने, नहाने के बहाने। हम मिले सड़क किनारे, बस स्टैंड पर, बस, रिक्शा, के इंतजार में। माना साथ रिश्ते, काम का मोहताज है। पर यादें तों मोहताज नहीं। माना हम एक दूजे के लिए कोई नहीं, फिर भी किस्मत है पूरब से पश्चिम मिलने की। माना जिंदगी है, मगर पराई है। पराई जिंदगी में छवि अपनी है।