ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों, अब आनलाइन कम, आफलाइन तुम रहते हो। गुनगुनाने वाली आवाज अब कानों से दूर रहतीं हैं। मुस्कुराते होंठ अब ओझल रहते हैं। बस यही सोच कर आंखें नम रहतीं हैं। ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों। सामने बनें छज्जे पर कबूतर चंद रहते हैं। गौरेयों का भी होता है आना जाना, छत पर खुले आसमान के नीचे बैठ यूंही बीते लम्हे याद बन, जहन को अलट पलट करते रहते हैं। पर अब तुम्हारा तकना गायब रहता है। ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों। अब भूल गयी हूं मैं,दोपहर का खाना खाना। खाते थे हम साथ खाना, अब यह सब किस्सा पुराना हो रहा है। दोपहर को बांटना अब गुम रहता है। बातों के ढेर थे हम दोनों के हिस्से, अब वो किस्से गुमसुम हैं। ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों। ज़िंदगी कहानी ही तो है, कभी आप बीती, कभी जग बीती... हर कहानी किताब के पन्नो में दर्ज नहीं होती है। अगर होती भी है तो सच में झूठ शामिल रहता है, वो पूरी तरह से शुद्ध और सटीक कहां होती है? अगर हों भी तो लोगों को हजम कहां होती है? ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों। बातें चंद, चंदा से होती है। जब ओढ़ सितारे रात आती है। बातें चंद, तन्हाई से होती है। जब करवटों में याद जगाती हैं। ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों। हवा पूरवाई मन संग रहती है। तुम्हारे अपनेपन की मीठी आस संग रहती है। हक और शक की गली तंग रहती है। बातों का गुलिस्तां सिमट गया, एक जगह छोड़ देने से... वादों पर हक के रिश्तों का पैबंद, शायद पहले से कहीं सख्त हो गया है। ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों।
नील
14 अगस्त 2020बहुत सुंदर