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कुमार मुकुल के बारे में

एम ए ( राजनीति विज्ञान ) ।1989 में अमान वीमेंस कालेज फुलवारी शरीफ] पटना में अध्यापन।1994 से 2005 के बीच हिन्दी की आधा दर्जन पत्र-पत्रिकाओं अमर उजाला, पाटलिपुत्र टाइम्स, प्रभात खबर आदि में संवाददाता, उपसंपादक, संपादकीय प्रभारी और फीचर संपादक के रूप में कार्य। 1998-2000 दैनिक 'अमर उजाला' के लिए पटना से संवाददाता के तौर पर कार्य। इस दौरान अखबार में एक साप्‍ताहिक कॉलम 'बिहार : तंत्र जारी है' का लगातार लेखन। 2003 हैदराबाद 'स्‍टार फीचर्स' में संपादक के रूप में काम। 2003 में बेटे की कैंसर की बीमारी के चलते नियमित कार्य में बाधाएं। इस बीच दिल्‍ली में साहित्यिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' में संपादकीय सहयोगी के रूप में काम। 2005 से 2007 के बीच द्वैमासिक साहित्यिक लघु पत्रिका 'सम्प्रति पथ' का दो वर्षों तक संपादन। 2007 से 2011 त्रैमासिक 'मनोवेद' में कार्यकारी संपादक के रूप में कार्य। 2013 से 2014 कल्पतरु एक्सप्रेस, दैनिक, आगरा में स्थानीय संपादक। अप्रैल 2015 से दिल्‍ली के दैनिक देशबन्‍धु में स्‍थानीय संपादक के रूप में कार्य। कृतियां: 2000 में रश्मिप्रिया प्रकाशन से ‘परिदृश्‍य के भीतर’ और 2006 में मेधा बुक्‍स से ‘ग्‍यारह सितंबर और अन्‍य कविताएं’ शीर्षक दो कविता संग्रह प्रकाशित। 2000 में ‘परिदृश्‍य के भीतर’ के लिए पटना पुस्‍तक मेले का ‘विद्यापति सम्‍मान। 2012 में प्रभात प्रकाशन से 'डा लोहिया और उनका जीवन-दर्शन' नामक किताब प्रकाशित। 2013 में नई किताब प्रकाशन से 'अंधेरे में कविता के रंग' नामक काव्यालोचना की पुस्तक‍ प्रकाशि‍त। 2014 'आज की कविता-प्रतिनिधि‍ स्वर' नामक पांच कवियों के संकलन मेे संकलित। सोनूबीती नाम से कैसर पर एक किता‍ब । अन्य: वसुधा, हंस, इंडिया टुडे, सहारा समय, समकालीन तीसरी दुनिया, जनपथ, जनमत, समकालीन सृजन, देशज समकालीन, शुक्रवार, आउटलुक, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्त

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कुमार मुकुल की पुस्तकें

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हम हैं , इसी से कविता है / यह ह

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<p class="MsoNormal"><span style="color:#ff0000;"><span style="font-family: Mangal; font-size: 100%;" lang="HI">हम हैं </span><span style="font-size: 100%;">, </span><span style="font-family: Mangal; font-size: 100%;" lang="HI">इसी से कविता है / यह ह

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कुमार मुकुल के लेख

हिन्‍दी की कछुआ दौड़ - कुमार मुकुल

13 सितम्बर 2018
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हिन्दी के वरिष्ठ कवियों में शुमार रघुवीर सहाय ने हिन्दी को कभी दुहाजू की बीबी का संबोधन देकर उसकी हीन अवस्था की ओर इशारा किया था। इस बीच ऐसी कोई क्रांतिकारी बात हिन्दी को लेकर हुयी हो ऐसा भी नहीं है। हां, यह सच्चाई जरूर है कि पिछले साठ-सत्‍तर वर्षों में हिन्दी भीतर ही भीतर बढ़ती पसरती जा रही है और आज

आस्‍था की आंखें - तानसेन की समाधि

10 सितम्बर 2018
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ग्‍वालियर में तानसेन की समाधि पर इमली का एक पेड़ था। उसके बारे में प्रचलित हो गया कि उसकी पत्तियां खाने से गला सुरीला हो जाता है। नतीजा लोग इमली की पत्तियां तो खा ही गये, फिर जड़ें तक चाट गये।

चित्र पहेली - नीचे की तस्‍वीर में दो गलतियां हैं, बताएं

10 सितम्बर 2018
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कॉरपोरेट मनीषा हलुमान जी

8 सितम्बर 2018
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खब्‍ती डॉट इन का वह बंदाबड़ी सी मोबाइल परहनुमानजी की फोटू निहारताव्यस्त था थोड़ी टीप-टाप के बादमुखातिब होता बोला - अरे, आ गएहां, एक बात कहनी थीहां हां कहिएमेरी कुर्सी टेबल दीवार की तरफ है, चिपकी सी अनइजी लगता हैहां आ आ...आपसे एक बात कहनी थी कल जाते वक्‍त आप बिना बताये निकल गये थेहां, टाइम से निकला थाअ

राजनीति में दूर तक काम नहीं आता जातिगत जनाधार

25 अक्टूबर 2016
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जाति और राजनीति के हिसाब-किताब को देखें तो साफ हो जाता है कि पिछला दलित-पिछड़ों का उभार कोई लालू- नीतीश - मुलायम जैसे नेताओं का करिश्मा नहीं था, बल्कि वह जाति और राजनीति के रिश्तों की सहज उपज था। इन नेताओं ने उसी उभार की फसल काटी । जैसे जातिमें पैदा होने के लिए कुछ करना नहीं होता है। वैसे ही जाति की

संदीप की कहानियों का जादुई यथार्थवाद

25 जून 2016
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युवाकथाकार संदीप मील के लोकोदय प्रकाश से आए दूसरेकहानी संकलन 'कोकिला शास्‍त्र'कीशीर्षक कहानी 'कोकिला शास्‍त्र'कोपढते हुए लगा कि जैसे संदीपहिंदी में जादुई यथार्थवादकी रचना करने वाले पहले कहानीकारहैं। संदीप की कहानियों कातो मैं पहले संग्रह से ही मुरीदहो गया था पर नये संग्रह की इसपहली अपेक्षाकृत लंबी क

घृणा पर आधारित अरविंद अडिगा का उपन्यास - द वाइट टाइगर

25 जून 2016
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राजेश जोशी ने अपनी एक कविता में लिखा है कि घृणा इतनी गैरजरूरी चीज भी नहीं कि जहां उसकी जरूरत हो वहां भी ना की जाए। सीमित तौर पर इसी बात को आधार बनाकर अरविंद अडिगा ने अपना उपन्याहरास द वाइट टाइगर लिखा है। सीमित इसलिये कि उपन्यारस में घृणा का प्रयोग अधिकतर गैरजरूरी लगने लगता है। इससे पहले मैंने ऐसा उप

हर तरफ कातिल निगाहें - गजल

25 जून 2016
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धूप मीठी और चिडिया बोलती है डार परपर पडोसी ढहा सा है दीखता अखबार पर।सूझती सरगोशियां फाकाकशी में भी जनाबअगर रखनी नजर तो तू ही रख ब्‍योपार पर।जानता हूं वक्‍त उल्‍टा आ पडा है सामनेकौन सीधा सा बना है अपन ही धरतार पर।हर तरफ कातिल निगाहें और हैं खूं-रेजियांफिक्र क्‍या जब निगहबानी यार की हो यार पर।

रूडयार्ड किपलिंग - 'द जंगल बुक' के लेखक

24 जून 2016
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रूडयार्डकिपलिंग का जन्म बंबई में 30दिसंबर 1865को हुआ था । उनके माता-पिताअंग्रेज थे । उनका बचपन बहुतअच्छा नहीं था । आरंभ के छः सालों तक उनकापालन-पोषणभारतीय नर्सों ने किया । आगेवे इंग्लैंड ले जाए गए ।वहां फोस्टर परिवारों ने पांचसाल तक उनकी देखभाल की । इसके बाद उनकादाखिला एक बोर्डिंग स्कूलमें करा दिया

मैं हिन्दू हूँ

23 जून 2016
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मैंहिन्‍दू हूंइसीलिएवे मुसलमान और ईसाई हैंजैसेमैं चर्मकार हूंइसीलिएवे बिरहमन या दुसाध हैंआजहमारा होनाहमारेकर्मों,रहन-सहनऔरदेश-दिशाके अलगावों का सूचक नहींहमइतने एक से हैंकिआपसी घृणा हीहमारीपहचान बना पाती हैमोटा-मोटीहम जनता या प्रजा हैंहमसिपाही,पुजारी,मौलवी,ग्रंथी,भंगी,चर्मकार,कुम्हार,ललबेगियाऔर बहुत

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