हम सभी नृत्य करते हैं – आनन्द के आवेग में उछाह
में भर नृत्य करते हैं, अनेक पर्व त्यौहारों पर नृत्य करते हैं, विधिवत शास्त्रीय नृत्य की
शिक्षा ली है या नहीं – इससे कोई फर्क नहीं पड़ता | सब सारी प्रकृति ही नित नवीन
नृत्य दिखाती रहती है तो मनुष्य भला उसके प्रभाव से कैसे अछूता रह सकता है, बस जब अवसर मिलता
है मन मयूर नाच उठता है और मन के साथ साथ तन भी झूम झूम उठता है... हमने नृत्य को
किस रूप में समझा है – यही इन पंक्तियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है...
आशा है आपको पसन्द आएँगी... क्योंकि “मैं करती हूँ
नृत्य, अन्तिम समर्पण को स्वयं के”... कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा...