मैं किसको भुला दूँ किसे याद रख्खूँ ,
बताओ कहाँ घर की बुनियाद रख्खूँ।
इधर एक दरिया उधर गहरी खाई,
जहां प्यार का कैसे आबाद रख्खूँ।
परिंदे भी मजबूरियों में उड़े हैं,
है सय्याद हाकिम क्या फ़रियाद रख्खूँ।
नहीं भर सकें हम ज़खम आदमीं के,
मैं करूँ मिन्नतें खूब इमदाद रख्खूँ।
कभी ज़िन्दगी इतनी आसां नहीं थी,
सरल होगी गर कोई संवाद रख्खूँ।
अगर रास्तें हैं तो मंजिल भी होगी,
क़दम हर क़दम ख़ुद को आज़ाद रख्खूँ।
अब अगर ज़िंदगी बे - इरादा नहीं है,
आ तुम्हें बख्श दूँ प्यार बरबाद रख्खूँ ।