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मनवा कहे आवारा बन जा...

2 जून 2015

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featured imageकभी-कभी लगता है आवारा बन जाएं | मन करता है कि उठाएं एक छोटा बैग और निकल जाएं कहीं दूर बिना किसी उद्देश्य के| बस ट्रेन के पास वाली खिड़की मिल जाए और हरे भरे खेतों अपलक निहारते हुए चलते जाएं | किसी भी स्टेशन पर उतर जाएं फिर आगे का सफर किसी ट्रक के पीछे बैठ कर पूरा करें | किसी ढ़ाबे पर अपनी क्षुधा शान्त की जाए और तारों से भरे अनंत आकाश के नीचे सो जाएं, ठंडी ठंडी हवा के साथ सुबह की पहली किरण जगाए ओस से पूरी तरह भीग चुके हों | कितना अच्छा होता अगर यह ख्वाब पूरा हो पाता | सच में यह उसके लिए किसी ख्वाब से कम नहीं जो अपनी जिंदगी के पांच महत्वपूर्ण साल एक कमरे में बिता दिए हों वह भी किसी भीड़ भरे शहर में | किसी किसी दिन तो आखों के सामने बहुत गजब की रंगीन स्वप्निल संसार बन जाता है जिसमें दूर एक पहाड़ी गांव होता है, जिसके चारो तरफ होती हैं हरी भरी वादियां और पास बह रही होती हैं मध्दम मध्दम एक पहाड़ी नदी, कल की लयात्मक ध्वनि के साथ, सूरज जैसे दिन भर की थकान मिटानें नदी के किनारे चला आया हो | जैसे-जैसे वह नीचे आ रहा है पानी में उसकी परछाहीं बड़ी हो रही है, बहते पानी में जैसे सूरज पांव पखार रहा हो | मैं इस पूरे स्वप्न संसार में नदी किनारे बैठ कर अनंत क्षितिज में विलीन हो रहे अरुणाभ सूरज को अपलक निहार रहा होता हूं | या फिर होता है कोई विशाल रेत का समंदर, जो कि सूर्यास्त के समय स्वर्णिम आभा से ओत-प्रोत होता है|इसे देख कर मन करता है चलते जाएं बस चलते जाएं, जब तक कि गला प्यास से सूख न जाएं | अक्सर इसी समय फोन बज उठता है और मेरा आवारगी का कल्पना संसार बिखर जाता है | उधर से आवाज आती है " कैसे हो,... बेटा मन लगा कर पढ़ना जिससे कि जल्दी एक नौकरी मिल जा़य " इन चंद शब्दों के खत्म होते ही मैं कल्पना संसार से सीधे यथार्थ में आकर धड़ाम हो जाता हूं और एक बार फिर मेरी आवारगी की हसरत कुछ दिन आगे खिसक जाती है | आवारगी की क्या खूबसूरत दुनिया है, जिसके बारे में सोचकर मन बाग बाग हो जाता, वह यथार्थ में कैसी होगी | एक बार फिर से सोच रहा हूं आवारगी करने के बारे में | कुछ लोग कहते हैं यह उम्र का असर है धीरे धीरे थम जाएगा लेकिन मेरी आवारगी की आग बढ़ती जा रही, रह रह कर मन बेचैन हो जाता है | लगता है उम्र ही तमाम होती जा रही अभी दिल्ली तो घूम नहीं पाए और हसरतें पूरी दुनिया घूमने की संजोए हैं | यह सब संभव तभी है जब आवारा बना जाए तो हमारी तरह आवारगी की इच्छा वालों उठाओ बोरिया बिस्तर और निकल लो गुनगुनाते हुए ... "आवारा हूँ आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ"
शब्दनगरी संगठन

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2 जून 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

प्रवीण जी, बहुत अच्छा लिखते हैं आप...मुझे 'यायावर' तो कहीं नहीं बल्कि एक अच्छी कल्पनाशक्ति के धनी व्यक्ति लगे आप...धन्यवाद !

2 जून 2015

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मन कहे कहे आवारा बन जा ...

24 मई 2015
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मनवा कहे आवारा बन जा...

2 जून 2015
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कभी-कभी लगता है आवारा बन जाएं | मन करता है कि उठाएं एक छोटा बैग और निकल जाएं कहीं दूर बिना किसी उद्देश्य के| बस ट्रेन के पास वाली खिड़की मिल जाए और हरे भरे खेतों अपलक निहारते हुए चलते जाएं | किसी भी स्टेशन पर उतर जाएं फिर आगे का सफर किसी ट्रक के पीछे बैठ कर पूरा करें | किसी ढ़ाबे पर अपनी क्षुधा शान्

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नहीं मंजूर तुम्हारा ऐसा लोकतंत्र

26 फरवरी 2016
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जहां भूख से मरते बच्चे कर्ज के बोझ से दबे किसान कासड़कों पर उतरना खतरा बन जाए, बिना जमीर जिंदा होना एक शर्त बन जाए,जहां सवाल पूछनादेशद्रोह कहा जाए,हक मांगना विकास का रोड़ा बन जाए मैं थूकता हूं ऐसे लोकतंत्र परजहां संविधान और विज्ञान नहीं धर्म रटने पर पुरस्कार दिया जाए सिर कटाना ही देशभक्ति बन जाएमैं

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राष्ट्रवाद

26 फरवरी 2016
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डार्विन अच्छा किया तुमने बता दिया कि हम बंदर थे अब कह सकूंगा खुदा सेइंसानों को फिर से बंदर कर देना देना दोबारा ऐसा दिमाग इसकी बुद्घि को भी बंजर कर देताकि ना पनप सके फिर राष्ट्रवाद इस कमजर्फ नें धरती को लाल कर दियासिर्फ दो सौ सालों में लाशों से पाट दियादेखते ही देखते इसनें दुनिया को कंटीली बाड़ों में

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