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मनीष प्रताप सिंह के बारे में

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मनीष प्रताप सिंह की पुस्तकें

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गज़ल,गीत, कविता के रूप में मेरी अभिव्यक्ति को अनुभव करें। सादर।

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मनीष प्रताप सिंह के लेख

अभिव्यक्ति मेरी: गहरे काले अक्षरों से

20 मई 2018
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अभिव्यक्ति मेरी: गहरे काले अक्षरों से

अभिव्यक्ति मेरी: किसी के बाप का कर्जा किसानों पर नहीं बाकी,

6 फरवरी 2018
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किसां जो रोटियां देता, जमाने भर को खाने की।उसी के अन्न पर पलकर, करो बातें जमाने की।किसी के बाप का कर्जा किसानों पर नहीं बाकी,तुम्हारी पीढियां कर्जे में है, हर एक दाने की ।। लहू से सींचकर खेतों को, जो जीवन उगाता है,जरा सी रोशनी देदो, उसे भी आशियाने की।।खुदाओं की तरह, मेरी

अभिव्यक्ति मेरी: मैं आग को पीता गया बस आजमाने के लिये

15 नवम्बर 2017
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खुद की मौत पर तन्हा था मैं, मांतम मनाने के लिये।केवल ओठ ही हिलते है, अब बस गुनगुनाने के लिये।।हालांकि मेरे हाथ से, गिर कर जो टूटा काँच सा,अरमान ही तो था मेरा, बस मुस्कुराने के लिये।।उस शाम की महफिल में ,बस दो चार ही तो लोग थे,मैं था , मेरे ग़म थे, दो आंसू बहाने के ल

अभिव्यक्ति मेरी: पर दोस्ती जैसा कोई, रिश्ता नहीं होता

12 मार्च 2017
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अभिव्यक्ति मेरी: पर दोस्ती जैसा कोई, रिश्ता नहीं होता

अभिव्यक्ति मेरी: शायद मुझसे कुछ कहतीं है।

11 मार्च 2017
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शायद मुझसे कुछ कहतीं है।मुझे लगता है मैं पागल हूँशायद विक्षिप्त ,या घायल हूँ ।क्योंकि मैं बातें करता हूँ,चट्टानों से,पतझड़ से,निर्जन से,रेगिस्तानों से ।मुझे लगता है,कि विशाल पीपल की डालियां,उसकी भूरी शाखाएं,और उन पर बनी धारियां,शायद मुझसे कुछ कहतीं है......... अभिव्यक्ति म

अभिव्यक्ति मेरी: गज़ल , गीत, कविता कुछ भी समझें

10 जनवरी 2017
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मेरे दोस्त बिल्कुल भी, गद्दार नहीं है।पर ये बात भी सही है, बफ़ादार नहीं है।।हमको तो खुद ही चलना है, तारीक़ राह पर,इन बस्तियों में मेरे, मददगार नहीं है।।महफूज़ है पत्थर, सबूत मेरी सजा के,हकीकत हम जिस सजा के, गुनहगार नहीं हैं।फूँके कदम फिर भी गिरे , एहसास तब हुआ,हम दुनिया की

अभिव्यक्ति मेरी: ये अस्मिता की बात करते है, वो अस्मत को लुटाने बाले (गज़ल)

9 जनवरी 2017
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कानून इस जहां में, बकवास नजर आता है। हर आस्तीन में छिपा हुआ, एक साँप नजर आता है। महलों में रोशनी है, गलियों में बस अंधेरा, इंसाफ इस जहां का, मुझे साफ नजर आता है। ये अस्मिता की बात करते है, वो अस्मत को लुटाने बाले, बस ढोंग नजर आता है, व्यभिचार नजर आता है। जब भी हलाल होती है, दो बूंद शराफत, मगर

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के ।

1 अक्टूबर 2016
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बस चल रही है जिंदगी, उस रब के नाम पर । उम्मीद है सुबह की, भरोसा है शाम पर ।। घर की दर-ओ-दीवार पर, ये मेहरबां है आसमां, कोई छत नहीं है दोस्तो , मेरे मकान पर ।। मुतमईन हूँ मैं, दर्द की दासतां दबी होगी, देखो फूल भी ,मुरझा गये है इस निशान पर ।। वो बेमुराद माज़ी , जब जब भी याद आया, तड़फा मै

धुँधली होती तस्वीर

2 सितम्बर 2016
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रेगिस्तान के किसी कोने में बनाया हुआ है मैंने अपना एक छोटा सा घर जिसमें चारो ओर खिड़कियाँ और दरवाजे ही हैं। उस घर में लगा रखी है एक तस्वीर और एक गुलदस्ता हवा के आवारा झोके उसमें होकर यूँ निकल जाते हैं जैसे कि कुछ है ही नहीं और छोड़ जाते है साथ लायी हुई धूल की चादर जो कि परत दर परत छायी जा रही है

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये ।

2 अगस्त 2016
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वक्त का हर ज़िक्र मैं, लिखता चला गया । हर रंज-ओ-ग़म को आप ही, सहता चला गया ।। इस रास्ते के दरम्यां, शायद कहीं पर छाँव हो, 'मोहन ' भरम की धूप में, जलता चला गया ।। उन बस्तियों में आग सी, लगती चली गयी, हवा में मेरा ज़िक्र कुछ, बहता चला गया ।। सुकूं और मेरे दरम्यां, मुद्दत के फासले है, थी साजिश-ए-किस्

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