12 साल बाद लगने वाले मौरी मेले में मुझे पांडव के साथ देवप्रयाग गंगा स्नान जाने का मौका मिला, मैंने 7 दिसम्बर मेले के उद्घाटन दिन ही तय कर दिया था कि जब पांच पांडव १३ अप्रैल को बिखोती मे गंगा स्नान को देवप्रयाग संगम में जायेंगे तो मै भी पैदल यात्रा कर के उनके साथ स्नान के जाऊंगा।
दिसम्बर के बाद वक्त बड़ी तेजी से बीतता हुआ निकला। अप्रैल का माह आते ही मैंने तय किया कि लोकतंत्र का पर्व मनाने के बाद मै 11 तारीख को दिल्ली से अपने गाँव तमलाग जो पौड़ी गढ़वाल में पट्टी गगवाड़ स्युूँ के अंतर्गत पड़ता है। 11 तारीख को मै ठीक समय पर अंतर्राष्ट्रीय बस अड्डे कश्मीरी गेट पहुँच गया और वहाँ से रोडवेज की बस पकड़ कर चल पड़ा अपने पहाड़ की ओर। हालांकि बस अड्डे से बस मिलने में थोड़ा परेशानी जरूर हुयी क्योंकि शादीयों का बक्त चल रहा था और काफी लोग पहाड़ जाने के लिय बस अड्डे पहुँच थे। खैर पहाड़ जाने की ख़ुशी में इस बात का थोड़ा सा भी मलाल नहीं था। दूसरे दिन सुबह 9 - 10 बजे के बक्त मै अपने गावँ तमलाग पहुँच गया। थोड़ा आराम करने के बाद जब दोहपर में मंडाण लगा। मै भी उस मंडाण में नाचने लगा, मै आप लोगो को अपने गावँ में मंडाण नाचने की खासियत बता दू यहाँ के लोग बड़े ही सलीके से पांडव नृत्य करते है। बाहर के लोग जब यहाँ मंडाण देखने आते है तो वह यहाँ के पांडव की तारीफ करके जाते है कि किस तरह कोई भी आदमी नाचते हुए एक दूसरे पर टच नहीं होता है। नृत्य करने और देखने के लिए नृत्य स्थल पर विशाल जान समूह अगल बगल कि छतो पर मौजूद था।
देवी देवता भी भी नृत्य कर रहे थे, ढोल वादक चन्दन दास, मानपति, धीरा लाल अपनी भूमिका का निर्वाह बड़ी जिमेदारी के साथ कर रहे थे। तमालग गावँ और गगवाड़ स्यूं के लोग में बड़ा उत्साह था बिखोती नहाने के लिए। मंडाण को थोड़ा रोकने के बाद एक उद्घोषणा हुयी! कि कल प्रातः काल ८ बजे सारे लोग चाँदणा चौक ( मंडाण स्थल) पर एकत्र होकर बिखोती नाहने के लिए प्रस्थान करेंगे। रात को पांडव नृत्य करने बंद होने के बाद मै बड़ी बेसब्री से अगले दिन का इंतज़ार करने लगा।
अगले दिन सुबह मै सबसे पहले तैयार होकर मंडाण स्थल पर आ गया। धीरे धीरे चाँदणा चौक में लोग इकट्ठे होते गए और एक कारवां बन गया। पांडव नृत्य करने के बाद नाज निशानों के साथ( धनुष, बाण, बरछे) शंख ध्वनि करते हुए ढोल वादक को कंधे पर उठाकर पांच पांडव चल पड़े देवप्रयाग स्नान के लिए। एक लम्बी सी कतार तमलाग गावँ की सीमा को पार करने लगी, क्या बुड्ढे, क्या बच्चे, और क्या जवान, सारे लोगों में पैदल यात्रा करने का उत्साह था। देवी देवता रांसे लगा रहे थे लोग नाचते हुए धीरे धीरे आगे बाढ रहे थे। हर कोई12 साल बाद की इस यात्रा को यादगार बनाना चाहता था। जो लोग पिछली बार भी इस यात्रा पर गए थे वह अपने अनुभव एक दूसरे के साथ बाँट रहे थे।
ढोल वादक को कंधे पर
मौसम थोड़ा ख़राब था और बारिश आने की संभावना काफी थी इस लिए लोग अपने साथ छाते लेकर घर से चले थे, संभावना हकीकत में बदल गयी बारिश होने लगी लोगों ने अपने छाते खोल दिए। मेरी माँ ने भी मुझे छाता दिया मैंने उस छाते से ढोलवादक और अपने आप को थोड़ा भीगने से बचाया हालाँकि ढोल में टंगे नोट गीले हो चुके थे वह पैंसे हमने अपनी ग्राम सभा कुंजेठा में मंडाण के बक्त निकल कर ढोली को दे दिए। कुंजेठा से भी काफी यात्री हमारे कारवां के साथ जुड़े, हल्की-हल्की बारिश लगातार हो रही थी फिर भी लोगो के उत्साह में बिलकुल भी कमी नहीं थी। लोगो का उत्साह अपने चर्म पर था। अब हमारी यात्रा कुजेठा से निकल कर हरसुड के माहदेव के नजदीक पय्या डाली पर आ चुकी थी। यहाँ पर हमारे साथ गुमाई गावँ के यात्री जुड़े। हरसुड का रास्ता अब बंजर है, कभी इस रास्ते पर काफी चहल पहल हुआ करती थी। इस रास्ते का प्रयोग गुमाई, धनाऊँ बणगावँ तथा बनेलस्यूं पट्टी के लोग पैदल चलने के लिए किया करते थे। यहाँ पर अभी भी मौजूद पय्या पेड़ के नीचे बटोई आराम करते थे। इस पेड़ के नीचे कही लोगों के यादें जुडी है। मेरी भी यादे इस रास्ते से जुडी हुयी है, आज से लगभग 14 -१५ साल पहले मै भी इस रास्ते से अपनी चाची और रिश्ते की दीदी के यहाँ जाया करता था। पर अब ल्वाली से सड़क होने से लोग इस रास्ते से कट से गए है खैर ये तो बदलाव है। कोई इसे सकारत्मक रूप में लेता है, तो कोई इस नकारत्मक रूप में, अपना-अपना नजरिया है। लोगो की काफी संख्या थी एक लम्बी सी कतर बनी थी पहाड़ी पर, कतार के आगे वाले छोर ने पहाड़ी को पार कर दिया था तथा उसका अंतिम छोर पय्या डाली से ही गुजर रहा था। यही से थोड़ा नीचे माहदेव का एक छोटा सा मंदिर था जहाँ लोग शिवरात्रि के दिन जल चढ़ाने आया करते थे। कोई अपनी मनोकामना पूरी होने पर इस महादेव के मंदिर में सांड (बैल) चढ़ता था। अभी हाल ही में इस मंदिर को नया रूप दे दिया गया है। अच्छा लगा, कि लोग कम से कम आने वाली पीढ़ी में संस्कार भरने के लिए अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को संजोकर रख रहे है। बारिश अब बंद हो चुकी थी हमारी यात्रा भी शैने -शैने आगे बढ़ती हुयी स्वाळी देवता के मंदिर के पास पहुँच चुकी थी। यह मंदिर भी कभी पत्थरों से बना छोटा सा था अब इस मंदिर का भी आधुनिकरण कर करके , अब काफी बड़ा बना दिया गया है। इस मंदिर कि खासियत ये है इसमें रुपये पैंसे नहीं चढ़ाये जाते, बल्कि इसमें स्वाले के पत्ते चढ़ाये जाते है। मैंने और लोगों ने इसमें पत्ते चढ़ाये और आगे बढ़ गए। मेरी दादी और माँ इस इस वता की रोचक कथाएं हमें बचपन में सुनाया करती थी।
स्वाली देवता
अब हम ग्राम पोखरी की सीमा पर पहुँच चुके थे।ढोल दमौ बारिश से काफी तर बतर हो चुके थे, हमने लकड़ी इकट्टा करके आग जलायी और ढोल दमौ को गर्म किया, जैसे ही ढोल दमौ गर्म करने के बाद थोड़ा आगे बढे ही थे, कि ये क्या ? बारिश फिर शुरू हो गयी, भगवान आज हमारी कड़ी परिक्षा ले रहा था, फिर हम बारिश में ही पोखरी गावँ पहुँच चुके थे, पोखरी गावँ वालों ने हमारा भब्य स्वागत किया उन्होंने मंडाण चौक में केला कुवाई के द्वारो का निर्माण कर रखा था( जैसे शादी ब्या में बनाते है) बारिश अब तेज हो गयी थी गावँ वालों ने हमें शीतल पये और गरम चाय पिलाई पोखरी गावँ हमारा पहला पड़ाव था, लोग उनके चौक में तेज बारिश में ही देवी देवता ओर लोग मंडाण नाच रहे थे, मै पोखरी गावँ वालों का अपने गावँ तमलाग की तरफ से धन्यबाद करता हूँ की जो उन्होंने हमें इतना सम्मान दिया, घडी में १०.३० बज रहे थे, पोखरी गाँव के लोग भी इस यात्रा में शामिल हुए और हमारे साथ चलने लगे। जलपान करने के बाद चल पड़े हम अगले पड़ाव की ओर, अब हमें सितोन्स्यूं गडखेत से ४-५ किलोमीटर खड़ी चढ़ाई चढ़कर पवाई के बगल से गुजरकर श्रीखाल पहुंचना था, पहली बार मुझे यहाँ पर एक कुत्ता दिखाई दिया जो हमारे साथ तमलाग से ही चल रहा था, खैर हमने चढ़ाई चढ़ना शुरू किया अब बारिश बंद हो चुकी थी, बड़ा मजा आ रहा था चढ़ाई चढ़ने में, जिस रास्ते से हम चढ़ाई चढ़ रहे थे वहाँ मुझे दो चीजे दिखने को मिली, मैंने देखा कि जो खेत १२ साल पहले हरे भरे थे आज वह बंझर पड़े है, जब मैंने बड़े बुजर्गों से पूछा की क्या वाकई में ये खेत पिछली बार(२००२) हरे भरे थे, तो मुझे बुजर्गों ने बताया कि जब हम लोग इस रास्ते से पैदल पांडव के साथ यात्रा करते थे तो सभी यात्री इन खेतों से मटर और मसूर खाया करते थे, और अगल बगल के गाँव वाले हमें पानी पिलाने के घर से बंठो में भरकर शीतल जल लाते थे, पर अब लोगों ने इतने अच्छे खेतों को बंजर छोड़ दिया है, तो वह पानी पिलाने भी नहीं आये, मुझे बड़ा दुःख हुआ,
चढ़ाई चढ़ते हुए
तब मुझे गरीब क्रांति का स्मरण आया कि काश इन खेतो की चकबंदी हो रखी होती तो आज हालात इस कदर नहीं होते, लेकिन अभी भी समय है अगर हमारी सरकार चकबंदी का कानून बना देती है और समस्त पहाड़ में इसे ईमानदारी से लागू करे, तो ये खेत फिर लहरा सकते है, और जब हम अगले १२ साल बाद फिर यात्रा पर निकले तो हमें इन खेतों में बहार नजर आये।
वहाँ से निकलने के बाद मै आगे बढ़ने लगा तभी बारिश और तेज ठंडी हवाएँ चलने लगी, हवाएँ इतनी तेज थी थोड़ा दूर चलने पर ही हालत ख़राब होने लगी छाता उड़कर उलटा हो रहा था, मनो एैसे प्रतीत हो रहा था जैसे मेरा एक तरफ का कान और गाल झाड़कर नीचे गिरने वाला हो, चढ़ाई थी की खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी, हर कृषि की हालत देखने लायक थी, तब मैंने कल्पना की, कि १६ दिसम्बर को जो लोग केदारनाथ में बचकर ऊपर जंगलों कि तरफ भागे होंगे और जब उनका सामना भयानक बर्फीली हवाओं से हुआ होगा तो उनकी हालत कैसी रही होगी, हमारे पास तो फिर भी गरम कपडे और छाता भी है, वाकई अब पता लग रहा था कि हम मुश्किल यात्रा पर निकले है, अब हमारी यात्रा बहुत ही कठिन हो चुकी थी, पावं अब साथ देने को तैयार नहीं थे, फिर भी चले जा रहे थे तेज बारिस और हवाओं में, हर कोई यात्री जल्दी जल्दी जल्दी उस मुशिबत से पार पाना चाहता था, हर कोई अपने आप की सोच रहा था, दूसरे से कोई मतलब नहीं था, तभी मुझे एक अम्मा दखाई दी जो लोगों के साथ कदम मिलाने की लाख कोशिश कर रही थी पर उसके पान लड़खड़ा रहे थे, अम्मा को ये डर था की कही मै पीछे न छूट जाऊँ, मैंसमझ गया की अम्मा को कुछ तकलीफ जरूर हो रही है, मै उनके पास गया और पूछा
अम्मा आपको को तकलीफ हो रही है, अम्मा ने हाँफते h हांफते कहा मेरे पावँ मेरा साथ नहीं देरहे है मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा मानो मेरा कलेजा बहार निकल आएगा, हवाई इतनी तेज थी की अम्मा का सारा मुँह लाल हो रखा था, उनकी आँखों से पानी भी बह रह था, मैंने अम्मा का मुँह उनके स्वाल से साफ किया और उनसे कहा की आप चिंता मत करो मई आपको अपनी पीठ पर बैठकर ले जाता हूँ, अम्मा ने पीठ पर बैठने से मना कर दिया फिर मैंने अम्मा का बाजू पकड़कर हवा की तरफ अपना छाता करके उन्हें सहारा देते हुए आगे बढ़ने लगा, तब मैंने उनसे पूछा की आप किसी गावं के हो उन्होंने मुझे अपना गावं का नाम बताया और ये भी कहा की मेरी बेटी भी इस यात्रा में चल रही है पर वह काफी आगे निकल चुकी है, हम धीरे धीरे उस चढ़ाई को चढ़ रहे थे अब हमसे फीछे वाले लोग भी लगभग आगे निकल चुके थे एक दो जगह आड़ पर बैठकर मैंने अम्मा को थोड़ा आराम कराया, इस तरह हम श्रीखाल खाल पहुंचे, अब आम्मा ने कहा की बस बेटे अब मै खुद चली जाउंगी यहां से उन्होंने मुझे आश्रीवाद दिया, मुझे लगा मनो मेरी यात्रा पूर्ण चुकी हो,
मुझे भी तेज भूख लगी थी मैंने अपनी माँ को ढूंढा और उनसे रोटी लेकर खाने लगा रोटी खाने के बाद मेरी जान में जान आयी, अब मुझे खुच राहत महसूस हुयी, मैंने अपने लिए एक ग्लूकोज का पाकेट रखा था मैंने उससे से दो चम्मच ग्लूकोज के निकाले और बिना पानी में घोले मुँह में डालकर और ऊपर से पानी पि लिया तब मेरे शरीर में ऊर्जा का संचार हुआ, तभी मुझे वह कुत्ता दिखाई दिया जो हमारे साथ तँलग से आ रहा था, वह खाना खाते लोग के आगे आ रहा था पर लोग उसे भगा दे रहे थे, मुझे लगा शायद उस भी भूख लगी होगीमैंने उसे अपने पास बुलाया और एक रोटी का टुकड़ा उसे दिया पर उसने वह टुकड़ा नहीं खाया, वह नीचे ज़मीं से कुछ खा रहा था मई उसके पास गया उस चीज को देखा जिसे वह खा रहा थावह बिस्कुट के टुकड़े थे, फिर मै उसे अपने साथ दूकान पर ले गया पर दुर्भग्या पूर्ण उस दुकानदार के पास अब कुछ भी नहीं बचा था, बिडंबना ये थी कि श्री खाल में मात्र एक ही दुकान थी, जैसे ही मै निराश होकर नीचे आ रहा था तभी मुझे दो आदमी बिस्कुट खाते नज़र आये, मैंने उनसे तीन बिस्कुट लिए और कुत्ते को खिला दिए, जरूर उसे भी कुछ राहत मिली होगी, मैंने सोचा इसे सबदरखाल में बिस्कुट खिला दूंगा अब हमें वहां से धीरे धीरे नीचे की तरफ उतरकर सबदरखाल पहुंचना था, जब मै यहां से नीचे उतर रहा था तभी मुझे एक बुड्ढा आदमी दिखाई दिया जो दिखने में तो काफी हट्टा खट्टा था पर थकान से कांप रहे थे, मुझे उनका दर्द देखा नहीं गया और मै उनके पास गया उनसे उनका हाल पूछा उनका हाल भी अम्मा जैसे था, पर मै शरीर में मुझ से लम्बे चौड़े होने के कारण उन्हें सहारा देने में असमर्थ था, मैंने उन्हें हौसला दिया उन्हें बिश्वास दिलाया की अब हम थोड़े समय के बाद सबदरखाल पहुँचने वाले है,
एक घंठे चलने के बाद हम सबदरखाल के ऊपर स्कूल के पास जैसे ही पहुंचे हमने ढोल दमौ को आग में गर्म किया।
अभी हम दो कदम छाले थे की तभी बारिश आने लगी, और हमारे स्वागत के लिए कुंडीगावं के पांडव पहुँच चुके थे, पांडव के जय जयकार के नारे लग रहे थे, माता कुंती की जयजयकार हो रही थी पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया था, लोग रांसे लगाने लगे ढोल दमौ की थाप पर देवता नाचने लगे