खुद ही से मैं नज़रें चुराने लगी हूं,
उन यादों से दामन छुड़ाने लगी हूँ ।
खुद ही से खुद ही का पता पूछती हूँ,
न जाने कहाँ मैं विलीन हो चुकी हूँ ।
अरमानों को अपने दबाने लगी हूँ,
पहचान अपनी भुलाने लगी हूँ ।
भटकने लगी राह मंज़िल की अपनी,
कहूँ क्या किधर थी, किधर को चली हूँ ।
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