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नेहा की पुस्तकें

नेहा के लेख

उम्र का सफर...

10 अगस्त 2017
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उम्र का हर एक सफर तय हो जाता है हसते - खेलते अलविदा कह जाता है। एक दिन जीवन अंत तक आकर दहलीज को सदा - सदा के लिए पार कर जाता है क्या लाए, क्या पाया सब यही रह जाते हैं साथी सभी हाथ से छिटक जाते हैं कौन, किसका - कितना था कौन जान पाया बस जो कर्म अपने थे साथ - साथ आये कुछ टुकड़े यादों में कुछ हिसाब में

दादा - दादी मेरे बूढ़े हो चले...

10 अगस्त 2017
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दादा - दादी मेरे बूढ़े हो चले, चश्मे के बहाने लडते - झगड़ते। उम्र जितनी ढल चुकी, प्रेम उतना गहरा हो चला, एक - दूजे बिन रह ना पाते, कई जन्मों के साथी, मन को ये लगते प्यारे, सर पर चश्मा लेके, सारा घर नापते, ढूंढते - ढूंढते चश्मा, खुद ही खो जाते, तब फिर याद आता, जोर - जोर से ठहाके लगाते, दादा - दादी मे

कलम और कागज की दोस्ती...

9 अगस्त 2017
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कलम और कागज की दोस्ती। कमाल क्या खूब दिखाती।। एक आइना तो, एक अक्स बन जाती। एक साज तो, एक संगीत बन जाती। एक बने एहसास, एक जरिया बन जाती। कलम और कागज की दोस्ती। कमाल क्या खूब दिखाती।।

भूली बिसरी यादे बचपन की।

9 अगस्त 2017
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भूली बिसरी यादे बचपन की, आती जब भी, खिलती मुस्कान, कठोर हृदय की भी। रखते थे बादलों पे पांव, रहते थे आसमां के गांव। चलती थी अपनी भी, कई पानी में नांव। खेलते थे संग सब मिल-जुल, छोटे-बड़े सब थे यार हमारे। घाव कोई भी हो, पल में भर जाता था। खिलोना कोई हो ना हो, खेलने में मजा खूब आता था। रख लू सब यादें, स

आसमां ने पूछां... कैसी है धरती।

9 अगस्त 2017
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उडाने भरते पंछी नित नभ में, करने गुफ्तगू आसमां से। आसमां ने पूछां, कैसी है धरती, पंछी ने कहां, मिलके रोज तुमसे, हैं वो झूमती। पा कर बादलों से, संदेसा तुम्हारा, हरियाली वो हो जाती। छन कर किरणें तुमसे, जब भी उससे टकराती, इक - इक डाली, फूलों से वो सजाती। आसमां ने पूछां, कैसी है धरती, पंछी ने कहां,मुझको

बारिश की बूंदें...

8 अगस्त 2017
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नन्ही सी मगर। बूंदें ये बारिश की बहुत कुछ कह जाती।। कभी यादों का सैलाब पलकों में। तो कभी नये एहसास।। कभी कहानी सुनाती सी। तो कभी आज को कैद कर जाती।। पर जब भी आती। रंग नये भर जाती।। रख पाती जो भला संभाल के। पानी संग मिल जाती।। नन्ही सी मगर। बूंदें ये बारिश की बहुत कुछ कह जाती।।

खोली जब आखे सुबह...

4 अगस्त 2017
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खोली जब आखे सुबह। नया - नया सब लगने लगा।। चाद कुछ शरमाया सा। सूरज मुस्कुराने लगा।। खोली जब आखे सुबह। नया - नया सब लगने लगा।। चिड़िया चहक-चहक गाती सी, तितलियां रंग बिखेरने लगी, फूलों में खुश्बू ताजा - ताजा। मस्ती में झूमता समा सारा लगा।। खोली जब आखे सुबह। नया - नया सब लगने लगा।। रोशनी उमंग लिए, मन मह

परिभाषा बचपन की बदलने लगी हैं।।

2 अगस्त 2017
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परिभाषा बचपन की बदलने लगी हैं। कलियाँ खिलना भूल चुकी हैं, मुरझाकर, मायूसी सिमट चुकी हैं। कहीं है पैरों में छाले, भूखे, बेबस... हालात के मारे दर - दर भटकते, ढूंढते सहारे। परिभाषा बचपन की बदलने लगी हैं।भविष्य थे जो कल का, आज मे भी डरने लगे हैं। आस छोडकर, मजबूर, हाथ फैलाने लगे हैं। नमी है कही, आखों

जिंदगी ...

20 जनवरी 2016
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जिंदगीआसमां में छाये हो बादल जैसे काले-काले।वैसे ही जिंदगी में कभी मायूसी भी,फिर बरखा आये औरनजारा साफ़ हो जाये।जिंदगीशतरंज की बिसात सी कभी,क्षय और मात साथ - साथ दोनों ही।जिंदगीखूश्बू और कांटो सी, बंधे दोनों साथ - साथ ही।जिंदगीसूरज और चांद में बंटी,आधा हिस्सा कहीं औरबाकी यहीं -कही

देखूँ दर्द में जिंदगी को...

19 जनवरी 2016
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देखूँ दर्द में जिंदगी कोतो दर्द बांट सकूँ।देखूँ चोट में जिंदगी कोतो मरहम लगा सकूँ।देखूँ मायूसी में जिंदगी कोतो हिम्मत बंधा सकूँ।देखूँ हार में जिंदगी कोतो जीत की राह दिखा सकूँ।देखूँ खामोशी में जिंदगी कोतो मुस्कान दे सकूँ।देखूँ तन्हाई में जिंदगी कोतो साथ दे सकूँ।देखूँ बेबसी में जिं

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