बार-बार लिपटा चरणों से, बार-बार नीचे आया;
चूक न अपनी ज्ञात हमें, है दण्ड कि निर्वासन पाया ।
(1)
तरी झांझरी साथ मिली,
चल पड़ा कहीं तिरता-तिरता,
लहर-लहर पर सघन अमा में
ज्योति खोजता मैँ फिरता।
विन्दु सिन्धु के हेतु व्यग्र, आधार खोजती है छाया ।
चूक न अपनी ज्ञात हमें, है दण्ड कि निर्वासन पाया ।
(2)
बांध रखूँ आलिंगन में कस,
ऐसी यहाँ बयार नहीं;
कबरी की भी कली
साथ चलने को है तैयार नहीं।
पश्चात्ताप यही कि विश्व में खोया वहीं, जहाँ पाया,
चूक न अपनी ज्ञात हमें, है दण्ड कि निर्वासन पाया ।
(मीरगंज, 1935 ई.)