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पाँचवाँ दृश्य

26 जनवरी 2022

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स्थान-विल्वमठ-एक उद्यान

(गोप और जसोदा आते हैं)

गोप : हाँ बेशक-तुम जानती हो कि पिता के पापों का दण्ड उसके बच्चों को भोगना पड़ता है। इसलिये मैं सच कहता हूँ कि मुझे तुम्हारा अमंगल दृष्टि आता है। मैंने तुमसे छलावल की बात आज तक नहीं की और अब भी तुमसे अपना विचार स्पष्ट कह दिया। नेक अपने मन को प्रसन्न रक्खो क्योंकि मेरी सम्मति में तो तुम अपराधग्रस्त हो चुकीं। हाँ एक उपाय तुम्हारे कल्याण का दृष्टि आता है सो उसकी भी आशा कुछ ऐसी वैसी है।

जसोदा : वह कौन सा उपाय है नेक बताना तो?

गोप : भाई! तुम यह समझो कि तुम अपने पिता से उत्पन्न नहीं हो अर्थात् तुम जैन की कन्या नहीं हो।

जसोदा : तौ तो सचमुच यह आशा ऐसी ही वैसी है क्योंकि ऐसा करने में मुझे अपनी माता के अपराधों का दण्ड मिलेगा।

गोप : हाँ सच तो है, तब तो मुझे भाग्य है कि तुम माता पिता दोनों के निमित्त दण्ड पाओगी। हाय हाय जब मैं तुम्हें उधर गड्डे अर्थात् तुम्हारे पिता से बचाता हूँ तो इधर खाई अर्थात् तुम्हारी माता दृष्टि आती है। अच्छा तो अब तुम दोनों ओर से गई।

जसोदा : मैं अपने स्वामी के द्वारा मुक्ति पाऊँगी, वह मुझे आर्य धर्म में लाए हैं।

गोप : तौ तो प्रधान दोष उन पर है। हम लोग पहिले ही से आर्य धर्म के क्या न्यून मनुष्य हैं। परन्तु अच्छा जितने थे उतनों का किसी भाँति पूरा पड़ जाता था पर अब नये आर्यों के भरती होने से सूअर का दाम बढ़ जायेगा। यदि हम सब के सब शूकर भक्षी बन जाएँगे तो थोड़े दिनों में बहुत दाम देने से भी उस स्वादिष्ट मांस का एक टुकड़ा भी हाथ न आवेगा।

(लवंग आता है)

जसोदा : गोप, मैं तुम्हारी सब बातें अपने स्वामी से कहूँगी; देखो वह आते हैं।

लवंग : गोप, यदि तुम इस भाँति मेरी स्त्री से परोक्ष में बात किया करोगे तो मुझसे कैसे देखा जायेगा।

जसोदा : नहीं लवंग तुम हम लोगों की ओर से सन्देह मत करो; मुझ से और गोप से कहासुनी हो रही है क्योंकि वह मुझसे स्पष्ट कहता है कि मुझको भगवान न क्षमा करेगा क्योंकि मैं जैन की पुत्री हूँ और तुम्हारे विषय में कहता है कि तुम अपनी जाति के शुभचिन्तक नहीं हो क्योंकि जैनियों को आर्य बना कर सूअर के मांस का भाव बिगाड़ते हो।

लवंग : अबे जा उन लोगों से भोजन की तैयारी के लिये कह दे।

गोप : साहिब वह सब प्रस्तुत हैं क्योंकि उनको भी तो पेट है।

लवंग : ईश्वर का कोप हो तुझ पर, तू क्या ही हँसोड़ है। अच्छा उन्हें थाली परोसने के लिए कह दे।

गोप : यह भी हो चुका है केवल आच्छादन करना शेष है।

लवंग : तो शीघ्र आच्छादित करो।

गोप : यह मेरा सामथ्र्य नहीं कि स्वामी के सामने आच्छादन करूँ।

लवंग : फिर भी अपना ही राग गाए जाता है। क्या तू एक ही क्षण में अपना कुल हँसोड़पन खर्च कर डालेगा मैं तुझसे विनय करता हूँ कि मेरी सरल बातचीत के सीधे अर्थ समझ। जा अपने साथियों से कह दे कि थाली में मांस चुन कर ढंपना, छुरी काँटा इत्यादि रख दे। हम लोग भोजन को आते हैं।

गोप : महाराज थाली तो परस दी जायेगी और मांस भी लगा दिया जायेगा पर बिना चुहल के खाना अलोना प्रतीत होगा। इससे इसका तार न तोड़िए।

लवंग : ईश्वर की शरण, इस दुष्ट में तो हँसोड़पन वू$ट वू$ट कर भरा है मानो इसके सिर में श्लेष की सेना पैतरा बाँधे हर समय उपस्थित है। मैं बहुतेरे दुष्टों को जानता हूँ जो इससे अधिकार में कहीं बढ़कर हैं परन्तु शब्दों के प्रयोग में अर्थ का सत्यानाश करते हैं। जसोदा तुम किस विचार में हो? भला प्यारी तुम अपनी सम्मति तो वर्णन करो कि तुम राजकुमार बसन्त की अद्र्धांगिनी को कैसा समझती हो?

जसोदा : उनकी प्रशंसा अनिर्वचनीय है। मेरी जान में तो उचित होगा कि राजकुमार बसन्त को अब अपना जीवन निरी पवित्रता के साथ बिताना चाहिए क्योंकि जो पदार्थ कि उन्हें अपनी स्त्री में मिला है वह ऐसा है कि मानो उन्हें पृथ्वी पर स्वर्ग का सुख जीते जी हाथ लगा और यदि वह इसका आदर न करें तो स्पष्ट है कि उन्हें स्वर्ग का सुख भी क्या उठेगा। मेरी समझ में तो यदि दो देवता आपस में कोई स्वर्गीय कौतुक करें और दो सांसारिक स्त्रियों की होड़ बढ़े और इनमें से एक पुरश्री को अपनी ओर से बाजी में लगावें तो दूसरे को अपनी शर्त में एक स्त्री के साथ और भी बहुत कुछ बढ़ना होगा। क्योंकि इस उजाड़ संसार में पुरश्री का सा दूसरा तो मिलना नहीं।

लवंग : जैसा कि राजकुमार बसन्त को स्त्री लब्ध हुई है वैसा ही मैं भी तुम्हें स्वामी मिला हूँ।

जसोदा : सत्य वचन। परन्तु इसके विषय में भी तनिक मेरी सम्मति पूछ देखो।

लवंग : हाँ अभी पूछता हूँ। पहिले चलो खाना खा लें।

जसोदा : नहीं, अभी मुझे पेट भर तुम अपनी प्रशंसा कर लेने दो भोजन के उपरान्त समाई न रहेगी।

लवंग : भगवान के वास्ते यह कथा खाने के समय के लिए रहने दो। उस समय तुम मुझे कैसा ही कुछ कहोगी मैं उसे और पदार्थों के साथ पचा जाऊँगा।

जसोदा : बहुत अच्छा मैं आपकी प्रशंसा की पोथी वहीं खोलूँगी।

(दोनों जाते हैं) 

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रचनाएँ
दुर्लभ बन्धु
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उन्होंने कई नाटक, रोजमर्रा की जिंदगी का चित्रण, और सफरनामे लिखे। लेकिन, हरिश्चंद्र की सबसे उल्लेखनीय रचनाएँ आम लोगों की परेशानियों, गरीबी, शोषण, मध्यम वर्ग की अशांति को संबोधित करती हैं, और राष्ट्रीय प्रगति के लिए आग्रह करती हैं। अपने जीवनकाल में, हरिश्चंद्र ने सक्रिय रूप से हिंदी साहित्य के पुनरुद्धार को बढ़ावा दिया और जनता की राय को आकार देने के प्रयास में अपने नाटकों का इस्तेमाल किया।
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द्वितीय अंक : पहला दृश्य

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तीसरा दृश्य

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पाँचवाँ दृश्य

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