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पिशाचिनी का प्रतिशोध भाग 55

21 जून 2022

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■पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 55 
            (पिशाचिनी सिद्धि)

       (article-imageपिशाचिनीसिद्धि)______________________________________________________________________________________________________________________________ लाओ..... हमारा भोग..... हमें....... प्रदान ....करो।लाओ......हमारा भोग .....हमें......प्रदान करो ।अचानक सहस्त्रों हाथ मेरीं ओर याचना करतें हुए मेरीं और आगे बढ़ें।किन्तु मेरा पूरा ध्यान उस प्रज्वलित पञ्च मुखी दीप की ओर था, परन्तु मेरें कानों में उन अदृष्य आवाज़ों की गूँज पूरी तरह गुंजारित हो रही थी,इस असहनीय गूँज के कारण मुझें मंत्र जाप करनें में अब व्यबधान होनें लगा था,और कान एकदम गुम्म हो गए थे,उनमें केबल वही एक स्वर गुंजायमान था।लाओ हमारा भोग हमें दे दो।लाओ, हमारा भोग हमें दे दो।अचानक कुछ हाथों नें वह चतुर्मुखी प्रज्वलित दीप को अपनीं चौड़ी चौड़ी करतलों से ढक नें का प्रयास किया, किन्तु यह क्या , वह प्रज्वलित दीप शिखा की अग्नि उन करतलों को भेदती हुई  पुनः दैदीप्यमान हो उठी थी, अतः मेरीं दीपक संग त्राटक क्रिया को कोई वाधा नहीं हुई थी,किन्तु अब मेरें सामनें  एक एक कर अनेक चतुर्मुखी दीप कोई प्रज्वलित कर के रखता जा रहा था,मैंने उस दीप रखनें बालें को देखनें का प्रयास किया, किन्तु वह मुझें कोशिश कर नें के बावजूद भी दिखलाई नहीं दिया,इधर मेरी प्राणों की स्फुरणा आज्ञाचक्र में स्थित हो चुकी थी, उसी बीच मेरे नजदीक चतुर्मुखी प्रदीप्त दीपों का प्रकाश इतना उज्ज्वल हो चुका था कि वहाँ स्थित प्रत्येक बस्तु मुझें स्प्ष्ट दिखलाई दे रही थी ,किन्तु वह लंबी लंबी पतली सुंदर उँगलियों के करतल अब भी उसी तरह जलतें दिखरहें थे, जैसे बरसात की ऋतु में दीपक के चारों ओर पतंगा कीट जमा हो कर उस दीप को वार वार बुझाने का प्रयास करतें हैं किंतु उस दीप की सुरक्षा के कारण वह कीट पतंग अपना प्राणोत्सर्ग कर देतें हैं,।अचानक मेरें सामनें वही दो पीतांबर धारिणी वही  महिलाएं नृत्य मुद्रा में दिखलाई दीं, उन प्रज्वलित दीपों के प्रकाश में उन महिलाओं का प्रत्येक भाव,भंगिमाओं का प्रदर्शन स्प्ष्ट दीख रहा था,वह लगता था कोई स्वर्ग से उतरीं अप्सराएं हों,सिर से लेकर  पैरों तक पीत रङ्ग स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित थीं वह, उसी समय किसी नें वीणा के मधुर तारों को छेड़ दिया,तथा दूसरी तरफ से  मृधङ्ग पर किसी नें मधुर थपकियाँ देनीं शुरुआत की, और पलक झपकनें से पहिलें वहाँ  दर्शकों का हुजूम उमड़ कर आ आकर मेरे चारों ओर एकित्रित होकर उस अद्भुद नृत्य को देखनें लगें,किन्तु मुझें पूरी तरह ज्ञात था कि यह भी एक दिग्भ्रमित करनें बाली ही क्रिया का भाग है, अतः मैं उसमन्त्र का जाप करता रहा,।"ॐ ह्रीं सर्व कामदे मोहरे स्वाहा"जाप करतें करतें मेरीं जिव्हा सूखने लगी थी, लगता था कि जीभ और व्रह्न रन्ध्र में कण्टक उग आएं हों, किन्तु फिर भी मैं उपांसु जाप करता रहा, मुझें उस पञ्च पादपों के झुरमुट में पता ही नहीं चला कि मुझें यह तीनों क्रियाएं एक साथ करतें करतें कितना बक्त गुज़र गया, पता ही नहीं चला, मैं अपनीं दृष्टि उस चतुर्मुखदीपक से अलग हटानें का अर्थ भलिंभाँति जानता था, दूसरी ओर मुझें महाराज जी के द्वारा बताए गए समयानुसार जाप कर मंत्र सिद्धि करना अनिवार्य था,तीसरा कुण्डालिनी जागरण  देवी पिशाचिनी के दर्शन देनें से पहिलें अति आवश्यक था, इसलिए, मुझें किसी नृत्य सङ्गीत  अथवा किसी सौंदर्य से कुछ लेना देना नहीं था।अतः मैं उस नृत्य सभा को नजरअंदाज कर अपनीं क्रियाओं में संलग्न रहा,।लो वत्स सोमरस पान करो।उन दो महिलाओं में से एक नृत्यांगना एक स्वर्णपात्र में सोमरस लिए मेरी ओर बड़ी।अतः मैं उसे मुहँ द्वारा बोलकर मनाकरता तो मेरीं जाप शक्ति खण्डित होसकती थी, अतः मैंने उसे हाथ के इशारे से वर्जित किया। और वह तुरन्त मेरी बात मानकर चली गई,।अब मैं निर्विघ्नता से अपनें कार्य में अग्रसर रहा,अब मुझें वहाँ नाचनें-गानें की किसी भी प्रकार की कोई गतिविधि आदि सुनाई नहीं पड रही थी।लगता था वहाँ किसी की प्रतीक्षा थी। अभी अभी मेरे सामनें रखें उस चतुर्मुखी दीप की ज्योति अचानक अपनें  स्वरूप को बड़ा करनें लगी, मैं आश्चर्य चकित हो गया मेरीं श्वाशों का प्रवाह तेज़ हो गया था, और आँखों में लगा कि कई अग्निस्फुलिंग निकलनें बालें हैं, अचानक मेरे समक्ष प्रज्वालित दीप की शिखा से एक भयानक आकृति निकली और वह मुझें बेहद खूँख्वार ढङ्ग से रक्तिम बड़े बड़े नेत्रों , जो कि वाहर को उबले हुए दिखाई दे रहे थे से घूरे जा रही थी उसके एक हाथ में नर कपाल था दूसरें हाथ में माँस का लोथड़ा जो शायद किसी मानव के सीनें को चीर कर हृदय  का भाग दिखनें के साथ साथ अभी भी प्रतिपल धड़क रहा था,उस से टपकता लाल लाल रक्त विंदू उस अग्निस्फुलिंग के रूप में निकल कर उतनीं ही बड़ें हो जातें जितनें कि मेरे समक्ष जलतें चतुर्मुखी दीपक की शिखा में वह अद्भुत दृश्य में नजर आ रहा था ,अतः जितनीं अग्निस्फुलिंग बड़ी होंतीं जा रहीं थीं वह सभी उस दृष्य रहष्यमइ आत्मा के सदृष्य दृष्टिगोचर होती थी , वह सभी आत्माएँ ज्योति आकार में मेरीं ओर बड़चूकी थीं, अचानक मुझें लगा कि मेरीं चेतना शक्ति उस भयानक आत्मा का अपनी ओरइस तरह घूरने को सहन नहीं कर पा रही है, और मैं गहरी अँधेरों में गुम होने लगा हूँ,अतः मैं अतिशीघ्र उस कामदा पिशाचिनी के मंत्रों का जाप पूरा करना चाहता था बस अभी कुछ मंत्र सँख्या शेष थी,अतः अब मेरीं उंगलियाँ मेरे गुरुदेव द्वारा दी गई माला पर अति शीघ्र फिरनें लगीं थीं आँखे उस दिव्य ज्योति से प्रकट उस शक्ति पर टिकीं थीं, मुझें लगा अब मेरा प्राणान्त होना ही है, अतः मेरें हाथ की उँगली माला के सुमेरु पर आकर रुक गई, इसका मतलब मंत्र सीमा अपनें निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर चुकी थी।अचानक मेरे मुहँ से एक आज्ञात्मक शब्द निकला।तिष्ठ....तिष्ठ......तिष्ठ।और वह ज्योतिसे प्रकट आत्मा, और उसके हाथ में पकड़ें किसीमानव हृदय से टपकतीं रक्तविन्दुओं से उतपन्न सभी वह आत्माएं ठहर चुकीं थीं।आप सब कौन हैं, कृपया अपना परिचय देनें की कृपा करें।मेरे मुहँ से एक नम्र निवेदन निकला।और पल भर में वह सभी भयंकर दिव्यात्माएँ एक से एक दिव्य अंगों बाली सुंदरियाँ बन चुकीं थीं वह दिव्यात्मा जो चतुर्मुखी दीपक की शिखा से उतपन्न एक भयानक रूप से मुझें अब तक त्रासित करतीं रही थीं वह एक सौम्य दिव्य स्वरूप धारण कर चुकीं थीं उनके हाथ अब अभय मुद्रा में मेरे सामनें था, वह मंद मंद मुश्कराकर मुझें देखरहीं थीं।हे माँ ,दया करो, अपनें इस कुपुत्र  बालक पर।मैं उठकर उन दिव्यता की मूर्ति के चरणों में नत्मस्तक होचुका था।उठो !वत्स ,मेरा प्रिय भोग दो।मातेश्वरी दया कर यह सात्वकी भोग स्वीकार करें।मैंने अपनें थैले में से वही सात्वकी प्रषाद माँ के समक्ष रखा।वह उस प्रसाद को देखकर वहुत ही मधुर स्वर में हँसी और मुझें अपनें चरणों से उठातीं हुई बोलीं।आख़िर तेरीं हठ नें मुझें प्रसन्न कर ही लिया।हे माँ आप तो स्वयं करुणा मय हो,आपको भला बिना आपकी इच्छा के भला कौन पा सकता है।बता मैं तेरा क्या अभीष्ठ सिद्ध करूँ।माँ आप से कुछ भी छिपा नहीं, अब आपकी मर्जी जैसे तेरीं कृपा मुझें मिलें।तथास्तु वत्स।वह माँ पलभर में वहाँ से अंतर्ध्यान हो गई थीं।मैं उन पञ्च पादपों के झुरमुटों से निकला तो प्राची दिशा में मंद मंद वायु प्रवाहित होरही थी, सारा गगन रक्तिम वर्ण दिखाई दे रहा था, पक्षी अपनें अपनें नीड़ों से निकलकर मधुर कलरव की ध्वनि करतें हुए अपनीं दैनिक दिनचर्या की ओर अग्रसर हो चुके थे।अतः अब मुझें शीघ्रातिशीघ्र यहाँ से निकलकर आश्रम की ओर प्रस्थान करना है।ऐसा मन में विचार कर मैं अपना सामान समेंट कर वहाँ राज नगर के श्मशान से निकल चुका था।शेषांश..... .  .....आगे।Written by h.k.bharadawaj
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रचनाएँ
■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■
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देवेश की पत्नी अपनें दोनों बच्चों को स्कूल में छोड़नें जाती है, वह सात माह की गर्भवती थी,रास्ते में अक्समात एक प्रेत उस पर अटैक करदेता है,वह ठोकर खाकर गिर जाती है,बच्चों को वह दर्द सहन करती किसी तरह स्कूल में छोडाती है,पर घर आते आते वह भयंकर पीड़ा से भर उठती है और घर में विस्तर पर बेहोश हो जाती है,आगे की कहांनी जान नें हेतु पढ़ें। "पिशाचिनी का प्रतिशोध "
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