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प्रकृति

27 नवम्बर 2021

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"प्रकृति"

"प्रकृति" शब्द,
बड़ा रोचक है।
यह इंसान के उत्थान,
पतन का द्योतक है।
कई बार सोचता हूँ,
असमंजस की स्थिति में।
"प्रकृति" इंसान में बसी है,
या इंसान "प्रकृति" में।
फिर देखता हूँ,
आँखें तरेरकर।
क्या यही "प्रकृति" है?
जो रहती क्षितिज घेरकर।
"प्रकृति" विरंचि की रचना है,
बात तो यह सच है।
इंसान भी विरंचि का जीव है,
बात यह भी सच है।
एक तरफ,उफनती नदियाँ हैं,
शांत सागर,वन,उपवन हैं।
दूसरी ओर मरुभूमि है,
नीले अम्बर घुमड़ते घन हैं।
तब महसूस करता हूँ,
इंसान "प्रकृति" में बसा है।
भृकुटि तानकर सोचता हूँ,
इंसान में भी कुछ नशा है।
यहाँ कोई शीतल कोई गरम है।
कोई उष्ण कोई नरम है।
कोई शर्मिला कोई रंगीला,
सभी को यहाँ भरम है।
कोई चोर कोई ईमानदार,
कोई मस्तमौला कोई लाचार।
कोई गुस्सैल कोई शांत है,
योगी,भोगी कोई अशांत है।
जितने लोग उतने मुखोटे,
मुखोटों के पीछे इंसान की "प्रकृति" है।
यह भी सुना है,
यही इंसानी प्रवृति है।
असमंजस बरकरार है,
आती खुद पर हँसी है।
सोचा इंसान का व्यवहार देख,
"प्रकृति" इंसान में बसी है।
               ।भूपेन्द्र।
         27/11/2017

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