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फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "

18 अगस्त 2018

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फुर्सत के चंद लम्हे जो मैं खुद के साथ बिता रही हूँ। घर से दूर,काम -धंधे,दोस्त - रिस्तेदार से दूर,अकेली सिर्फ और सिर्फ मैं। हां,आस बहरी दुनिया है कुछ लड़के - लड़किया जो मस्ती में डूबे है,कुछ बुजुर्ग जो अपने पोते - पोतियो के साथ खेल रहे है,कुछ और लोग है जो शायद मेरी तरह बेकार है या किसी का इंतज़ार कर रहे है। पास से ही एक सड़क गुजर रही है जिस पर गाड़ियों का आना -जाना जारी है। इन सारे शोर -शराबो के वावजूद मुझे बहुत सुकून महसूस हो रहा है.ना कोई चिंता - फ़िक्र है ना कोई विचार, सिर्फ ख़ामोशी है। ऐसा शायद इसलिए है कि हर वक़्त लोगो में घिरी रहने और काम धंधो में उलझी रहने वाली "मैं "जिसे अकेले वक़्त गुजरने का पहला मोका मिला है। दरअसल,मेरी बेटी ने एक institute ज्वाइन किया है और आज उसके क्लास का पहला दिन है।

अनजान शहर ,अनजान रास्ते है तो मुझे उसके साथ आना पड़ा। तीन घंटे की उसकी क्लास है तो मेरी भी तीन घंटे की क्लास लग गई और वक़्त गुजरने के लिए मैं पास के ही एक पार्क में आ बैठी। मैं काफी बातूनी हूँ चुप बैठ ही नहीं सकती तो सोचा क्यूँ न आज खुद से ही बाते कर लू। "खुद से बाते "लोग पागल नहीं समझेंगे। तो सोचा कागज कलम का सहारा लेलेती हूँ। मैंने पास बैठे एक लड़के से एक पेपर माँगा पेन तो हर वक़्त मेरे साथ होता ही है और बैठ गई खुद से बात करने।

इस तरह के लम्हा मेरी लाइफ में पहली बार है जब मैं बिलकुल तन्हा हूँ। ये सच है की इंसान तन्हा नहीं जी सकता उसे हर कदम पर किसी साथी ,किसी अपने की जरुरत महसूस होती है। जरुरत नहीं बल्कि यु कह सकते है कि उसकी ख्वाहिश ही होती है की हर पल कोई अपना उसके साथ हो। लेकिन आज इस पल मुझे पहली बार महसूस हो रहा है कि कभी कभी सबसे दूर अकेले,सिर्फ और सिर्फ खुद के साथ भी हमे वक़्त बिताना चाहिए। हम हमेशा ही दुसरो को देखते है और दुसरो के नज़र से ही खुद को देखते है। कभी कभी हमे "खुद को" खुद के नज़र से भी देखना चाहिए।" खुद "को महसूस करना चाहिए। सिर्फ अपनी खामियों या गुणों को नहीं ही नहीं बल्कि खुद के अंदर झांक कर ये महसूस करना चाहिए कि "मैं कौन हूँ , मैं क्या हूँ ".

मैं यह अधाय्तम की बाते नहीं कर रही। क्युकि अधाय्तम के रूप में तो "मैं "शब्द बड़ा ही व्यापक और विस्तृत है। इसको जानना समझना,इसका अवलोकन या व्याख्या करना हम जैसे आम लोगो के लिए कहाँ संभव है। मैं यहां उस " मैं " के बारे में भी नहीं कह रही जहाँ इंसान जब खुद से बाते करता है तो सोचता है कि -"मैंने इसके लिए ये किया ,वो किया ,मैंने अपनों के लिए कितना दुःख सहा ,मैंने सबके लिए कितना त्याग किया ,कितने समझौते किये ,दुसरो ने मुझे कितना दर्द दिया,मेरा कितना अपमान किया ,कितने इल्ज़ाम लगाये। नहीं ,ये कहना नहीं चाहती मैं। क्युकी हमने जो किया वो हमारा फ़र्ज़ था बस। अगर इन बातो का हम अकेले में बैठ कर अवलोकन करेंगे यानि अपने भीतर खुद से इसकी चर्चा परिचर्चा करेंगे तो उससे खुद के अंदर दर्द पैदा होगा जो तकलीफ देगा या खुद के अंदर गुरुर पैदा होगा जो हमे घमंडी बनाएगा। और फिर अगर यही बाते करेंगे तो हम तनहा कहाँ होंगे ,खुद के साथ कहाँ होंगे। जिन लोगो के बारे में हम सोचेंगे वो हमारे पास ना होते हुए भी हमारे पास होंगे। हमारे भीतर तो उन्ही के गुण-दोष या अपने गुण -दोष वाली बातो की उठा पटक चलती रहेगी। फिर हम अपने साथ कहाँ होंगे। हमे तो ये वक़्त बड़े सौभाग्य से पहली बार मिले है तो क्यों न हम खुद के बारे में सोचे,खुद को जाने ,"मगर कैसे ".

कैसे हम खुद के बारे में जाने। क्युकि आज तक हम खुद के बारे में भी दुसरो से सुनते आ रहे है कोई कहता है बहुत बुरी है,कोई कहता है चिड़चिड़ी है गुस्सा करती रहती है ,नसीहत करती रहती है,अपने आप को हिटलर समझती है तो कोई कहता है बहुत अच्छी है ,सुलझी है,निस्वार्थ सबकी मदद करती है ,कोई कहता है तुमसे बात करना बहुत अच्छा लगता है ,तुम बहुत अच्छा सलाह देती हो ,कोई इन सारी अच्छाइयों का दिखावा करना भी कहता है,कोई कहता है मीठा बोलती हो तो कोई कहता है जुबान बड़ी कड़वी है। इन बातो को सोचते हुए विचार आता है कि आखिर "मैं हूँ कैसी "लेकिन आज इन सारी बातो का अवलोकन करने का भी दिल नहीं कर रहा है। क्योकि एक इंसान हर किसी के लिए अच्छा नहीं हो सकता।हर कोई उससे अपने अपने नज़रिये से देखता है या यूँ कह सकते है कि जो जैसा होता है दूसरे को उसी नज़र से देखता है या यूँ भी कह सकते है कि हर कोई अपने अपने फायदे या नुकसान के हिसाब से दूसरे को देखता है। इसलिए आज ये सब सोचना भी अच्छा नहीं लग रहा है।

आज एक बार ये सोचने का दिल कर रहा है कि सारी उम्र दुसरो के लिए जीने और दुसरो के ख़ुशी को पूरा करने वाली" मैं "क्या कभी एक पल के लिए भी खुद के लिए जी हूँ ? क्या कभी मैंने अपनी ख़ुशी के बारे में सोचा हैं ?क्या इस जीवन में मैं अपने मन ,अपनी आत्मा की ख़ुशी का ख्याल रखी हूँ ?ये सच है कि दुसरो के लिए जीना ,उनके दुःख को अपना दुःख समझना ,उनकी ख़ुशी को अपनी ख़ुशी समझना ,उनके सुख पर अपना सुख न्योछावर करना अच्छी बात हैं। ऐसे इंसान को ही सच्चा और अच्छा इंसान कहते हैं। लेकिन क्या अपने मन को दुखी करना ,अपना ही निरादर करना ,अपने मन और आत्मा की ख़ुशी को पूरा करना तो दूर उसे जानना तक नहीं ,क्या ये भी सही हैं? इंसान कभी भी दुसरो की ख़ुशी पर अपनी ख़ुशी ,दुसरो के हंसी पर अपनी हंसी न्योछावर करता है तो कही ना कही वो अपनी खुद की ख़ुशी और हंसी का गला घोट रहा होता है। ये भी सच है कि दुसरो के मुख पर आप जब मुस्कान लाते हो तो उससे भी आप को ख़ुशी मिलती है। एक पल के लिए आप के होठो पे भी हंसी आती है। लेकिन उस एक छोटी हंसी के पीछे आप के कितने दर्द छिपे होते है वो दूसरा नहीं देख पाता। तो क्या हम जो अपने मन को दर्द देते है वो सही है ?हां, हम अपने मन को एक संतावना पुरस्कार जरूर देते है कि "तुम्हारे कारण एक चेहरे पर हंसी आई ये क्या कम है तुम्हे भी इसी में अपनी ख़ुशी समझनी चाहिए ". लेकिन सच्चाई क्या यही होती है ?क्या हम अपने मन को मार कर उसके साथ नाइंसाफी नहीं कर रहे होते है?आज दिल कहता है कि -"एक बार मैं अपनी मन की ख़ुशी को जानने की कोशिश करू , किसी को बिना कोई तकलीफ पहुचाये ,छोटी छोटी बातो से अपने दिल को ख़ुशी और सुकून देना कोई गलत बात नहीं ,कोई गुनाह नहीं। हमे अपने दिल की छोटी छोटी खुशियों,तमनाओ ,भावनाओ का ख्याल खुद रखना चाहिए किसी और से इसकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। लेकिन हमारी पीढ़ी को ये बात नहीं सिखाया गया ना ही हमने कभी सिखने की कोशिश ही की।

आज की नई पीढ़ियों ने भले ही हमसे त्याग की भावना नहीं सीखी हो लेकिन हमे इनसे ये एक बात जरूर सीखनी चाहिए कि "सबको प्यार करो लेकिन पहले खुद से करो "आज की पीढ़ियों में ये गुण है वो दुसरो के साथ साथ खुद के लिए जीते है। उनका मानना है कि "जब हम खुद खुश नहीं रहेंगे तो दुसरो को खुश कैसे रखेंगे "सही भी है। हवाई जहाज़ में बैठते वक़्त भी यही समझाते है कि "पहले ऑक्सीजन मास्क खुद पहने फिर औरो की सहायता करे ". आज की पीढ़ी इसी rule को follow करती है और खुश है।

ऐसा लगता है कि आज मैं खुद से पहली बार मिली हूँ ,मेरे अंदर भी ये ख्वाहिस जगी है कि मुझे खुद के लिए भी जीना चाहिए। जीवन परमात्मा एक बार देता है और कहता है कि "तुम्हारा पहला कर्त्वय खुद के प्रति है "परन्तु हमारी पीढ़ी ने ये कभी किया ही नहीं। कहते है न कि "जब जागो तभी सवेरा "तो आज मुझे भी अपनी सुबह मिल गई हैं।

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कामिनी सिन्हा

कामिनी सिन्हा

ये सच है सखी कि -आज के पीढ़ी का सिर्फ खुद के लिए जीना संस्कारो को खंडित कर रहा है ,लेकिन हर पीढ़ी की कुछ खासियत भी होती है तो शायद इनकी खासियत ये है कि -ये काम से कम दोहरी ज़िंदगी नहीं जीते ,ये जो है जैसी है सामने है कोई आवरण नहीं है .मैं तो आज कल के पीढ़ी के बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही वक्त बिता रही हूँ इसलिए मेरा अनुभव यही कहता है .

19 दिसम्बर 2018

रेणु

रेणु

प्रिय कामिनी -- आपने बहुत ही सूक्ष्म आत्मावलोकन कर एक महत्वपूर्ण निचोड़ निकाल कर बहुत ही अद्भुत दर्शन से अपनाया है | सचमुच हम में से ज्यादातर लोग या कहूँ हमारी पीढ़ी के लोग हर समय दूसरों के लिए जीने के लिए प्रयासरत रहते हैं |अपने लिए जीने का हुनर भूल जाते हैं और अंततः मायूसियों में खो जाते है | यूँ तो आज की पीढ़ी का अपने लिए जीना बहुत से संस्कारों को खंडित किये जा रहा है पर व्यक्तिगत रूप में वे अपने लिए सम्पूर्णता से जीने को महत्व देते हैं |हम अपनी रचनात्मकता से जुड़ कर स्वयं से ही साक्षात्कार करते हैं और अपने लिए जीने की प्रेरणा पाते हैं | सस्नेह बधाई इस सुंदर सारगर्भित लेख के लिए |

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अजय अमिताभ सुमन

स्वयं को जानने की दिशा में उठाया गया कदम कभी भी देर से नहीं होता.

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<p><br></p> <figure><img src="https://shabd.s3.us-east-2.amazonaws.com/articles/611d425242f7ed561c89

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आईं झुम के बसंत....

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