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संस्मरण:- माता प्रथम गुरु/ हांगकांग यात्रा वर्ष 2018

27 अगस्त 2018

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हांगकांग यात्रा वैसे तो ज्यादा आनंददायक नहीं रही, फिर भी हर यात्रा कुछ न कुछ सिखा ही देती है।ऐसा ही कुछ इस यात्रा में भी हुआ।सोमवार का दिन था, मौसम में नमी थी, गहरे काले बादल घिरे हुये थे और हम तय कार्यक्रम के अनुसार “डिजनीलैंड” के लिये निकले थे। यह स्थान बच्चों के लिये विशेष महत्व का है,उनके मनोरंजन और धमा चौकडी का भरपूर इंतजाम है।यहाँ वो अपने चहेते कार्टून पात्रों को जीता-जागता, चलता-फिरता महसूस करते हैं।उनके साथ खेल सकते हैं, दौड़ लगाते हैं, और अपनी काल्पनिक दुनिया को छू कर महसूस करते हैं।चारों ओर दौड़ते भागते बच्चों को देखकर वाकई बहुत आनंद आता है। हांगकांग चीन का विशेष प्राधिकृत क्षेत्र है और अनेक उद्योगों का केंद्र है, यहाँ चीन के मुख्य भाग से थोड़ी भिन्न व्यवस्थायें हैं पर भीड़ की कमी नहीं है।हमारे देश में जनसंख्या को समस्याओं का मूल कहा जाता है।देश अस्वच्छ क्यों है?-जनसंख्या अधिक है, देश में अशिक्षा क्यों है?-जनसंख्या अधिक है। वगैरह-वगैरह।चूँकि संस्मरण हांगकांग से संबंधित है इसलिये पुनः इस ओर वापस आता हूँ।यहाँ हर काम के लिये पंक्तिबद्ध होना पड़ता है चाहे होटेल में चेक इन करना हो, बस में चढ़ना हो, भोजन के लिये रेस्तरां में जाना हो, डिजनीलैंड में झूला झूलना हो, या कार्टून पात्रों के साथ चित्र खींचा जाना हो। इन पंक्तिबद्ध लोगों में एक अनुशासन देखने को मिलता है, छोटे-छोटे बच्चे स्वयं पंक्तिबद्ध होते हैं, अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं।हर ओर अनुशासन, स्वच्छता, वात्सल्य, उत्साह और प्रसन्नता का एक मेला लगा होता है।मैं यह संस्मरण इसलिये नहीं लिख रहा हूँ क्योंकि डिजनीलैंड ने मुझसे अपने प्रचार का कोई अनुबंध किया है अथवा मैं हांगकांग पर्यटन का दूत नियुक्त हुआ हूँ। वास्तव में इस संस्मरण की आत्मा एक छोटी सी घटना में बसी हुई है, क्योंकि वह छोटी सी घटना एक युवा माता के द्वारा अपनी अल्पायु संतान में राष्ट्रीय चरित्र के विकास का अंकुर स्थापित करती है और यह दर्शाती है कि क्यों हमारे राष्ट्रीय विकास के मनीषी इस तथ्य को बार बार दोहराते हैं कि “माता प्रथम गुरु”।मैं और सौम्या एक बेंच पर बैठे सुस्ताते हुये इन बहुआयामी मनोरंजनों को निहार रहे थे तभी एक माता पुत्र के बीच एक शैक्षिक खेल चला जिसे साझा करने हेतु यह कलम उठाई गई है। एक अल्पायु बालक अपनी युवा माता के साथ पार्क के एक भाग में दौड़ रहा था।माता की आयु कोई 25 से 30 वर्ष और बालक की आयु 2 से 3 वर्ष रही होगी।बालक के बायें हाथ में पाॅपकार्न का एक पैकेट था और वो उनको चबाता हुआ खेल रहा था।भागदौड़ में उसका संतुलन बिगड़ गया और कुछ पाॅपकार्न भूमि पर गिर पड़े।बालक ने कुछ निराशा और कुछ शिकायत के मिले जुले भाव से अपनी माता की ओर देखा।हम दोनों ने आशा की थी कि उसकी माता क्रोधित होगी अथवा उस बालक को लेकर भीड़ में कहीं खो जायेगी।परन्तु इन आशाओं के विपरीत यहाँ का दृश्य थोड़ा भिन्न था।माता के चेहरे पर बेहद शांत भाव थे, न तो उसने क्रोध किया और न ही नजरअंदाज।उसने अपने पुत्र को एक सुरक्षित स्थान पर खड़ा किया और पास की एक दुकान से कुछ कागज के नैपकिन ले आई।अब वह स्वयं उन कागजों में थोड़े थोड़े गिरे हुये पाॅपकार्न के दाने उठाकर कूड़ेदान में फेंकने लगी।जब उसने दो या तीन बार कुछ-कुछ दाने इसी क्रम में कचरे में फेंके तो वह अल्पायु बालक धीरे-धीरे अपनी माँ के पास आया उसने एक पाॅपकार्न का दाना फर्श पर से उठाया और कचरे के डिब्बे में डालने की ओर आगे बढ़ा, हलांकि इस प्रयास में उसके बायें हाथ में पाॅपकार्न के पैकेट से 4 या 5 दाने और फर्श पर गिर गये।हम दोनो यह मासूम सी गलती देख मुस्कुरा दिये पर उसकी माता बिना खिन्न हुये उसी तन्मयता के साथ कुछ-कुछ दाने कूड़ेदान में फेंकती रही।बालक भी उसी क्रम में एक दाना उठाता रहा; 4/5 दाने गिराता रहा।बार बार गिरते हुये 4/5 दानों को देखकर बालक थोड़ा चिंतित हुआ और उसने कुछ सोंच कर वो पैकेट सम्हालते हुये उसका मुँह अपनी बांयी हथेली से पूरा बंद किया, उसे करीने से पकड़ा और अब बिना दाने गिराये एक एक करके फर्श पर पड़े दाने उठाकर माता की सहायता में लग गया।जब उसकी माँ ने देखा कि बालक बिना और नये दाने फर्श पर गिराते हुये अब ठीक से सफाई कर रहा है तब उसने बाकी गिरे हुये दाने एक साथ समेटे(जो कि वह पहले कभी भी कर सकती थी) और फर्श साफ कर दी।इसके बाद वो दोनों माता और पुत्र भीड़ में कहीं खो गए। इस छोटे से शिक्षाप्रद घटनाक्रम का सार यह है कि एक युवा माता नें अपने अल्पायु बालक को किस प्रकार थोड़े समय में ही स्वावलम्बन, स्वच्छता, नागरिक कर्तव्य और अपनी सूझ-बूझ का प्रयोग करने की सफल शिक्षा दी।साथ ही साथ उस बालक में किसी भी काम को छोटा न समझने, अनजाने में हुई भूल को स्वयं सुधारने और अपनी गलतियों से सीखने की भावना भी आई। मैं उस माता को प्रणाम करता हूँ, और कहीं न कहीं यह समझ पाया हूँ कि भारत की सड़कों में फैली गंदगी का कारण हमारे द्वारा अपनी संतानों को व्यावहारिक सभ्यता की शिक्षा न देना है।मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर मेरे राष्ट्र को ऐसी ही पीढ़ी प्रदान करे जिसके लिये शिक्षा का उद्देश्य केवल चाकरी कर पेट पालना न हो, वरन वह व्यवहार से यथासंभव राष्ट्रोन्मुखी नागरिक भी तैयार कर सकें।जिस शिक्षा का मूल उद्देश्य एक सभ्य नागरिक बनाना हो, नौकरी और अन्य उद्देश्य गौड़ हों। -कप्तान शैलेन्द्र दीक्षित हांगकांग यात्रा वर्ष 2018

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