*सनातन वैदिक धर्म ने मानव मात्र को सुचारु रूप से जीवन जीने के लिए कुछ नियम बनाये थे | यह अलग बात है कि समय के साथ आज अनेक धर्म - सम्प्रदायों का प्रचलन हो गया है , और सनातन धर्म मात्र हिन्दू धर्म को कहा जाने लगा है | सनातन धर्म जीवन के प्रत्येक मोड़ पर मनुष्यों के दिव्य संस्कारों के साथ मिलता है | जीवन को दिव्याधिदिव्य बनाने के लिए मनुष्य के जन्म के पहले से ही लेकर मृत्यु तक कुल मुख्य सोलह संस्कारों का प्रावधान रखा गया है | जिस तरह ये संस्कार दिव्य हैं उसी प्रकार इनको मनाने का विधान भी दिव्याधिदिव्य ही रहा है | प्रत्येक संस्कार का प्रारम्भ घी के दीप प्रज्ज्वलन के साथ होता रहा है | किसी भी शुभकार्य में दीपक का बड़ा महत्त्व माना गया है | दीपक को प्रत्यक्ष देवता मानकर अत: उसको साक्षी मानकर ही समस्त कार्य किये जाते रहे हैं | दीपक जलाकर मंत्र पढे जाते हैं :- भो दीपं देवरुपस्त्वं कर्मसाक्षीह्यविघ्नकृत् ! यावत्कर्म समाप्तिस्यात् तावत्तवसन्निधो भव !! अर्थात हे दीप देवता आप देव स्वरूप होकर हमारे कर्मों के साक्षी बनते हुए कार्य को निर्विघ्नता प्रदान करें एवं जब तक हमारा यह कार्य सम्पन्न न हो जाय तब तक आप समुपस्थित विराजमान होकर स्थिर रहें | जब इस प्रकार के संस्कार तिये जाते थे तो मनुष्य का जीवन दिव्य एवं सच्चरित्र होता था | समय समय पर किये जाने वाले संस्कार मनुष्य को दिव्यता प्रदान करते रहे हैं | मनुष्य इन संस्कारों के साथ अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ करता था तो संस्कारों के साथ ही उसकी अन्तिम क्रिया भी सम्पन्न होती रही है | कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का चरित्र निर्माण संस्कारों के मध्य ही होता रहा है | इन्हीं संस्कारों के कारण ही हमें राम , कृष्ण , महावीर , बुद्ध , वीर शिवाजी , महाराणा प्रताप एवं स्वामी विवेकानन्द जैसी महान विभूतियों के दिव्य जीवन दर्शन की झलक देखने को मिलती है |* *आज हमारे समाज में महान चरित्रों का स्थान चाटुकारों ने ले लिया है | परिवार से लेकर समाज एवं देशभर में आज यदि १०० चाटुकार मिल जायेंगे तो बड़ी मुश्किल से एकाध संस्कारी / चरित्रवान व्यक्ति देखने को मिलता है | इसका मुख्य कारण यही है कि हमारे जीवन में संस्कारों का लोप हो रहा है | आज स्वयं को वैज्ञानिक युग प्राणी होने का दावा करने वाला मनुष्य आज तक सनातन धर्म के प्रावधानों की वैज्ञानिकता को समझ ही नहीं पाया क्योंकि उसने कभी इन पर ध्यान देना ही उचित नहीं समझा | आज मानव जीवन से संस्कारों का पलायन हो गया है | सिर्फ कुछ संस्कार बचे हैं वह भी दिखावा मात्र के लिए | जैसे जन्मोत्सव संस्कार , विवाह संस्कार एवं अन्तिम संस्कार | आज के जन्मोत्सव संस्कार को मनाने की विधि देखकर बरबस हंसी आ जाती है | आज दीपक का स्थान मोमबत्तियों ने ले लिया है | जिस दीपक को जीवनज्योति माना गया है उसके स्थान पर मोमबत्ती जलाकर जिसका जन्मोत्सव है उसी के मुख से बुझवा देना आज के नियम बन गये हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूँ कि जिस बालक का जन्मोत्सव इतने धूमधाम से मनाया जा रहा है उसी के द्वारा जीवन ज्योति के रूप में प्रज्ज्वलित की गयी मोमबत्तियों को बुझाना सिर्फ अपशकुन करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जिस प्रकार वह बालक फूंक मारकर वह मोमबत्तियां बुझाना प्रारम्भ करता है वह उसकी आदत में आ जाता है और आगे चलकर वही बालक अपने माता - पिता एवं अनेक सगे - सम्बंधियों के रिश्तों को भी फूंक मारकर उड़ाने का कार्य करता है | क्योंकि उसे बचपन से ही संस्कार में बुझाना ही सिखाया जाता रहा है तो वह सृजनात्मक कैसे हो सकता है | इस प्रकार के जन्मोत्सव कभी भी हमारी निधा नहीं रहे हैं परंतु आज हम पाश्चात्य संस्कृति के मोहपाश में जकड़कर अपनी संस्कृति का परित्याग करके पतनोन्मुखी होते जा रहे हैं |* *आज आवश्यकता है कि हम अपने संस्कारों को मानें या न मानें परंतु उनके विषय मों जानें अवश्य | क्योंकि जब तक जानेंगे नहीं तो मानेंगे क्या ? तो आईये चलें एक कदम अपनी संस्कृति की ओर |*