*मनुष्य इस संसार में अपने क्रिया - कलापों से अपने मित्र और शत्रु बनाता रहता है | कभी - कभी वह अकेले में बैठकर यह आंकलन भी करता है कि हमारा सबसे बड़ा शत्रु कौन है और कौन है सबसे बड़ा मित्र ?? इस पर विचार करके मनुष्य सम्बन्धित के लिए योजनायें भी बनाता है | परंतु क्या मनुष्य का शत्रु मनुष्य ही है ?? क्या यह मान लिया जाय कि मनुष्य के लिए मनुष्य ही शत्रु एवं मित्र की भूमिका निभाता है ! शायद इसे सत्य नहीं माना जा सकता | इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है :---- "आत्मैव आत्मनों मित्रः आत्मच रिपुरात्मनः" अर्थात:- आत्मा ही आत्मा मित्र और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है | बाहरी शत्रु हजार प्रयत्न करने पर भी इतनी हानि नहीं पहुँचा सकते, जितना छुट्टल मन बात की बात में पहुँचाता है | इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र यदि उसका मन है तो उससे बढकर शत्रु भी दूसरा कोई नहीं है | लगभग हमारे सभी धर्मग्रंथों का कहना है कि :- मन का संयम किये बिना, चित्त वृत्तियाँ रोके बिना, विचारों को एक स्थान पर केन्द्रित किये बिना, कुछ नहीं हो सकता | मन की आज्ञानुसार शरीर काम करता है | यदि मन क्षण में यहाँ, क्षण में वहाँ भटकता फिरे और तरह तरह की इच्छाऐं करता रहे तो शारीरिक शक्तियों को भी क्षण- क्षण में अपना व्यापार बदलना पड़ेगा | इसलिए मन का संयमी होना परम आवश्यक है | संयमी मन एक अमूल्य निधि है , यह कुबेर का खजाना है ! संयमी मन वह पारस पत्थर है जिसको साध लेने के बाद संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता |* *आज अधिकतर अपराध एवं लोगों में वैमनस्यता मन के अनियंत्रित होने के कारण ही हो रहे हैं | अनियंत्रित मन के कारण ही अनियंत्रित कामनाओं का जन्म होता है , और परिणाम होता है कि एक और विषम परिस्थिति मनुष्य के समक्ष खड़ी हो जाती है | इसीलिए शंकराचार्य जी ने कहा था कि :-- "जिसने मन को जीत लिया समझ लो उसने संसार को जीत लिया" | मन को जीतना बहुत कठिन अवश्य है परंतु असम्भव नहीं है | जैसे कि लोग बाजार जाते हैं ठेले पर तरह तरह की मिठाईयाँ एवं चाट की दुकानें लगी रहती हैं पेट में न तो जगह है और न ही भूख परंतु मन नहीं मानता और लोग मन के लालच में आकर ठूंसकर खा तो लेते हैं परंतु परिणाम दुखदायी हो जाता है और कभी कभी तो मनुष्य चिकित्सालय भी पहुँच जाता है | इसका कारण सिर्फ एक ही है मन की स्वतंत्रता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहाँ तक जान पाया हूँ वह यही है कि :-- दस इन्द्रियों और अनेक वासनाओं में भटक कर मन हमारी जो जो दुर्गतियाँ करता हैं उन पर कुछ क्षण गंभीरता पूर्वक विचार करते ही यह निश्चय हो जाता है कि असंयत मन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है | वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, पारलौकिक सब प्रकार की हानियाँ पहुँचाता है और मनुष्य को पशु बना देता है | अत: इससे यह सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु एवं मित्र मनुष्य का मन ही है | लोग संसार को जीतने निकल पड़ते हैं और जीत भी लेते हैं परंतु अपने मन को नहीं जीत पाते हैं | यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि पहले की अपेक्षा मनुष्य आज अपने मन का दास अधिक हो गया है | अपनी चित्तवृत्तियों को संयमित करके ही मनुष्य संसार में कुछ कर सकता है |* *शरीर को चमका लेना जितना आसान है मन को चमकाना उतना ही कठिन ! परंतु असम्भव नहीं है | अपने सबसे बड़े शत्रु (मन) पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए |*