जन्म-जन्मान्तर के वैर के लिए क्षमा और प्रार्थना
विजय कुमार तिवारी
अजीब सी उहापोह है जिन्दगी में। सुख भी है,शान्ति भी है और सभी का सहयोग
भी। फिर भी लगता है जैसे कटघरे में खड़ा हूँ।घर पुराना और जर्जर है। कितना
भी मरम्मत करवाइये,कुछ उघरा ही दिखता है। इधर जोड़िये तो उधर टूटता है।
मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिये पर्याप्त है। कितनी हरियाली है
यहाँ और पेड़-पौधों की बहुलता। अमराईयों में बैठने का अपना सुख है। फूलों
की बेतरतीब क्यारियों,गुँजार करते भौरों,उछलती-कुदती गिलहरियों,रंग-विरंगी
चिड़ियो,तितलियों और बाड़े की झाडियों द्वारा सृजित यह परिवेष बहुत ही
आकर्षक,मनमोहक और सुखकर है। यहाँ अलग से ध्यान करने की जरुरत नही हैं,स्वतः
ध्यान लगता है। ईश्वर की उपस्थिति का अहसास होता है और मन में उमंग और
प्रफुल्लता है। भला और क्या चाहिये?
दूसरे लोग मेरी तरह क्यों नहीं
सोचते? सुख और शान्ति भीतरी चीज है जो आपके विचारों से जुड़ी है। अपने
विचारों को ठीक कीजिये,आपका संसार खुद-ब-खुद सँवर जायेगा। किसी को कमतर मत
आँकिये। सभी को परमात्मा ने कुछ न कुछ विशेष दिया है। उस विशेष को पहचानिये
और उसका सम्मान कीजिये। कोई राजमहल में भी करवटें बदलता रहता है,उसे नींद
नहीं आती और कोई झोपड़ी में भी चैन की नींद लेता है। कोई बहुत धन-दौलत
एकत्र करके भी दुखी रहता है और कोई
कम संसाधनों में भी सुखी-सन्तुष्ट रहता है। इसलिए बाहरी तौर पर किसी को देखकर उसके भीतरी आनन्द को समझना सरल नहीं है।
आत्मा के सम्बन्ध को समझना बहुत जरुरी है। केवल वही लोग आपके नहीं हैं जो
कुल-खानदान में पैदा हुए हैं।कुल-खानदान के रिश्ते ऐसे हैं जिन्हें
चाहे-अनचाहे आपको स्वीकार करना ही है और इनसे सुख कम, दुख और विरोध ज्यादा
मिलने की सम्भावना है।इनसे बाहर के सम्बन्ध ऐसे हैं जिनमें दोनो पक्ष की
तत्परता काम करती है। निभाने की जिम्मेदारी दोनो की होती है। एक ने ढ़ीलापन
दिखाया तो सम्बन्ध खत्म होने लगता है। कुछ ऐसे भी बाहरी सम्बन्ध हैं जो
खूब आनन्द देते हैं। खूब निभाये जाते हैं।रिश्ता की पहली शर्त है कि कभी भी
एक-दूसरे पर बोझ ना बने और ना ही किसी तरह की दखलंदाजी करे। बहुत सुझाव या
सलाह ना दिया करे। कोई भी जिस अवस्था में है उसके लिए उसके संस्कार,उसका
परिवेष,उसकी सोच,उसका अन्य सभी से सम्बन्ध और उसके खुद के गुण-दुर्गुण
जिम्मेदार हैं।
हम केवल मानव शरीरधारी आत्मा को महत्व देते हैं। अन्य
योनियों में स्थित आत्माओं को महत्व नहीं देते या कम देते हैं। पूर्व
जन्मों के सम्बन्धों के कारण ही उन आत्माओं से पुनर्मिलन होता है।
कोई
भी जीव जो आपके करीब आ गया है, समझिये कि उस से आपका सम्बन्ध है। रिश्तों
की शुरुआत भी वैसे ही होगी,जहाँ आप पूर्व जन्म में छोड़ आये हैं। अत आसपास
के सभी जीवों से प्रेम भाव ही रखना चाहिये। प्रेम से ही हमारा जीवन सुखी हो
सकता है।
जिस व्यक्ति या जीव से सम्बन्ध अच्छे नहीं है,वह आपका अहित
करने में लगा है और आपको गिराना या दुखी करना चाहता है तो सम्भल जाईए,यह
वही आत्मा है जिसके साथ आपने किसी पूर्व जन्म में ऐसा ही व्यवहार किया है।
ज्योंही ऋण पूरा हो जायेगा,सम्बन्ध सामान्य हो जायेंगे या आप दोनो फिर ना
मिलने के लिए अलग हो जायेंगे। दो आत्माओं के सम्बन्ध खराब नहीं होते परन्तु
जब वे शरीरों में आकर किसी रिश्ते में जुड़ती हैं तो बहुत से तात्कालिक
तत्व प्रभावित करते हैं। लोभ,ईर्ष्या,अहंकार आदि के चलते सम्बन्ध बिगड़ने
लगते हैं। एक सिलसिला शुरु हो जाता है और जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है।
यही माया का खेल है। यह तभी रुकेगा जब एक पक्ष सामने वाले के आक्रमण को
सहन करना सीख जायेगा। कोई भी वही व्यवहार वापस करेगा जो आपने उसके साथ किया
है। हमें अपनी आत्मा को उच्चतर अवस्था में ले जाने का प्रयास करना चाहिए।
लगातार बुरी संगति,बुरे कर्म हमें गिराते हैं और हमारी आत्मा कमजोर होती
है। कमजोर आत्मा सही निर्णय नहीं ले पाती। इसके लिए हमे अपने सद्गुणों को
जगाये रखना चाहिए।
सबसे पहले उन लोगों से सावधान हो जाईये जो आपके
नैतिक भीतरी आनन्द पर प्रश्न करते हैं। या तो वे कुछ जानते नहीं या
जानबुझकर अपना खेल खेलते हैं। आत्म-रक्षा करनी ही चाहिए। सजग रहकर हम बड़ी
हानि को कम कर सकते हैं। हमे परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए। एक बार
मेरा तबादला ऐसी जगह हुआ जहाँ ना तो मैं परिवार ले जा सकता था और न ही कोई
रेल-बस की समुचित व्यवस्था थी।साप्ताहिक मोटर साईकिल से आना-जाना शुरु हुआ।
सोमवार को जाना और शनिवार को वापस आना। 4 बजे प्रातः घर छोड़ देता था और
153 किलोमीटर की दूरी तय करके 8 बजे गन्तव्य तक पहुँचता था । घर से मुँह
अन्धेरे निकलना पड़ता था।लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव था जहाँ के
लोग घरों के सामने बहुत साफ-सुथरा रखते थे और 8-10 कुत्ते सोये रहते थे।
किसी सोमवार को अचानक उसमें से एक युवा कुत्ते ने मुझपर आक्रमण कर दिया।
किसी तरह गिरने और उसके काटने से बचा। अगले सोमवार को घर से निकलते ही उस
घटना की याद आ गयी। उसका मुझपर ऋण है, मैने मान लिया।पहले भगवान से अपने
पूर्व के किसी जन्म में किये अपराध के लिए क्षमा मांगी," हे परमात्मा,मुझे
याद नहीं कि किस जन्म में इस जीव में स्थित आत्मा को दुखी और पीड़ित किया
है। जिस तरह से इसने मुझ पर आक्रमण किया है,निश्चित ही मैने अपराध किया
होगा। आज मैं उस आत्मा से दिल से क्षमा मागता हूँ और आपसे भी प्रार्थना
करता हूँ कि मुझ पर और उस आत्मा दोनो पर कृपा करें।" जब उस गाँव से गुजरा
तो वह उठ खड़ा हुआ और क्रोधपूर्ण दृष्टि से देखा परन्तु आक्रमण नहीं किया।
उसके अगले सोमवार को भी मेरी प्रार्थना जारी थी। इसवार वह सजग होकर बैठे
हुए गुस्से से देखता रहा। उसके बाद वाले सोम को उसने सोये-सोये आँखे खोलकर
देख लिया। शायद क्रोध भी नहीं था। उसके अगले सोम को वह दिखा ही नहीं। मैने
रुक कर उसे इधर-उधर खोजना चाहा पर नहीं मिला.। उस आत्मा को मैने दिल से
प्रणाम किया और क्षमा कर देने के लिए धन्यवाद भी।