शहर की बत्तीयां गुल हैं हुक़ूमत के इशारों पर,
हवाओं पे लगा इल्ज़ाम फिर बरखा फुहारों पर।
हक़ीक़त जानते हैं सब परेशां आम जनता है,
नहीं सुनवाई होती है गरीबों की गुहारों पर।
लगी है रौशनी भी आजकल महलों की खिदमत में
यकीं कम हो गया है चाँद सूरज अब सितारों पर।
मिटा दोगे मेरी हस्ती नहीं औक़ात में हो तुम,
दलालों पर नहीं सबको यकीं है कामगारों पर।
महज़ अल्फाज बनके रह ना जाये दास्तां मेरी,
लिखूँगा मैं लहू से शहर की सारी दिवारों पर।
बदलने आ रहा हूँ मैं बुरे दस्तूर दुनिया के,
कि दावा ठोकना है आपको महकी बाहरों पर।
अभी भी होश में आ जाओ गुलशन रौंदने वालों,
नही तो झोंक दूँगा मैं तुम्हें शोलों शरारों पर।
सलामत है नहीं शायद तुम्हारी रीढ़ की हड्डी,
तभी तो नाज़ है तुमको निकम्मों औ नकारों पर।
उतर कर देखिये साहब कभी तूफानी लहरों में,
मज़े लूटे हैं अब तक बैठ कर तुमने किनारों पर।
***
'अनुराग'