बजरंग पूनिया 65 किलोभार वर्ग में दुनिया के नंबर वन रेसलर बन गए हैं. 24 साल के इस पहलवान ने इस सीजन में 5 मेडल जीते हैं जिनमें कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स में गोल्ड और वर्ल्ड चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल शामिल हैं. यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग ने अपनी रैंकिंग में बजरंग को इस भारवर्ग में 96 पॉइंट्स के साथ नंबर एक स्थान दिया है. पढ़िए बजरंग पूनिया यहां तक पहुंचे कैसे हैं.
शुद्ध दूध और देसी घी के लिए भरोसेमंद हरियाणा में होली पर दंगल आयोजन की परंपरा है. तमाम गांवों में होली के कुछ दिनों पहले से कुछ दिनों बाद तक दंगल आयोजित किए जाते हैं. सरसों के तेल और हल्दी में सनी मिट्टी पर इलाके के पचासों पहलवान ज़ोर-आजमाइश करते हैं. जीतने वाले नकद इनाम से लेकर घी, दूध और बादाम तक घर ले जाते हैं. तालियां हारने-जीतने वालों, दोनों को ही बराबर मिलती हैं.
साल 2007 में झज्जर जिले के माछरौली गांव में ऐसा ही एक दंगल चल रहा था. उस साल होली 3-4 मार्च को पड़ी थी. तो मार्च के पहले सप्ताह में माछरौली दंगल आयोजित किया गया. एक से एक तगड़े पहलवान अखाड़े की मिट्टी देह पर मले जा रहे थे. उनकी बाजुओं में फनफनाती मछलियां देखकर लगता था, जैसे खाल फाड़कर बाहर आ जाएंगी. कोई पहलवान जब किसी दूसरे पहलवान को बल भरके पटकता, तो ऐसा लगता जैसे किसी ने ठूंस-ठूंसकर आटे से भरा बोरा छत से आंगन में फेंक दिया हो. लकड़ी की एक मेज के सामने आठ-दस कुर्सियों पर आयोजकों की चठिया लगी थी, जिनके पीछे सैकड़ों लोग पहलवानों के नाम के नारे लगा रहे थे. उन्हें उकसाया जा रहा था. असीम बल देखकर लहालोट जनता अब उस बल का प्रयोग देखने को उतारू थी.
कुश्तियां चल ही रही थीं कि तभी करीब 14 साल का एक लड़का आयोजकों की मेज के पास आया. उसने अपनी कमज़ोर माली हालत का ज़िक्र करते हुए गुज़ारिश की कि उसे पैसों की सख्त ज़रूरत है, तो उसे एक कुश्ती लड़ लेने दी जाए. बच्चा था तो मज़बूत ढांचे का, फिर भी कुर्सीनशीं लोगों ने उसे बच्चा समझकर टाल दिया. सोचा होगा कहीं हाथ-पैर मुड़ गया, तो कौन संभालेगा. पर बच्चा नहीं माना. लगा रहा. आखिरकार आयोजकों ने अपना पिंड छुड़ाने के लिए बच्चे से कह दिया कि सामने खड़े पहलवानों में से किसी को चुन ले और उसके साथ लड़ ले.
सामने खड़े पहलवानों की तुलना आपस में हो सकती थी, पर कोई इतना भी कमज़ोर नहीं था कि उसे एक बच्चे के सामने उतार दिया जाए. आखिरकार बच्चे ने एक पहलवान चुन लिया. अपने से डेढ़ गुनी उम्र और डेढ़ गुने वजन का पहलवान. खिलाड़ी तय हुए और भोंपू पर कुश्ती का ऐलान कर दिया. इधर लोगों का फुसफुसाना शुरू हो गया… ‘दो मिनट में बाहर फेंक देगा…’ ‘ देख रहे हो सामने वाले को… कहीं जान से न मार दे…’ इसी फुसफुसाहट के बीच कुश्ती शुरू हो गई.
लेकिन ये क्या… ये बच्चा तो पहलवान की पकड़ में ही नहीं आ रहा है. कभी कंधे पर चढ़ जा रहा है, कभी सिर पर चढ़ जा रहा है, कभी पैरों के बीच से निकल जा रहा है. ये चौराहे पर सींग में सींग फंसाए दो सांड़ों की लड़ाई नहीं थी, लेकिन वो बच्चा पहलवान को जैसे छका रहा था, उसमें सभी को आनंद आ रहा था. कुश्ती शुरू हुए पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि उस बच्चे के नाम के नारे लगने लगे. और अगले पांच मिनट के अंदर वो अपने से डेढ़ गुने पहलवान पर ऐसा हावी हुआ कि उसे जांघों से उखाड़कर मिट्टी पर पटक दिया.
माहौल पलट गया. जनता हवा में बाहें फेंक-फेंककर हरहरा रही थी. ये वही गुदगुदी थी, जो किसी ताकतवर को किसी कमज़ोर से हारते देख घुमड़ती है और हमारे मुल्क के लोगों में ये मूसल से दबा-दबाकर भरी गई है. वो बच्चा कुछ पैसे जीतने के मकसद से आया था, लेकिन उसकी जीत से लोग इतना खुश हुए कि कुछ ही देर में उसकी चादर दस, बीस, पचास के नोटों से भर गई. सब एक ही नाम जप रहे थे…
बजरंग… बजरंग… बजरंग… बजरंग…
कट टू 19 अगस्त 2018
इंडोनेशिया की राज़धानी जकार्ता में 18वें एशियन गेम्स शुरू हो चुके हैं. पहले दिन भारत ने शूटिंग, वॉलीबॉल, बैडमिंटन और स्विमिंग जैसे तमाम खेलों के साथ-साथ 65 किग्रा फ्रीस्टाइल पुरुष वर्ग की कुश्ती में भी दावेदारी पेश की. इस कैटेगरी में 24 साल के भारतीय पहलवान को पहले राउंड में बाई मिला. दूसरे राउंड में उसने उज़्बेकिस्तान के सिरोजिद्दीन खासानोव को 13-3 से हराया. क्वॉर्टर-फाइनल में तजाकिस्तान के अब्दुल कोसिमफयाज़ को 12-2 से और सेमीफाइनल में मंगोलिया के बटमगनाई बचुलुन को 10-0 से हराया. फाइनल में बारी थी जापान के तकातनी डाइची की. भारत ने पहले 6-0 की बढ़त बनाई, लेकिन डाइची ने वापसी करते हुए 6-6 से बराबरी कर ली. फिर मामला 8-8 पर अटका. फिर भारत ने 10-8 की बढ़त ली और इसके बाद क्या हुआ, ये आप कॉमेंट्री से समझिए:
And if he does have to settle for a silver, he will remember this moment rest of his life. Can Bajrang Punia protect that two point lead. Ten seconds. Eight and counting down. This is a photo finish. Its a sensational finish. Can Bajrang punia do it? His answer is of course yes. Its gold… finally its gold and glory. For this man from Haryana. Its India’s first gold at the asian games 2018. Bajrang Punia has done it.
जकार्ता के स्टेडियम में एक बार फिर वही नाम गूंज रहा था, जो 11 साल पहले झज्जर के उस दंगल में गूंज रहा था…
बजरंग… बजरंग… बजरंग… बजरंग…
पूरा नाम बजरंग पूनिया.
19 अगस्त से पूरा देश बजरंग का नाम जप रहा है. वैसे कुश्ती के प्रशंसकों के लिए पूनिया नया नाम नहीं हैं. 2013 में वो बुडापेस्ट में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप्स में ब्रॉन्ज मेडल जीत चुके हैं. 2014 में उन्होंने साउथ कोरिया में हुए एशियन गेम्स में सिल्वर और ग्लास्गो में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में सिल्वर मेडल जीता था. 2018 में गोल्ड कोस्ट के कॉमनवेल्थ गेम्स में बजरंग ने गोल्ड जीता और अब उन्होंने जकार्ता में झंडा गाड़ा है. जकार्ता में भी बजरंग ने उस खिलाड़ी को हराया, जिसने उन्हें एशियन चैंपियनशिप 2018 के क्वॉर्टर फाइनल में हराया था. पर ये सब तो कामयाबी हैं. ऊपर से दिखने वाली मेडल की चमक. इस चमक के लिए बजरंग पूनिया नाम के 24 साल के लड़के ने खुद को कितना घिसा है, असल कहानी तो वो है.
झज्जर के खुद्दन गांव में जन्मे बजरंग का बचपन तंगी में बीता. एक वक्त ऐसा था, जब उनके घर में खाने की भी पर्याप्त चीज़ें नहीं होती थीं. एक इंटरव्यू में बजरंग बताते हैं, ‘बचपन में ऐसी हालत थी कि जब मैं प्रैक्टिस से लौटता था, तो रोज़ रात में एक ही खाना खाता था. मुझे पता था कि घर जाकर मुझे क्या मिलने वाले हैं. हम लोग दूध-रोटी पर गुज़ारा कर रहे थे. मैं ये हालात बदलना चाहता था और वो ज़िंदगी कुश्ती के बूते ही छोड़ी जा सकती थी.’
8 साल की उम्र से वर्जिश कर रहे बजरंग ने जल्दी ही अखाड़ा जाना शुरू कर दिया था. बजरंग के 66 साल के पिता बलवान सिंह पूनिया बताते हैं, ‘मैंने यूनिवर्सिटी लेवल तक कुश्ती खेली है और मेरे बड़े बेटे हरेंद्र ने भी रेसलिंग की है. तब गांव में हमारा डेढ़ एकड़ का खेत था. उस समय बजरंग अखाड़े में जाते था. 2005 में हमने उसे छारा गांव के लाला दीवानचंद अखाड़े में दाखिल करा दिया था. ये हमारे घर से 35 किमी दूर था. बजरंग का दिन सुबह तीन बजे शुरू होता था और आज भी उसकी यही आदत है.’
बजरंग के गांव के ही मनदीप बताते हैं कि बजरंग के परिवार में खेती से जितना आता था, उससे घर का ही गुज़ारा हो पाता था. वैसे भी कुश्ती सस्ता खेल नहीं है. बच्चे को पहलवान बनाना है, तो खुराक में घी, दूध, बादाम शामिल करना होता है, जिस पर जमकर खर्चा होता है. पहलवान ऐसे ही नहीं बन जाते हैं. ऐसे में बजरंग के पिता और भाई को बहुत मेहनत करनी पड़ी. मनदीप बताते हैं कि कम उम्र होने के बावजूद बजरंग आसपास के दंगलों में अपने से बड़ी उम्र और ज़्यादा वजन के पहलवानों से कुश्ती लड़ते थे और जीतते भी था. 2010 के बाद तो बजरंग के वजन वाले पहलवानों ने इनसे हाथ मिलाना ही बंद कर दिया था. इससे इनाम में पैसा तो मिला ही, घरवालों को भरोसा भी मिला कि बजरंग कुछ कर सकते हैं.
यही भरोसा था, जिसकी वजह से बजरंग के पिता कर्ज लेने से भी नहीं हिचके. बेटे को पहलवान बनाया. और जितना योगदान बलवान पूनिया का है, उतना ही बजरंग के बड़े भाई हरेंद्र पूनिया और चचेरे भाई नरेंद्र पूनिया का भी है. मनदीप बताते हैं कि ये हरेंद्र ही थे, जो अपने छोटे भाई के खाने-पीने का ध्यान रखते थे, उनके लिए बादाम रगड़ते थे. 2008 में 14 साल की उम्र में जब बजरंग दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम आए, तब हरेंद्र नौकरी करने विदेश जा चुके थे. उनके जाने की वजह से बजरंग का खाने-पीने का हिसाब गड़बड़ा गया. पिता और भाई को ये बिल्कुल गवारा नहीं था कि उनका बेटा बाहर का कुछ भी मिलावटी खाए. ऐसे में हरेंद्र ने अपनी नौकरी छोड़ दी और वापस आ गए. फिर वही झज्जर से दूध, फल, घिसा हुआ बादाम और घी लेकर बजरंग के पास जाते थे. छत्रसाल भी वही गए और जब बजरंग बहालगढ़ में SAI के सेंटर आ गए, तब भी हरेंद्र भाई को सपोर्ट देते रहे.
ज़िंदगीभर ये तपस्या करने के बाद 20 अगस्त को जब मैंने हरेंद्र से फोन पर बात की और उन्हें बधाई दी कि उनके भाई ने गोल्ड जीता है, तो वो इतना ही बोले, ‘अरे मेरा ही क्यों… वो तो पूरे देश का भाई है, बेटा है. वो देश के लिए जीता है.’ पिता बलवान भी यही कहते हैं, ‘उसने पूरे देश को तोहफा दिया है.’
बजरंग 14 की उम्र में छत्रसाल स्टेडियम पहुंचे. अपने इस कदम के बारे में बजरंग बताते हैं, ‘छत्रसाल आना तकलीफों वाली ज़िंदगी से पीछा छुड़ाना था. वहां जाकर मैं खुश था कि मैं परिवार से दूर हूं. पर जब मैंने जीतना शुरू किया, तो मुझे खुशी हुई कि मैं परिवार की मदद कर सकता हूं. आज मैं जो कुछ भी हूं, वो परिवार ने ही मुझे बनाया है.’ पहलवानों के लिए छत्रसाल की क्या अहमियत है, इसे यूं समझिए कि साल 2000 से 2015 तक देश की तरफ से खेलने वाले 80% पहलवान यहीं से निकले हैं.
बजरंग को इंटरनेशनल पहलवानों के मुकाबले खड़ा करने का श्रेय जाता है पहलवान योगेश्वर दत्त को. बजरंग के छत्रसाल पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही योगेश्वर की निगाह उन पड़ गई थी और योगेश्वर ने शुरुआत में ही बजरंग को अपने अंडर में ले लिया. उनकी ट्रेनिंग शुरू की, दांव-पेंच सिखाए और आर्थिक मदद भी की. यही वजह है कि बजरंग हमेशा योगेश्वर का नाम लेते हैं. चाहे पहलवानी की बात हो या ज़िंदगी की. वो बताते हैं कि जकार्ता जाने से पहले योगेश्वर ने उनसे कहा था, ‘मैंने ये मेडल 2014 में जीता था और इस बार तुम्हें जीतना है. कुश्ती में गोल्ड के लिए 28 साल का वक्त बड़ा इंतज़ार होता है. तुम्हें ये नहीं होने देना है.’ जापानी खिलाड़ी के साथ फाइनल में जब बजरंग ने लगातार 6 पॉइंट जीते थे, तो कॉमेंटेटर भी बोल पड़े कि बजरंग में योगेश्वर की छवि दिखती है, उनके जैसा खेल दिखता है.
जकार्ता में गोल्ड जीतने के बाद अपने खेल के बारे में बजरंग बताते हैं, ‘अगर मैं सोचने लगूं कि मैं हार रहा हूं, तो मैं हार ही जाऊंगा. तो मैं ऐसा कभी नहीं करता. पिछली बार डाइची से हारने के बाद मैंने उसके वीडियो देखे और मुश्किल हालात में उससे निपटने के लिए अपनी टेक्नीक डेवलप कीं. रेसलिंग में कुछ भी हो सकता है. पहले मैं आगे चल रहा था, फिर उसने वापसी की. ये होता रहता है और ज़्यादा सोचने पर मैच से पकड़ छूट सकती है. मैं फाइनल से पहले प्रेशर नहीं लेता और आज भी मैंने यही किया. और अब घर जाकर ज़्यादा दिन जश्न नहीं मनाऊंदा. मुझे टोक्यो ओलंपिक की तैयारी में जुटना है.’
बजरंग को 2010 के बाद से सरकारी मदद मिलनी शुरू हुई थी. उसके पहले तक सारा खर्च बजरंग के चचेरे भाई नरेंद्र, बड़े भाई हरेंद्र और योगेश्वर दत्त ने उठाया. जब योगेश्वर ने अपना बेस दिल्ली से वापस हरियाणा में शिफ्ट कर लिया, तो बजरंग भी उनके साथ हो लिए. आर्थिक स्थिति बेहतर होने के बाद बजरंग का परिवार सोनीपत शिफ्ट हो गया. एशियन गेम्स में बजरंग के इस गोल्ड के साथ इंटरनेशनल इवेंट्स में उनके कुल 13 मेडल हो गए हैं, जिनमें से 5 गोल्ड हैं.
आज की तारीख में हरियाणा में बजरंग का क्रेज़ जानना और भी रोचक है. एक इंटरव्यू में बजरंग ने एशियन गेम्स के लिए इंडोनेशिया जाने से दो सप्ताह पहले का किस्सा बताया था कि वो कॉमनवेल्थ गेम्स के मेडल विनर्स के साथ कैथल की एक राजनीतिक रैली में गए थे. दो घंटे तक वहां लोगों का उत्पात देखकर वो इतना चट गए कि अपने दोस्तों के साथ वहां से निकल गए. लेकिन घर जाने से पहले उन्हें पास के ही एक छोटे से गांव में रेसलिंग अकैडमी का उद्घाटन करना था. उस गांव में बजरंग को इतना सम्मान मिला कि वो खुद ही चौंक गए. गांव के सरपंच, कुश्ती के कोच और बच्चों ने उन्हें घेर लिया. सरपंच ने घर बुलाकर मिठाई पेश की. ट्रेनिंग की वजह से बजरंग ने मिठाई तो नहीं खाई, लेकिन उनकी रैली की फ्रस्टेशन दूर हो गई.
इस किस्से के बारे में बताते हुए बजरंग कहते हैं, ‘इसीलिए कुश्ती करनी है. रैली में भी इज्ज़त मिली थी. मैं स्टेज पर बैठा था और लोग सेल्फी खींच रहे थे, लेकिन उनमें प्यार नहीं था. वहां उत्पात हो रहा था, जिससे मेरा सिर दर्द करने लगा. लेकिन गांव के लोगों से मुझे बहुत निष्छल प्यार मिला. मैं उन्हें जानता भी नहीं था. आप इसीलिए कुश्ती करते हैं. मुझे हर फंक्शन में पैसा नहीं चाहिए, लेकिन ये छोटे-छोटे पल मुझे बहुत खुशी देते हैं.’