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एक अरसे बाद - एक लघु कथा

13 नवम्बर 2018

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हर बार की तरह एक और दिलचस्प स्टोरी आपके लिए मैं लेकर आई हूं। इस कहानी में आपको कुछ दिलचस्प बातें बताने वाली हूं जिसे पढ़कर आपको बहुत अच्छा लगेगा। एक लड़की जब अपने मायके जाती है तो उसका मन किस तरह से प्रफुल्लित होता है वो इस कहानी में मैंने बताने की कोशिश की है। पसंद आए तो दूसरों को भी पढ़ाइएगा।


एक और दिलचस्प कहानी


एक अरसे बाद आज मायके जाने का मौका मिला है मौसी की बेटी की शादी जो है । बस स्टैंड पर उतरी तो लगा जैसे अपना शहर आ गया ।कितने भी साल हो जाये बचपन का शहर हमेशा दिल के करीब रहता है।


एक लड़के को खड़ा देखा तो पूछा " बेटा यहाँ मंगल चाचा की मिठाई की दुकान हुआ करती थी अब नही दिख रही?"उसने जबाब दिया "ऑन्टी

वो तो पांच साल पहिले ही बंद हो गयी. मंगल चाचा रहे नही और उनका लड़का भी शहर छोड़ कर चला गया ।बहुत बीमार रहे ऑन्टी। कहते है उनके लड़के नेउन्हें बृद्धाश्रम भेज दिया था वही उनकी मृत्यु हो गयी।"


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सुनकर लगा कि चक्कर सा आगया मुझे। चचा मेरे पड़ोसी थे बहुत प्यार करते थे मेरी शादी में मिठाई उन्होंने ही बनाई थी।विदा के समय में उनसे मिलकर कितना रोई थी पर उनकी मृत्यु की खबर किसी ने नही दी मुझे कोई खून का रिश्ता तो था नहीं। मन के रिश्तो में रस्म अदायगी कहाँ होती है?

उदास मन लिये खड़ी ही थी कि एक रिक्शे वाला पास आकर बोला " कहाँ चलना है दीदी ?"

मैंने उसकी तरफ देख सोचने लगी ये इतना बुजुर्ग क्या रिक्शा अच्छी तरह चला पायेगा? वह बोला "कुछ भी दे देना दीदी सुबह से बोहनी नही हुई।" अटैची उठाते हुए मेने रोक दिया नही दादा में खुद उठा लूँगी ।आराम करने की उम्र में रिक्शा चलाना पड़ रहा है। मेने पूछा "दादा इस उम्र मै रिक्शा क्यो चलाते हो?" ये पूछते ही गाला भर आया उसका बोला "पेट के लिये कुछ तो करना पड़ेगा" । मेने कहा "क्यो कोई घर मे और नही है क्या ?" वह बोले "सब है, बेटा बहू नाती नातिन पर सब बाहर है, सुनते है बेटा दिल्ली में अफसर है । हम तो पढ़े लिखे है नॉय सो जाय सकें। दुइ साल पहले आया था सो दीदी छोटो सो मकान हतो सो बेचकर पैसा ले गया । ये कह करकि वापिस दे दूंगा पांच साल हो गए अभी तक कोई ख़बर नही ली कोनऊ बात नही है अब या उम्र में हमे पैसे का करना भी क्या है?"

माता पिता अपने बच्चों की बुराई भी नही कर सकते। सोच रही थी कि मेरा छोटा शहर अब कुछ ज्यादा ही उन्नति कर गया है। "अरे दीदी आपका घर आगया" । उस की बात का उत्तर देते हुए एक सौ का नोट मैंने उसके हाथ में रखा ।वह बोला "मेरे पास खुले पैसे नही है ।" "अरे रखलो मुझे नही चाहिये ।" ढेर सारी दुआएं देने लगा। मैं भी विजयी सी मुस्कान लिए चल दी। मे्रे मन में सवाल जो मुझे कचोटता रहा मेरे बटुए में पाँचसौ का भी तो नोट था अगर देदेती तो मेरे पास कुछ कमी तो न हो जाती... शायद हम भी वहीँ देते है जहाँ मंदिर में दान देने पर माइक पर हमारा नाम बोला जाता है, लिस्ट में लिखा जाता है । अरे में भी क्या क्या सोच रही हु ज़रा सी दूरी के सौ रुपये क्या कम हैं मायके के छोटे शहर की फ़िज़ा ही नही बदली शायद अभी बहुत कुछ बदलना शेष है........?


त्रिशला। ।

त्रिशला रानी जैन की अन्य किताबें

दिनेश कुमार गुप्ता

दिनेश कुमार गुप्ता

बहुत ही सूंदर मार्मिक कहानी , ह्रदय को छुलेने वाली अभिवयक्ति,एक अच्छा

13 नवम्बर 2018

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