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सही तो है - एक लघुकथा

13 नवम्बर 2018

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आज रिंकू को आने दो आते ही कहती हूं बेटा जल्दी ही मेरा चश्मा बदलबा दो अब आँखों से साफ नही दिखता।

लो आ भी गया रिंकू आतुर होकर मैन की बात कह डाली।

" अरे माँ दो मिनट चैन से बैठने भी नही देती कौन सी तुम्हे इस उम्र में कढाई सिलाई करनी है? और फिर इस बार बबलू की फीस भी भरनी है।"


" सही है बेटा। "

इतनी ही देर में बहूरानी गुस्से से बोली "अम्मा जी पचास खर्चे है आपको तो बस अपनी पड़ी रहती है।"


ये सुन कर में अपराध बोधिनी सी अपने कमरे में चली गई।


कानों में कुछ पुराना गूँज उठा -

" अरे सुनती हो रिंकू की माँ तुम्हारा चश्मा गोल्डन फ्रेम का बदलना है इस बार ।"

" मेने कहा नही जी इस बार रिंकू को नॉय कपड़े दिलवाना है ।"


अतीत कभी पीछा नही छोड़ता हर पल मेरे साथ रहता है।शायद इसीलिए तो मैं ज़िंदा हू । तभी बबलू ने मासूमियत से आवाज दी "दादी जल्दी आओ मुझे आपके साथ ही खाना खाना है।" उसकी प्यारी सी आवाज़ सुनकर भावविभोर सी हो गई मै। सोचने लगी कुछ भी तो नही बदला। पहले रिंकू मेरे हाथ से खाता था और अब मेरा पोता । लगता है उम्र के साथ मै ही कुछ बदल गई हूं। सही तो है मुझे कौन सिलाई कढाई करना है?


त्रिशला ।


Photo by Annie Spratt, Keilidh Ewan on Unsplash

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