*मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | मनुष्य और
समाज की तुलना शरीर और उसके अंगों से की जा सकती है जैसे शरीर एवं अंग दोनों परस्पर पूरक है, एक के बिना दूसरे का स्थायित्व सम्भव नहीं है | आपसी सहयोग आवश्यक है | मनुष्य की समाज के प्रति एक जिम्मेदारी है जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं बन सकता है | जिस प्रकार मनुष्य शरीर के विभिन्न अंग यदि अपना काम करना छोड़ दे तो शरीर शिथिल एवं जर्जर हो जायगा, शरीर को सुदृढ़ और बलिष्ठ बनाने के लिए प्रत्येक अंग का कार्यरत एवं क्रियाशील होना अत्यावश्यक है, ठीक यही दशा समाज के लिए आवश्यक है समाज को समुचित स्थिति में रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए क्रियाशीलता अपेक्षित है | व्यक्ति का स्वार्थमय जीवन भी समाज के लिए अत्यंत दुःखदायी है जो समाज के लिए पापपूर्ण है | इस दशा में समाज का सदस्य सुखी नहीं रह सकता है, समाज में शक्ति सम्पन्नता और उसका विकास पूर्णतया असम्भव है | यदि किसी व्यक्ति ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया; किन्तु उससे समाज को कोई लाभ न मिला तो उसकी सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ है | जिस प्रकार जंगल में किसी सुगन्धित और मनमोहक पुष्प का खिलकर मुरझा जाना, क्योंकि उसके सौंदर्य एवं सुगन्धि का किसी ने भी लाभ नहीं उठा पाया अतः प्रमाणित है कि व्यक्ति की मर्यादा समाज में ही अपेक्षित है | संकुचित और स्वार्थी व्यक्ति समाज का शोषण एवं अहित करते हैं | इस तरह के व्यक्ति समाज के घातक शत्रु होते हैं जो सदैव समाज में असहयोग की भावना फैलाते हैं और उसमें अनेक अव्यवस्थाएँ उत्पन्न करते हैं | ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं | इस प्रकार के व्यक्ति अविश्वास, छली, सन्देहास्पद, भ्रष्ट, लूट-खसोट करने वाले एवं झगड़ालू होते हैं और ये स्वार्थी एवं व्यक्तिवादी विचारधारा के कारण, समाज में पैदा होते और पनपते हैं |* *आज के समाज में कुछ गिनती के लोग बचे हैं जो कि समाज की चिन्ता करते हैं शेष अधिकतर समाज भ्रष्ट होकर भ्रष्टाचार में डूब चुका है | आज कोई किसी की न तो चिंता करना चाहता है और न ही किसी को शर्म ही बची है , लोग अनैतिक कार्य तो कर ही रहे हैं साथ ही बड़ी शान से उसका बखान भी करते हैं | आज यदि मनुष्य का सामाजिक पतन हो रहा है तो उसका मुख्य कारण है मनुष्य की इच्छायें जो मनुष्य से नैतिक / अनैतिक कार्य करवा रही हैं | आज समाज में छल , कपट , लूट , अविश्वास , घात , प्रतिघात एवं भ्रष्टाचार मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारियों की गाथा प्रस्तुत कर रहा है | मैं आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के मनुष्य के सामाजिक स्तर को देखकर यदि यह कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी कि मनुष्य आज परमस्वार्थी हो गया है | पहले जहाँ लोग समाज के लिए अपना सुख - चैन भी त्याग देते थे वहीं आज लोग समाज की चिन्ता किये बिना पहले अपना स्वार्थसिद्ध कर रहे हैं | आज की स्थिति यह है कि चाहे वह एक आम आदमी हो या कोई ऊँचे पद पर बैठा हुआ विशिष्ट व्यक्ति , वह पहले अपनी भलाई करता है पाद में समाज की ! अपनी भलाई करने में यदि समाज की छतिग्रस्त भी हो जाती है तो किसी को न तो शर्म ही लगती है और न ही पछतावा होता है | इसीलिए सामाजिकता अपना अस्तित्व खोती चली जा रही है |* *सामाजिक बंधन ढीले पड़ जाने के कारण मनुष्य उच्छृंखल हो गया है जो कि सम्वूर्ण मानव जाति के लिए शुभ संकेत नहीं है |*