*हमारे पूर्वजों ने अनेक साधनाएं करके हम सब के लिए दुर्लभ साधन उपलब्ध कराया है |साधना क्या है यह जान लेना बहुत आवश्यक है | जैसा कि हम जानते हैं की कुछ ऋषियों ने एकांत में बैठकर साधना की तो कुछ ने संसार में ही रहकर की स्वयं को साधक बना लिया | साधना का अर्थ केवल एकांतवास या ध्यान नहीं होता | वह साधना का एक पक्ष है, लेकिन साधना का यह भी अर्थ होता है कि हम अपने मन में संतोष और शांति के भाव को चौबीस घंटे बनाये रखें रखें | आप ध्यान करते हो तो अधिक-से-अधिक एक घंटे के लिए करोगे , उसमें भी श्वास का ध्यान करोगे, मंत्र जप करोगे, इष्ट पर ध्यान लगाओगे या कुछ स्तोत्रपाठ कर लोगे. इसके अतिरिक्त और क्या कर लोगे? ज्यादा-से-ज्यादा किसी अच्छे भाव की अनुभूति हो सकती है | लेकिन वह क्षणिक होगी | उसके बाद फिर क्या? हमने ध्यान एक घंटे किया, पर ग्यारह घंटे जब हम संसार में रहते हैं, तो क्या संसार में रह कर भी हम अपने मानसिक संतोष, प्रतिभा और शांति को बनाये रख सकते हैं ? साधना का अर्थ यह नहीं है कि बुराई को छोडो, भलाई को पकड़ो | बल्कि साधना का अर्थ है कि बुराई में से भी सत्य की तरफ उठो, भलाई में से भी सत्य की तरफ उठो | बुराई और भलाई में मत चुनो, दोनों से अनुभव का निचोड़ ले लो और दोनों से प्रौढ़ बनो | दोनों से तुम्हारी समझ गहरी हो, तुम्हारा हृदय विस्तीर्ण हो | दोनों के बीच से तुम अपनी नाव को, अपनी नदी को बहाओ कि वह सागर तक पहुंच सके | पाप और पुण्य तुम्हारे किनारे बन जाएं | साधना का सीधा अर्थ है स्वयं को नियंत्रित करना | योग की
भाषा में इंद्रियों को अपने अधीन करने का नाम साधना है | इसे हम स्वयं पर नियंत्रण करके अपने मन अनुसार फल प्राप्त करने का मार्ग भी कह सकते हैं | यही सच्ची साधना है |* *आज अनेक लोग साधना करते हैं | अपने घर में बैठकर या किसी मंदिर में बैठकर एक घंटे , दो घंटे भगवान का ध्यान एवं माला जप एवं स्तोत्र आदि का पाठ करते रहते हैं | परंतु उस एक घंटे के बाद वह पूरी तरह संसार के कार्यों में रत हो जाते हैं | संसार के कार्यों में रत जाना ही मनुष्यता है | क्योंकि संसार में रहकर सांसारिकत् से नहीं बचा जा सकता है | परंतु साधक को सदैव सकारात्मक होना चाहिए अन्यथा साधना का फल विपरीत मिलने लगता है , और वह मात्र दिखावा बनकर रह जाती है | आज लोग दिखाने के लिए तो साधना करने बैठते हैं परंतु जब वह समाज में पहुंचते हैं तो झूठ , प्रपंच , छल अपना करके समाज में उच्च स्थान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं | समाज में उच्च स्थान मनुष्य को उसके कर्मों से मिलते हैं न कि स्वयं के बनाने से | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहां तक जानता हूं असली साधक एक विद्यार्थी होता है जो विद्यालय के समय में तो पढ़ता ही है और उसके बाद जब वह घर पहुंचता है तो विद्यालय से मिले कार्यों को करने बैठ जाता है | कहने का तात्पर्य है कि साधना काल में जो मन में विचार उठ रहे हैं उसको बनाए रखना या बारंबार उसका अभ्यास करना ही साधना कही जा सकती है | यह सभी जानते हैं कि ऐसे विद्यार्थी जो विद्यालय तो जाते हैं और यथासमय विद्यालय में रहते भी परंतु न तो वह विद्यालय में ही मन लगाकर पढ़ते हैं और न घर आकर के विद्यालय में बताए गए कार्यों का अभ्यास ही करते हैं , उनका क्या परिणाम होता है यह किसी से छुपा नहीं है | सकारात्मक बन करके उसमें निरंतरता बनाये रखते हुये घर , परिवार एवं समाज में सकारात्मक कार्य करना ही सच्ची साधना है |* *साधना करने के लिए न तो जंगल में जाना है और न ही पहाड़ों पर | अपने घर में रहकर के भी साधना की जा सकती है ऐसा हमारे महापुरुषों ने किया भी है |*