कविता(मौलिक)
बूढ़ा आदमी
विजय कुमार तिवारी
थक कर हार जाता है,बेबस हो जाता है,लाचार
जबकि जबान चलती रहती है,
मन भागता रहता है,कटु हो उठता है वह,
और जब हर पकड़ ढ़ीली पड़ जाती है,
कुछ न कर पाने पर तड़पता है बूढ़ा आदमी।
कितना भयानक है बूढ़ा हो जाना,बूढ़ा होने के पहले,
क्या तुमने देखा है कभी-
तीस साल की उम्र को बूढ़ा होते हुए,पैंतिस या चालिस को?
मेरी गली में सामने का वह मकान
और उसमें रहती वह एक अधेड़ महिला।
उसकी आँखों में चमक है और चाल में गति,
लगातार जन्मे पाँच बच्चों की माँ है वह।
पोसती-पालती,खटती रहती है,
जीती रहती है अपने बच्चों के साथ,
और भविष्य की कल्पना से अभिभूत होती है।
वहीं उसका पति,उदास-उदास करवटें बदलता है,
आँखें मिचमिचाता है
और विस्तर पर पड़े-पड़े,दीवार की ओर थूक देता है।
खिड़की से आती भोर की चटख धूप से,
डर उठता है,पर्दा खींच लेता है।
साँसें थमती सी लगती हैं,
जैसे कोई मरीज, दवा की सूई से डरा हुआ,
चादर को और तान लेता है,
मुँह में भर आये गाज को,घोंट जाता है।
चिड़ियों के संगीत से नहीं उठता,
भोर-भोर की किरणों से नहीं जागता,
बच्चों की धमाचौकड़ी से नहीं उठता,
पत्नी द्वारा बनायी हुई
भोर भोर की चाय से भी नहीं उठता।
वह उठता है क्योंकि उठना होता है,
मुँह-हाथ धोता है,
कंधे से झोला लटकाये,
निकल पड़ता है थका-थका सा,
दूर तक निहारती रहती है पत्नी,उदास होती है।
उन्मुक्त शाम की प्रतीक्षा को परे ढकेलता,
अथाह दर्द से सिकुड़ा,सिमटा,
निढाल गिर पड़ता है।
पत्नी जूते के फीते खोलती है,
खींच कर उपर कर देती है।
उसका घर, मरा हुआ सा दिखता है
या किसी बूढ़े की तरह,मरने के करीब।
तब हँसता है,खिलखिलाता है बूढ़ा आदमी,
कहता है-
बूढ़ा होना नियति ही नहीं,लोगों की आदत भी है।