मुहब्बत खुद उमड़ती है कभी हम तुम जो मिलते हैं
महकते फूल देखो कितने फिर बगिया में खिलते हैं
भले आवाज़ ना आए पर हम सब कुछ समझ लेंगे
तेरे लब क्या बताने को इतने धीमे से हिलते हैं
कठिन राहों पे उल्फ़त की सभी तो चल नहीं पाते
डटे रहते हैं जो इन पे बदन उनके ही छिलते हैं
ये क्या दुनिया बना इंसान ने ख़ुदगर्जी को पाला है
दिल का सच कह नहीं पाते लोग होंठों को सिलते हैं
खेल ये ज़िन्दगी के इतने भी आसां नहीं मधुकर
नगीने दिल में बस जाएं कहाँ वो सबको मिलते हैं