*प्रत्येक मनुष्य एक मन:स्थिति होती है | अपने मन:स्थिति के अनुसार ही वह अपने सारे कार्य संपन्न करता है , परंतु जब मनुष्य की मन:स्थिति में विवेक सुप्तावस्था में होता है तो उसके निर्णय अनुचित होने लगते हैं | प्रत्येक मनुष्य को अपने भीतर के विवेक को जागृत करना चाहिये | जिस दिन विवेक जागृत हो जाता है मनुष्य अपनी समस्याओं का हल स्वयं कर सकता है | विचार कीजिए यदि मनुष्य का विवेक जागृत है तो इस धरा धाम पर जो भी सामग्री , जो भी साधन मानवमात्र को मिले हुए हैं उनका प्रयोग करके मनुष्य कुछ भी करने में सक्षम हो सकता है | इस धरा धाम पर मनुष्य को समय मिला , श्रम मिला , सुंदर हृष्टपुष्ट शरीर मिला और एक सुंदर स्वस्थ मस्तिष्क मिला | समुचित कार्यक्षेत्र एवं परिवार मिलने के बाद भी मनुष्य का विवेक यदि जागृत नहीं है तो इन सभी क्षेत्रों में कैसे क्रियाकलाप करने हैं ? क्या उचित है क्या अनुचित है ? इसका विचार मनुष्य नहीं कर पाता है | जब मनुष्य विचार नहीं कर पाता है तो वह भटक जाता है तथा अपने निश्चित लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता है और जो कार्य उसके द्वारा होने चाहिए वह न हो करके अनुचित कार्यों में लिप्त हो जाता है | इसका कारण है मनुष्य के पास विवेक होते हुए भी वह सुप्तावस्था में होता है | जब विवेक सुप्तावस्था में होता है तो मनुष्य अज्ञानी हो जाता है , और अज्ञानी मनुष्य उचित अनुचित का विचार नहीं कर पाता है तथा जीवन भर भटकता रहता है |* *आज मनुष्य सुंदर स्वरूप पा करके अच्छे अच्छे वस्त्र पहनकर
समाज में अपने क्रियाकलाप करता है , परंतु विवेकहीनता का परिचय कभी न कभी दे ही देता है , क्योंकि विवेक को जागृत करने का परिश्रम करता हुआ आज का मनुष्य नहीं दिख रहा है | कुछ किताबों को पढ़कर के विवेक जागृत हो जाएगा ऐसा समझने वाले विवेकहीन ही नहीं कहे जा सकते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि आज के मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह हो दूसरों को कोई कार्य करते देख कर के उसी रास्ते पर चलने का प्रयास करने लगता हैं जबकि उसे उस कार्यक्षेत्र का
ज्ञान ही नहीं होता है | दूसरों के भीड़ का हिस्सा होने का कार्य तो भेड़ों का होता है मनुष्यों का नहीं | यह आवश्यक नहीं है कि जहां अधिक लोग चल रहे हैं वही हम भी चलने लगें , जो दूसरे लोग कर रहे हैं वही हम भी करने लगें | हमारे आध्यात्मिक गुरुओं ने बताया है की प्रत्येक परिस्थित के विषय में गुण के अनुसार , उसके परिणाम के अनुसार मनुष्य को स्वयं विचार करके ही कोई कार्य संपादित करना चाहिए | यदि मनुष्य के पास स्वतंत्र चिंतन है तो वह उचित अनुचित का निर्धारण कर सकता है अन्यथा भेड़ चाल में चलता हुआ जीवन व्यतीत कर देता है ! जैसा कि आज होता हुआ दिख रहा है | आज चमक दमक में लोग खो गए हैं और पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के बस में हो कर के उसी के अनुयायी बनते चले जा रहे हैं जो कि उचित नहीं कहा जा सकता |* *कौन सा कार्य उचित है कौन सा अनुचित है अपने विवेक के द्वारा विचार करने के बाद यदि मनुष्य अपने कार्य संपादित करता है तो उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है |*