फिर लौट चलूं मैं,”बचपन” मे, पर अब है,इतना वक़्त कहाँ… खेलूँ फिर से,उस “आँगन” मे, पर अब है,इतना वक़्त कहाँ…
क्या दिन थें वो,ख्वाबों जैसे, क्या ठाट थें वो,नवाबों जैसे… फिर लौट चलूं,उस “भोलेपन” मे, पर अब है,इतना वक़्त कहाँ…
हर रोज था,खुशियों का मेला, हर रात थी,सपनों की महेफिल… फिर लौट चलूं,उस “सावन” मे, पर अब है,इतना वक़्त कहाँ…
कोई पहेरा न था,बंदिशों का, जख्म गहेरा न था,रंजिशों का… फिर लौट चलूं,उस जीवन मे, पर अब है,इतना वक़्त कहाँ… —————————–--------- …...….इंदर भोले नाथ...…….
आँखों को जो उसका दीदार हो जाएमेरा सफ़र भी मुकम्मल यार हो जाएमैं भी हज़ारों ग़ज़ल लिखता उसपेकाश..हमें भी किसी से प्यार हो जाए==========================……......इंदर भोले नाथ…...……...
चाँद भी वही तारे भी वही..!वही आसमाँ के नज़ारे हैं...!!बस नही तो वो "ज़िंदगी"..!जो "बचपन" मे जिया करते थे...!!वही सडकें वही गलियाँ..!वही मकान सारे हैं.......!!खेत वही खलिहान वही..!बागीचों के वही नज़ारे हैं...!!बस नही तो वो "ज़िंदगी"..!जो "बचपन" मे जिया करते थे...!!#मेरे_अल
मुहब्बत खुद उमड़ती है कभी हम तुम जो मिलते हैंमहकते फूल देखो कितने फिर बगिया में खिलते हैं भले आवाज़ ना आए पर हम सब कुछ समझ लेंगेतेरे लब क्या बताने को इतने धीमे से हिलते हैंकठिन राहों पे उल्फ़त की सभी तो चल नहीं पाते डटे रहते हैं जो इन पे बदन उनके ही छिलते हैंये क्या दुनिया बन
गुजरें जो गली से उसके,वो-दीदार याद आया पलते नफ़रतों के दरमियाँ,वो-प्यार याद आया आँखों से मिलने का वो इशारा करना उसका फिर करना तन्हा मेरा,वो इंतेजार याद आया शिकवे लिये लबों पे,बेचैन वो होना मेरा फिर चुपके से लिपट के उसका,वो इज़हार याद आया मिल के उससे दिल का,वो फूल सा खिल जा
उन गुज़रे हुए पलों से,इक लम्हा तो चुरा लूँ…इन खामोश निगाहों मे,कुछ सपने तो सज़ा लूँ…अरसा गुजर गये हैं,लबों को मुस्काराए हुए…सालों बीत गये “.ज़िंदगी”,तेरा दीदार किये हुए…खो गया है जो बचपन,उसे पास तो बुला लूँ…उन गुज़रे हुए पलों से,इक लम्हा तो चुरा लूँ…जी रहे हैं,हम मगर,जिंदगी
कुछ तो बहेका होगा,रब भी तुझे बनाने मे…सौ मरतबा टूटा होगा,ख्वाहिशों को दबाने मे…!!आँखों मे है नशीलापन,लगे प्याले-ज़ाम हो जैसे…गालों पे है रंगत छाई,जुल्फ घनेरी शाम हो जैसे…सूरज से मिली हो लाली,शायद,लबों को सजाने मे…कुछ तो बहेका होगा,रब भी तुझे बनाने मे…!!मलिका हुस्न की हो या,हो कोई अप्सरा तुम…जो भी हो
हर तरफ है, मचा कोहराम,है बिखरा, टुकड़ों मे आवाम,है कहीं,नेताओं की मनमानी,सत्ता को समझे पुस्तानी…जिसे चुना, खुद को बचाने को,है वो तैयार, हमें मिटाने को…लड़ता रहा,जो सत्य के लिए,उसका कोई ज़िक्र नहीं…खुदा ढूंढते
इस चुनावी समर का हथियार नया है। खत्म करना था मगर विस्तार किया है। जिन्न आरक्षण का एक दिन जाएगा निगल, फिलहाल इसने सबपे जादू झार दिया है। अब लगा सवर्ण को भी तुष्ट होना चाहिए। न्याय की सद्भावना को पुष्ट होना चाहिए। घूम फिर कर हम वहीं आते हैं बार बार, सँख्यानुसार पदों को संतु
चाँद भी वही तारे भी वही..!वही आसमाँ के नज़ारे हैं...!!बस नही तो वो "ज़िंदगी"..!जो "बचपन" मे जिया करते थे...!!वही सडकें वही गलियाँ..!वही मकान सारे हैं.......!!खेत वही खलिहान वही..!बागीचों के वही नज़ारे हैं...!!बस नही तो वो "ज़िंदगी"..!जो "बचपन" मे जिया करते थे...!!#मेरे_अल
ज़रा टूटा हुआ है,मगर बिखरा नहीं है ये,वफ़ा निभाने का हुनर इस दिल को अब भी आता है…तूँ भूल जाए हमे ये मुमकिन है लेकिन,हर शाम मेरे लब पे तेरा ज़िक्र अब भी आता है…हज़ारों फूल सजे होंगे महफ़िल मे तेरे लेकिन,मेरे किताबों मे सूखे उस गुलाब से खुश्बू
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