‘यह तीसरी लड़की है जो तुमने
पैदा
की है. इस बार तो कम से कम एक लड़का जन्मती,’ उसकी
आवाज़ बेहद सख्त थी.
एक कठोर, गंदी
अंगुली शिशु को टटोलने लगी; यहाँ, वहां. भय की नन्ही तरंग शिशु के नन्हें हृदय में उठी और उसे
आतंकित करती हुई कहीं भीतर ही समा गई. अपने-आप
से संतुष्ट अंगुली हंस दी.
सब जानते हुए भी, अपने में
सिकुड़ी हुई, माँ मुंह फेर कर लेटी रही. ऐसा
हर बार हुआ था. अपनी सिसकियाँ दबाने के अतिरिक्त उसके पास कोई
विकल्प नहीं था.
दिन बीते और हर बीते दिन
के साथ घृणा और आतंक की लहरें भी बढ़ती गईं. हर दिन बच्ची को लगता कि वह
प्राणहीन होती जा रही थी. पर अंगुली की कामुकता थी कि बढ़ती ही जा रही थी.
आज बच्ची का सोलहवाँ
जन्मदिन
था, वह
सहमी हुई थी. उसने माँ की ओर देखा. माँ
की आँखें शुष्क और सूनी थीं. उसके आंसू
तो कब
के खत्म हो चुके थे, सिसकियाँ निर्जीव हो चुकीं थीं.
जैसे ही
क़दमों की आहट बच्ची की ओर आने लगी, भयभीत सी वह अपने में सिमट गई. उसे
लगा की उसकी बहनें कितनी भाग्शाली थीं, उन्हें इतने जन्मदिन सहने न पड़े थे.