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मैं

21 जनवरी 2019

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इंसानियत की बस्ती जल रही थी, चारों तरफ आग लगी थी... जहा तक नजर जाती थी, सिर्फ खून में सनी लाशें दिख रही थी, लोग जो जिंदा थे वो खौफ मै यहा से वहां भाग रहे थे, काले रास्तों पर खून की धारे बह रही थी, हर तरफ आग से उठता धुंआ.. चारों और शोर, बच्चे, बूढ़े, औरत... किसी मै फर्क नही किया जा रहा, सबको काट रहे है, लोग अंधे हो चुके दहशत में छुपे इन चेहरों मै, कोई अपने दोस्त... यार को नही पहचानता सिर्फ एक ही नारा लग रहा था... मेरा धरम... मेरा मजहब एक तरफ मंदिर जल रहा है... तो एक तरफ मस्जिद जल रहा है... मगर बीचमें जलती इंसानियत की शायद किसीको नही पड़ी... सेकड़ो लाशें, कइसो घर बर्बाद होगये, कितने अपने बच्चों से तो कितने लाचार बूढ़े अपनो घरों से बिचड़गये, मगर फिर भी इंसानियत नही जगी तब की ये बात है... जब जब दंगो के नाम पर इंसानियत जाली.... ऐसे दिल दहला देने वाले माहौल में... मैं गली से इंसानियत को बचाने जा रहा था, तभी मै ने एक हिन्दू और एक मुस्लिम दोस्त को आपस मे झगड़ते देखा जो कभी जिगरी दोस्त कहलाते थे... आज एक दूसरे की जान सिर्फ इस लिए लेना चाहते थे क्योंकि उनका मजहब, उनका धरम अलग है... जब दोनों आपस में एक दूसरे काटने जा रहे थे तब मै ने कहा.... आखिर क्यों हम लढ़े, क्या सिर्फ धरम और मजहब सबकुछ है इंसानियत कुछ नही... दोनो ने मुझे मारने की धमकी दी... मुझसे मेरा मजहब पूछा... मै ने इंसानियत को तब अपनी आँखों से बहता हुआ पाया... और जवाब दिया ना मै हिन्दू हु ना मुसलमान... कोई कोई धरम नही मेरा मै बस इंसान हु इंसानियत चाहता हु... क्यों आखिर हम ऐसे लढ़े, क्यों मैं हर दम मरता हु, कही आतंकवादी हमलों मै मरता हु, कभी जातिवाद मै... मैं मरता हु, कही दंगे फसाद मै... मैं मरता हु, कही गरीबी मै, कभी औरतों की चीखों मै... सरहद पर जाती हर उस जान की निकलती आहहह... मै, क्यों हर दम मैं क्यों मरता हु... पीछे मुड़के देखो कभी किसे काटा हमने हिन्दू को, मुसलमान को, देश को... आतंकवाद को, जातिवाद को हमने हमेशा इंसानियत को काटा है... कब तक मजहब और धरम के चक्कर मै... मै मरु, कब तक जात के नाम पर मैं बली चडू, कब तक सरहद के नाम पर मै बटु, कब तक वासना के नाम पर मै लुटु.... क्या इंसानियत का कोई मोल नही, क्या गीता मे पांच लोगों मारना लिखा है... क्या क़ुरान मै पांच लोगों को मारना लिखा है... तब दोनो हिन्दू और मुसलमान भाई ने अपने हथियार नीचे डाल दिये... मगर मातम नही रुका, हथियार हाथों से गिरते ही आँखों मे बस आसुओं थे... मगर होश में आते ही लोगो की चीख और खून में सनी लाशें देख आँखों के अंगारों को ये आंसू भी नही ठंडा कर पा रहे थे... तब इंसानियत ने सिर्फ इतना कहा.... इंसान से धरम नही... इंसान से कोई मजहब नही धरम से इंसान बनो... मजहब से इंसान बनो... खून से रिश्तों को जोड़ो, जात से नाता तोड़ो... तब ये अंगार भुजेंगे आँखों से तब इंसानियत नही ममता के आंसू टपकेंगे....
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ऐतराज़...

19 नवम्बर 2018
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ऐतराज़...एक दौर है ये जहाँ तन्हां रात में वक़्त कट्टा नही... वो भी एक दौर था जहाँ वक़्त की सुईयों को पकड़ू तो वक़्त ठहरता नही... एक दौर है ये जहाँ नजर अंदाज शौक से कर दिए जाते है... वो भी एक दौर था... जहाँ चुपके चुपके आँखों मैं मीचे जाते थे

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अक्सर...

30 नवम्बर 2018
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अक्सर... यूँ अक्सर जिंदगी सताती है.... कभी हसाती है, कभी रुलाती है... यूँ अक्सर जिंदगी सताती है... ये कुछ सिखाती... कुछ यह कहना चाहती है... कभी बनाती है, कभी बिगाड़ती है... यूँ अक्सर जिंदगी सताती है... ये कही कहा ले जाती है, ये क्यों उलझाती है... कभी रास्ते बिछड़ते है, कभी मंजिले रुस्वा होजाती है....

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रंग

11 दिसम्बर 2018
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रंगों का भी क्या मिजाज है....हर पल यह बदल जाता है....कुछ पल सुनहरा दर्शाता है...तो कुछ पल फीका कर जाता है....कुछ गाड़े रंग है, जिंदगी जिससे खोना नही चाहती...कुछ ऐसी ही फीकी उमंग है जो जिंदगी मैं चाहकर भी होना नही चाहती...कुछ अनदेखे रंग ह,ै जो आंखों से ओझल रहते है....कुछ जाने पचाने रंग है ,जो हरपल आँख

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बाबा तेरी चिरैया...

16 दिसम्बर 2018
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"बाबा तेरी चिरैया मै....मैं तो ना जाऊ परदेश रे....बाबा तेरी चिरैया मै....मैं तो ना जाऊ परदेश रे....तेरा हाथ छोड़कर, तेरा हाथ छोड़कर ना थामु मैं दूजा हाथ रे....बाबा ओ... बाबा....काहे भेजे मुझे दूर तू... मै चिरैया तेरे आंगण की...न बना मुझे तुलसी किसके आंगण की...मै तेरी बि

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राख...

22 दिसम्बर 2018
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राख... कैसे रिश्ते ये... कैसे ये नाते है... अपना ही खून हमे कहा अपनाते है... प्यार कहो या कहो वफ़ा... सबकुछ तो सिर्फ बातें है... रिशतें कहो या कहो अपने... सबकुछ तो सिर्फ नाते है... बातें लोग भूल जाते है... नाते है टूट जाते है... कोनसी कसमें कोनसे वादें... यहां अपने पीछे छूट जाते है... कितना भी कहलो

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गरीबों की बस्ती

9 जनवरी 2019
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कहते है कि.... गरीबों की बस्ती मे... भूक और प्यास बस्ती है... आँखों में नींद मगर आँखें सोने को तरसती है... गरीबों की बस्ती मे... बीमारी पलती है... बीमारी से कम यहा भूक से ज्यादा जान जलती है... गरीबों की बस्ती मे... लाचारी बस्ती है... पैसे की लेनदेन मे ही जिंदगी यहा कटती है... गरीबों की बस्ती मे... श

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21 जनवरी 2019
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इंसानियत की बस्ती जल रही थी, चारों तरफ आग लगी थी... जहा तक नजर जाती थी, सिर्फ खून में सनी लाशें दिख रही थी, लोग जो जिंदा थे वो खौफ मै यहा से वहां भाग रहे थे, काले रास्तों पर खून की धारे बह रही थी, हर तरफ आग से उठता धुंआ.. चारों और शोर, बच्चे, बूढ़े, औरत... किसी मै फर्क नही किया जा रहा, सबको काट रहे ह

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