!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! *ईश्वर ने सर्वप्रथम जड़ शरीर का सृजन किया फिर उसमें आत्मारूपी चेतनाशक्ति प्रकट की | देखना , सुनना , अनुभव करना , विचार करना , निर्णय करना आदि सभी कार्य चेतनाशक्ति के कारण होते हैं | चेतना के अभाव में यह जड़ शरीर कुछ भी नहीं कर सकता | यह चेतनशक्ति तीन अवस्थाओं में रहती है :- जाग्रत स्वप्नावस्था व सुषुप्ति | जाग्रत अवस्था में चेतनाशक्ति संसार का अनुभव करती है | श्रवण आदि ज्ञानेंद्रियां एवं शब्द आदि विषयों के द्वारा जो विशेष अनुभव होता है उसे जाग्रत अवस्था कहते हैं | इस जाग्रत अवस्था में मनुष्य को अपने शरीर का अभिमान रहता है कि मैं शरीर हूं | तो यह आत्मा ही विश्व कहलाती है अर्थात् यह इस स्थूल जगत से अन्य किसी तत्व का स्वीकार नहीं करती | स्वप्नावस्था में केवल मन सक्रिय रह कर विभिन्न विषयों का अनुभव मात्र करता है | उसमें क्रिया का अभाव रहता है | जाग्रत अवस्था में जो देखा - सुना जाता है उसकी सूक्ष्म वासना से निद्राकाल में जो जगत (व्यवहार) दिखाई देता है वही स्वप्नावस्था है | इस अवस्था में सूक्ष्म शरीर का अभिमान होने से आत्मा ‘तेजस’ कहा जाता है | "मैं कुछ नहीं जानता" सुख से निद्रा का अनुभव कर रहा हूं, यह सुषुप्ति अवस्था है | इस समय कारण शरीर का अभिमान करने से आत्मा ‘प्राज्ञ’ कहा जाता है | जाग्रत अवस्था में
ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है | स्वप्नावस्था में यह ज्ञान मन से होता है , जबकि सुषुप्तावस्था में मन भी सुप्त हो जाता है , जिससे इसमें सांसारिक ज्ञान का अभाव हो जाता है | इसी के साथ आत्मा एक चौथी अवस्था होती है जिसे "तुरीय" कहा जाता है | तुरीयावस्था मनुष्य को मोक्ष प्राप्त कराती है | जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है | यह आधार-चेतना है | यहीं से प्रारम्भ होती है आध्यात्मिक
यात्रा , क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है | बस, छलांग लगाने की आवश्यकता है |* *आज प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं का आंकलन करना चाहिए कि वह किस अवस्था में है , जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्त या फिर तुरीय | आज का जो परिवेश है उसमें यह कहना ही उचित है कि आज कुछ महापुरुषों / मनीषियों को छोड़कर लगभग सभी लोग या स्वप्नावस्था में हैं या फिर सुषुप्तावस्था में | तुरीयावस्था की बात करना ही एक हास्य से अधिक कुछ और नहीं कहा जा सकता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह कह सकता हूँ कि जहाँ प्रत्येक मनुष्य इन उपरोक्त तीनों अवस्थाओं में भ्रमण करता रहता है वहीं उसे चौथी अवस्था "तुरीय" को प्राप्त करने का उद्योग भी करते रहना चाहिए | तुरीय अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है | चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप | यह निर्गुण है, निराकार है | इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति | यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है | यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है | तुरीय का अर्थ होता है चौथी | इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं | यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी नहीं हो रहा | जीव का लक्ष्य इसी तुरीयावस्था को प्राप्त करना होना चाहिए | जागृत स्वप्न एवं सुषुप्त अवस्था में मनुष्य प्रतिदिन रहता है उसे तुरीयावस्था को प्राप्त करने काप्रयास करते रहना चाहिए