सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है ;
या तो तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है ।
या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का उपदेश नहीं ।
परन्तु इसका बात के -परोक्ष संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे ।
जिन्हें ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव
( देवों को न मानने वाला ) कहकर सम्बोधित किया गया है ।
श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं
कि यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है ।
मनुःस्मृति में वर्णन है कि 👇
" सामवेद: स्मृत: पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनि:
( मनुःस्मृति चतुर्थ अध्याय 124 वाँ श्लोक )
अर्थात् सामवेद का अधिष्ठात्री पितर देवता है ।
इस कारण इस साम वेद की ध्वनि
अपवित्र व अश्रव्य है ।
मनुःस्मृति में सामवेद को हेय
और ऋग्वेद को उपादेय माना ।
वस्तुत अब यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भगवद् गीता और वेद या मनुःस्मृति एक ही एक ही ही ईश्वर की वाणी हैं या एक ही ईश्वर का प्रतिवादी करती हैं।
क्यों कि श्रीमद्भगवद् गीता के दशवें श्लोक के बाइसवें श्लोक (10/22) में कृष्ण के मुखार-बिन्दु से नि:सृत वाणी है।👇
" वेदानां सामवेदोsस्मि = वेदों में सामवेद मैं हूँ" और इसके विरुद्ध मनुःस्मृति में तो यहाँं तक वर्णन है कि "👇
______________________________________
सामध्वनावृग्ययजुषी नाधीयीत कदाचन" मनुःस्मृति(4/123)
सामवेद की ध्वनि सुनायी पड़ने पर ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन कभी न करें !
अब तात्पर्य यह कि यहाँं अन्य तीनों वेदों को हेय और केवल सामवेद को उपादेय माना।
वैसे भी सामवेद संगीत का आदि रूप है ।
यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित साँग (Song) साम शब्द से व्युपन्न है ।
पता होना चाहिए कि कृष्ण मुरली को बजाने वाले और सबको नाच नचाने वाले श्रेष्ठ संगीतकार थे ।
परन्तु इनकी संगीत भी आध्यात्मिक नाद -ब्रह्म का गायन था । 👇
______________________________________
नहि अंग नृतो त्दन्यं विन्दामि राधस् पते: राये धुम्नाय शवसे च गिर्वण: (ऋग्वेद 8/24/12)
हे सबको नचाने वाले राधा के पति 'मैं बल ,धन और ज्योति प्राप्त करने के लिए तुम्हारे अतिरिक्त किसी को नहीं पाता।
वास्तव में एेसी अनेक ऋचाऐं हैं जिनमें राधा , कृष्ण तथा वृषभानु गोप के वर्णन की अभिव्यञ्जना होती है ।
राधा ---
राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है ।
अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं|
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं।
आराधिका और राधिका शब्द मूलतः एक हैं ।
राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में वृषभानु गोप के घर हुआ ।
यादव प्रारम्भ से ही गोपालक रहे हैं ।
अत: इसी वृत्ति गत विशेषण से समन्वित यादव गोप कहे गए हैं ।
स्वयं यदु एक चरावाहे अथवा गोप के रूप में ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में वर्णित हैं। 👇
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था में शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की -परोक्ष चेष्टा की गयी ।
अहीरों को तो पुराणों और स्मृतियों में बहुतायत से शूद्र या दस्यु घोषित कर दिया ।
केवल पद्म-पुराण और हरिवंश पुराण ही गोपोंं को यादव रूप में सकारात्मक रूप में वर्णन करते हैं ।
यादवों के आदिम पूूर्वज यदु को गोप के रूप वर्णन ऋग्वेद में है 👇
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं ।
(ऋ०10/62/10/)
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति
( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की -परोक्ष चेष्टा की गयी ।
विशेष:- इस ऋचा का व्याकरणीय विश्लेषण -
उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त (घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ
वस्तुत यहाँं प्रकृति भाव सन्धि व षष्ठी तत्पुरुष समास का भाव है ।
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप ।
अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है ।
---जो एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है
---जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं ।
दास जन-जाति के विषय में ऐतिहासिक विवरण निम्न है ।👇
__________________________________________
The Dahae (दाहे) , also known as the Daae, Dahas(दहास) or Dahaeans
(Latin: Dahae; Ancient Greek: Δάοι, Δάαι, Δαι, Δάσαι Dáoi, Dáai, Dai, Dasai; Sanskrit: Dasa; Chinese Dayi 大益)
were a people of ancient Central Asia.
A confederation of three tribes –
the Parni पणि , Xanthii जन्थी and Pissuri पिसूरी
– the Dahae lived in an area now comprising much of modern Turkmenistan तुर्कमेनिस्तान .
The area has consequently been known as Dahestan, Dahistan and Dihistan.
दाहेस्तान ,दाहिस्तान , दिहिस्तान ।
present-day Turkmenistan
Branches
Parni, Xanthii and Pissuri
Relatively little is known about their way of life. For example, according to the Iranologist
A. D. H. Bivar, the capital of "the ancient Dahae (if indeed they possessed one) is quite unknown."
The Dahae dissolved, apparently,
some time before the beginning of the 1st millennium. One of the three tribes of the Dahae confederation, the Parni, emigrated to Parthia
(पार्थियन -जो आधुनिक समय में उत्तर पूर्वीईरान है ।)
(present-day north-eastern Iran),
where they founded the Arsacid dynasty.
अब आश्चर्य इस बात का है ; कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता ;
केवल भागवत महात्म्य में राधा का वर्णन है ।
यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बन्धनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई।
दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नन्द, राधा आदि गए थे।
क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं ।
राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....
परन्तु वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख है।
...राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है|
वेदों में राधा शब्द सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मण्डल १,२ ...में ...राधस् शब्द का प्रयोग हुआ है।
....जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है....
ऋग्वेद के २ मण्डल के सूक्त ३-४-५ में ..सुराधा ...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है...सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है|
पुराणों में राधा धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी है ।
ऋग्वेद-५/५२/९४..में -- राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं।
..यथा..
“ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो
गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”
अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
“गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |
" इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ०)
--ओ राधापति वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं।
उनके द्वारा सोमरस पान करो।
" विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस :
सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/७):- ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।
त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही ...(ऋग्वेद )
इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के सन्देह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं।
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : ---(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद )
राधा वह व्यक्तित्व है जिसके कमलवत् चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं।
तमिलनाडू की गाथा के अनुसार --दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादव के समकक्ष हैं |
एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे |
उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था |
तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्तीरीय संहिता के अनुसार ---विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं |
नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति ।
श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी---नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है ।
जो दक्षिण की राधा है |
एक कथा के अनुसार राधा के कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
ब्रह्मा जी ने वसुदेव कृष्ण को सर्वप्रथम देवता स्वीकार करके उनकी प्रिय शक्ति श्रीराधा को सर्वश्रेष्ठ शक्ति कहा है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आराधित होने के कारण उनका नाम 'राधिका' पड़ा।
इस उपनिषद में उसी राधा की महिमामयी शक्तियों को उल्लेख है। उसके चिन्तन-मनन से मोक्ष-प्राप्ति की बात कही गयी है।
सनकादि ऋषियों द्वारा पूछ जाने पर ब्रह्मा जी उन्हें बताते हैं कि वृन्दावन अधीश्वर श्री कृष्ण ही एकमात्र सर्वेश्वर हैं।
वे समस्त जगत् के आधार हैं।
वे प्रकृति से परे और नित्य हैं।
उस सर्वेश्वर श्री कृष्ण की आह्लादिनी, सन्धिनी, ज्ञान इच्छा, क्रिया आदि अनेक शक्तियां हैं।
उनमें आह्लादिनी सबसे प्रमुख है।
वह श्री कृष्ण की अंतरंगभूता 'श्री राधा' के नाम से जानी जाती हैं।
श्री राधा जी की कृपा जिस पर होती हैं, उसे सहज ही परम धाम प्राप्त हो जाता है।
श्री राधा जी को जाने बिना श्री कृष्ण की उपासना करना, महामूढ़ता का परिचय देना है।
श्रीराधाजी के 28 नाम
श्री राधा जी के जिन 28 नामों से उनका गुणगान किया जाता है वे इस प्रकार हैं-
1-राधा,
2-रासेश्वरी,
3-रम्या,
4-कृष्णमत्राधिदेवता,
5-सर्वाद्या,
6-सर्ववन्द्या,
7-वृन्दावनविहारिणी,
8-वृन्दाराधा,
9-रमा,
10-अशेषगोपीमण्डलपूजिता,
11-सत्या,
1सत्यपरा,
12-श्रीकृष्णवल्लभा,
13-वृषभानुसुता,
14-गोपी,
15-मूल प्रकृति,
16-ईश्वरी,
17-गान्धर्वा,
18-राधिका,
19-रम्या,
20-रुक्मिणी,
21-परमेश्वरी,
22-परात्परतरा,
23-पूर्णा,
24-पूर्णचन्द्रविमानना,
25-भुक्ति-मुक्तिप्रदा और
26-भवव्याधि-विनाशिनी।
यहाँ 'रम्या' नाम दो बार प्रयुक्त हुआ है।
ब्रह्माजी का कहना है कि राधा के इन मनोहारिणी स्वरूप की स्तुति वेदों ने भी गायी है।
जो उनके इन नामों से स्तुति करता है,
वह जीवन मुक्त हो जाता है।
यह शक्ति जगत् की कारणभूता सत, रज, तम के रूप में बहिरंग होने के कारण जड़ कही जाती है।
अविद्या के रूप में जीव को बन्धन में डालने वाली 'माया' कही गयी है।
इसलिए इस शक्ति को भगवान की क्रिया शक्ति होने के कारण 'लीलाशक्ति' के नाम से पुकारा जाता है।
इस उपनिषद का पाठ करने वाले श्रीकृष्ण और श्रीराधा के परम प्रिय हो जाते हैं और पुण्य के भागीदार बनते हैं।
वर्तमान कतिपय विद्वान् 'राधा' का अर्थ 'कृषि' से भी लगाते हैं, किन्तु यह उपनिषद का विषय नहीं है।
प्रेम के लिए अंग्रेजी भाषा में प्रचलित शब्द (love) का प्रयोग हमारी संस्कृति में असंगत व यथार्थ भाव का बोधक नहीं है।
यद्यपि साहित्य मनीषीयों ने ईश्वर विषयक रति को भक्ति और सन्तान विषयक रति को वात्सल्य तथा प्रेमी विषयक रति को ही श्रृँगार या स्थायी भाव काम कहा है
यूरोपीय भाषाओं में
(love)लव तो केवल लोभः और वासना का विशेषण है
उसमें प्रेम के जैसी आध्यात्मिक आत्मीय भावना कहाँ ! इसी विषय पर हमारा एक अल्प प्रयास ।
....
लव केवल यह पाश्चात्य संस्कृति का वासनामयी प्रदूषण ही है, जिसके आवेश में धूमिल-विचारक किशोर- वय विद्या की अरथी को वहन करने वाला विद्यार्थी होकर भी दिग्भ्रमित है।
यूरोपीय लव में त्याग और समर्पण का भाव ही नहीं हैं । परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
पाश्चात्य संस्कृति में "प्रेम - लोभ व वासना का अभिव्यञ्जक हो गया है ।
तैरहवीं शताब्दी में कबीर सदृश महान आध्यात्मिक सन्त भी " कहते हैं कि "
पोथी पढ़ पढ़ जग मरा भया न पण्डित कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय"
कबीर का प्रेम वासना का वाचक नहीं है।
वह तो भक्ति का अभिभासक है ।
वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव ( Love) शब्द संस्कृत भाषा में लुभःअथवा लोभः के रूप में प्रस्तावित है।
क्योंकि संस्कृत भाषा भारोपीय भाषा परिवार की शतम् वर्ग की भाषा होने से ग्रीक और लैटिन भाषा की बड़ी बहिन है ।
संस्कृत भाषा में लगभग 80℅ अस्सी प्रतिशत मूल तथा सांस्कृतिक शब्द यूरोपीय भाषाओं के सदृश हैं ।
________________________________________
लव शब्द जो कि लैटिन में लिबेट( Libet )तथा लुबेट (Lubet) के रूप में विद्यमान है । ..जिसका संस्कृत में रूप है :-- लुब्ध ( लुभ् क्त ) भूतकालिक कर्मणि कृदन्त रूप व्युत्पन्न होता है।
संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है :- (काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना) .
. वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ दिखाई देता है ,
परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि ही है ।
अंग्रेजी भाषा में यह शब्द (Love )लव शब्द के रूप में है ।
तथा जर्मन में लीव (Lieve) है , तो ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में (Lufu )
लूफु के रूप में है ।
यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में प्रेम के नाम पर वासना का उन्मुक्त ताण्डव है ।
वहाँ प्रेम के नाम पर इन्द्रिय-सुख मात्र है ।
जबकि प्रेम निःस्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है, प्रेम तो भक्ति है ।
जबकि भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।
इन्हीं सन्दर्भों में राधा और कृष्ण का जीवन चरित हमारी विवेचना का विषय है ।
सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में - ________________________________
राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी । यह शब्द वेदों में भी आया है ।👇
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् अच् । टाप् ):- अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है वह राधा है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है ।👇 _____________________________________
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।
_______________________________________
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/७) _______________________________________
सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा स्वरूप ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सवितारं (सबको जन्म देने वाले) प्रभु हमारी रक्षा करें
हम उनका आह्वान करते है।
__________________________________
त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) _____________________________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें।
जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।
त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) _____________________________________ अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण "अग्नि" के सदृश् गमन करने वाले हैं।
ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !
उपर्युक्त इन दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया है ।
श्रीमद्भगवद् गीता वेदों की अनोपयोगिता विषय में स्पष्ट उद्घोष करती है ।
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके .
तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45)
श्रीमद्भगवद् गीता (2/46)
----हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं
अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को त्याग कर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो !
जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त कर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53)
जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है।
समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;
उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।
अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मषु कौशलम्" तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय।
सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा
समत्वं योग उच्यते।।
ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग
( मध्य मार्ग)
महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।
जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं
एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा
अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ;उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं।
अष्टाध्यायी के ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिं’ इस सुप्रसिद्ध सूत्र के अनुसार जो परलोक और पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को स्वीकार करता है
वह आस्तिक है ।
और जो इन्हें नहीं मानता वह नास्तिक कहाता है। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।
प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
‘
अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।
श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
वहाँ उन्होंने कहा है–भिक्षुओं !
कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ;
जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है—
“मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करने वाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था।
सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ।
वहां भी मैं इस नाम का था। सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।“ इत्यादि।
अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है।
श्लोक है-👇
’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि।
सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।‘
इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले!
मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
इस पर टिप्पणी करते हुए पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है।
जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे।
स्वर्ग नरक यद्यपि मन के उन विकल्पों के काल्पनिक प्रतिरूप है ।
जो जड़ता और चेतना के संवाहक होते हैं ।
भौगौलिक रूप से उत्तरीय ध्रुव का हेमर पास्त के समीप वर्ती स्वीडन ही स्वर्ग है ।
और नहीं की दक्षिणा वर्ती नेरके नारको आदि नरक हैं ।
धीरे धीरे जब देव-संस्कृति के लोग भूमध्य रेखीय स्थलों पर आये तो तब भी दक्षिणा वर्ती या दक्षिणीय ध्रुव को नरक नाम दे दिया ।
महात्मा बुद्ध के आस्तिक होने से संबंधित अगला प्रश्न यह है कि क्या वह अनीश्वरवादी अर्थात ईश्वर में विश्वास न रखने वाले थे?
यदि वे पूर्ण रूपेण परम् सत्ता को स्वीकार नहीं करते तो वे नैतिक मूल्यों को प्रतिपादित नहीं करते ।
क्यों कि जब कुछ है ही नहीं तो पाप करने में डर किसका ?
महात्मा बुद्ध ने जीवन पर्यन्त मन के शुद्धिकरण
के लिए तपश्चर्या की यदि ईश्वरीय तथा आत्मीय सत्ता को बुद्ध अस्वीकार करते तो क्या वे नैतिक पाठ अपने शिष्यों के पढ़ाते ?
सायद कदापि नहीं
यदि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है ,
तो क्यों बुद्ध ने सत्याचरण को जीवन का आधार बनाया ?
बुद्ध ने जीवन का स्वरूप इच्छाओं को स्वीकार किया ।
इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है ।
वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है ।
जो आत्मा का स्वभाव है ।
संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं ।
अन्त में हम अपने भावोद्गारो को इन पक्तियों मे अभिव्यक्त करते हैं ।👇
---------------------------------------------------------------
ये शरीर केवल एक रथ है ।
आत्मा "रोहि "जिसमें रथी है ।
इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े ।
बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।
मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?
लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
यहाँ मञ्जिलों से पहले ही दुर्गति है ।।
---------------------------------------------------------------
अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है !
मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा ,
केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है !
अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!
अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं ।
जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं ।
अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ;
तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है।
यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है।
मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है।
मनैव मनुष्य: मन ही मनुष्य है;मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है ।
मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है ; उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ;
अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं।
उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है।
________________________________
सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत है ।
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है ।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है ।
और आत्मा प्राणी जीवन की ,
इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं!
🌞
सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान है।
और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होना भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।
..मैं योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ,
जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप
प्राप्त किए हैं।
...इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषिदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ
श्री-मद्भगवद् गीता तथा कुछ उपनिषदों के श्लोकों को उद्धृत किया है।
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही एक अंग है
जिसे महाभारत में पाँचवीं सदी में
सम्पृक्त किया गया है
परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा रचा गया।
कोई भी प्रति महाभारत की दसवीं सदी से पूर्व की नहीं है ।
महाभारत के आदिपर्व में महात्मा बुद्ध का वर्णन है ।
गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।
वह कृष्ण के मत के बहुतायत से अनुमोदक अवश्य है ; परन्तु कुछ वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने कुछ प्रक्षिप्त श्लोक संलग्न कर दिए हैं ।
श्रीमद्भगवद् गीता का निर्माण पाँचवीं सदी में रची
_______________________________________
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥
(श्रीमद्भगवद् गीता 17/23 )
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्" (वह), "सत्" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)
परन्तु शंकराचार्य के गीता भाष्य को देखिए👇
ओ३म् ,तत् सत् यह तीन प्रकार का -ब्रह्म का निर्देश ( संकेत) है ।उस ब्रह्मा ने ब्राह्मण , वेद और यज्ञ पैंदा किए ( विहिता: निर्मिता इति शंकर:)
इस का भावार्थ यही है कि ब्राह्मण सृष्टि के आरम्भ में वेदों और यज्ञों के साथ बनाए अब -परोक्ष व्यञ्जनात्मक शैली में यही अर्थ प्रकट है
कि ब्राह्मण जन्म से होता है ।
👉👉👉👉 👈👈👈👈
श्रीमद्भगवत् गीता का निम्न श्लोक भी प्रक्षिप्त है ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ 35
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है।
अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है
और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥
व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है।
आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है।
जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है।
कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है।
इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है।
सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है।
ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।
इस श्लोक को बड़ी चतुराई से वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने धर्म के नाश का भय बता कर साधारण जनता को ब्राह्मणों के अनुसार रहने की हिदायत दी है ।
रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने यह श्लोक कृष्ण के सिद्धान्तों के नाम पर समायोजित किया है।
अब विचारणीय तथ्य यह है कि यह बौद्ध कालीन स्थितियों को इंगित करता है ।
यद्यपि धर्म शब्द यूनानी तथा रोमन संस्कृतियों में क्रमश तर्म और तरमिनस् (Term )(Terminus ) के रूप में विद्यमान है ।
टर्मीनस् रोमन संस्कृतियों में मर्यादा का अधिष्ठात्री देवता है ।
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस (Terminus) की पूजा सबीन जन-जाति के मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के ई० पू० 753 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं ।
संस्कृत साहित्य में सन्दर्भित गुप्त कालीन
अमरकोश में धर्म शब्द का अर्थ प्रासंगिक है ।
धर्म पुंल्लिंग और नपुंसकलिङ्ग रूप ।
धर्मः
समानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण
1।4।24।1।1
स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः।
मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥
आचारः
समानार्थक:धर्म,समय Time / Term
3।3।139।1।1
धर्म पुंल्लिंग वैदिक भाषा में धर्म शब्द है ।
कर्मकाण्डीय नियम, भा.श्रौ.सू. 7.6.7
(ये उपभृतो धर्मा.....पृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); देखें-7.6.9 में ‘स्रुवधर्म’, ‘पयोधर्म’।
ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।
धर :- पहाड़, धरा ।
धर्म की परिभाषा :- किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव, नित्य नियम ।
जैसे, आँख का धर्म देखना, सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना ।
विशेष—ऋग्वेद में (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है
यह अर्थ सबसे प्राचीन है । 💥🌸
किसी मान्य ग्रन्थ में, आचार्य़ या ऋषि द्बारा निदिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति के अर्थ किया जाय ।
वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।
जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।
विशेष—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है ।
जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।
संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है ।
वस्तुत कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करने वाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।
यद्यपि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था ।
वह कर्म जिसका करना किसी सम्बन्ध स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो
वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिय़े करना चाहिए ।
किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार ।
अर्थात् वर्ण-व्यवस्था मूलक समाज की कार्य-प्रणाली या आचरण रूढ़िवादी ब्राह्मणों की दृष्टि में धर्म है ।
जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।
विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद के लिये तीनों वणों की सेवा करना ।
पुंलिंग
समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य;
पुंलिंग
मज़हब (रिलिजन)।
तर्मन् नपुं।
यूपाग्रम्
समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन्
2।7।19।1।2
यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥
अवयव : यूपकटकः
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, अचलनिर्जीवः, अचलनिर्जीववस्तु
शब्दसागरः
तर्मन्¦ n. (-र्म) The top or term of the sacrificial post. E. तॄ to pass up, and मनिन् aff.
Apte
तर्मन् [tarman], n. The top of the sacrificial post.
Monier-Williams
तर्मन् n. " passage "See. सु-तर्मन्
तर्मन् m. n. the top of the sacrificial post( cf. Lat. terminus) L.
तर्मन् तर्य See. p. 439 , col. 2.
(तरतीति । तॄ “सर्व्वधातुभ्यो मनिन् ।” उणां ४ । १४४ । इति मनिन् ।) यूपाग्रम् । इत्यमरः । २ । ७ । १९ ॥
तर्मन् a. good for crossing over; सुतर्माणमधिनावं रुहेम Ait. Br.1.13;
(cf. also यज्ञो वै सुतर्मा)..
ययाऽति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेमेति यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा ...
अंग्रेज़ी में Term के अनेक अर्थ हैं ।👇
अवधि
पद
समय
शर्त
सत्र
परिभाषा
ढांचा
सीमाएं
बेला
मेहनताना
फ़ीस
मित्रता
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं
जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया।
प्लूटार्क आगे बताता है कि, मोर के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए
गीता कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं।
कृष्ण द्रविड संस्कृति के नायक थे ।
यह तथ्य अटपटा अवश्य लग सकता है परन्तु यही सत्य है;जिन्हें चतुर ब्राह्मणों ने कृष्ण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें अपने -ग्रन्थों में युग-- पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित किया ।
और ब्राह्मण हित मूलक मत कृष्ण पर आरोपित करके इस प्रकार वर्णित किए हैं; कि उसमें कुछ भी कृत्रिम अनुभव न हो ।
__________________________________________
कृष्ण चमत्कारी पुरुष थे ,और इनका जन्म गोप अथवा आभीर जाति में हुआ था ।
--जो यादवों के क्रमश वृत्ति गत और प्रवृत्ति-गत विशेषण थे ।
ब्राह्मणों ने कालान्तरण में यादवों को केवल व्यवसाय गत विशेषणों से ही सम्बोधित किया ।
परन्तु स्वयं को वंशगत विशेषणों से ही सम्बोधित किया
अब आप समझिए कि एक चतुर्वेदी ब्राह्मण का बेटा
किसी भी वेद की मण्डल या सूक्त तो दूर की बात ऋचा भी न जानता हो फिर भी रूढ़िवादी अन्ध-भक्त उन जाहिलों को पण्डित जी , चौबे जी या चतुर्वेदी ही कहते हैं ।
क्यों कि ब्राह्मण तो जन्म से ही पैदा होते हैं ।
______________________________________
पद्म-पुराण स्वर्ग खण्ड :-👇
26 वाँ अध्याय :-
तस्य माहात्म्यादि यथा :-
“सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणः परमो गुरुः।
तस्मै दानानिदेयानि भक्तिश्रद्धासमन्वितैः।
ब्राह्मण सभी वर्णों का परम गुरु है । अत: उसे भक्ति और श्रृद्धा पूर्वक दान देना चाहिए !
सर्वदेवाग्रजो विप्रःप्रत्यक्षत्रिदशो भुवि।
स तारयति दातारं तस्तरेविश्वसागरे।
सबसे पहले जन्म लेना वाला यह ब्राह्मण पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देव है ।
वही यजमान को संसार रूपी सागर से पार करता है ।
👈 हरिशर्मोवाच। 👉
सर्ववर्णगुरुर्विप्रस्त्वयाप्रोक्तः सुरोत्तम!
तेषां मध्ये च कः श्रेष्ठः कस्मै दानंप्रदीयते।
ब्राह्मण सभी वर्णों का परम गुरु कहा हे देवों उत्तम
👈 ब्रह्मोवाच। 👉
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाःपूजनीयाः सदैव हि।
अविद्या वा सविद्या वा नात्रकार्य्या विचारणा।
ब्रह्माजी कहते हैं कि सभी ब्राह्मण सदैव श्रेष्ठ व पूजनीय हैं । चाहे 'वह विद्वान हो या फिर मूर्ख इस विषय में ज्यादा विचार नहीं करना चाहिए ।
स्तेयादिदोषलिप्ता ये ब्राह्मणाब्राह्मणोत्तम!
आत्मभ्यो द्वेषिणस्तेऽपि परेम्यो नकदाचन।
ब्राह्मण चाहें चोरी में लगा हो चाहें उसमें -ब्रह्म ज्ञान हो या न हो
अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः। अभ्यक्ष्यमक्षंका गावः कोलाः सुमतयो न च।
माहात्म्यं भूमिदेवानां विशेषादुच्यते मया।
तव स्नेहाद्द्विजश्रेष्ठ! निशामय समाहितः।
ब्राह्मण चाहें व्यभिचारी ही क्यों हो 'वह पूज्य ही है
और शूद्र चाहे जितेन्द्रीय ही क्यों न हो 'वह 'वह कभी भी सम्मान के योग्य नहीं है ।
इस प्रकार पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों की विशेषताऐं सुनकर सभी विप्र गण स्नेह से सुनकर सावधान हो गये
सीधी सी बात है कि स़लिषने वाले लोभी ब्राह्मणों ने सब प्रकार से समाज में अपने हित शास्त्र मर्यादा के नाम पर स्वरक्षित रखे ।
_________________________________________
विश्व की प्राचीन संस्कृतियों से भी कुछ मुख्य तथ्य उद्धृत किए हैं ;जो समीचीन और प्राचीन भी हैं ।
विशेषत: ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों से तथा यूनानी संस्कृति से प्राचीन दार्शनिकों के मत विदित हो कि कैल्टिक संस्कृति के सूत्रधार ड्रयूड (Druids) समुदाय की एक शाखा भारतीय धरा पर द्रविड कहलाती है ।
आत्म तत्व के विश्लेषण में कृष्ण का दर्शन अद्भुत है ।
आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष हैं
________________________________________
न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः
अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||
------------------------------------------------------------- (श्रीमद्भागवत् गीता .)..
वास्तव में सृष्टि का 1/4भाग ही दृश्यमान् 3/4 पौन भाग तो अदृश्य है ।
परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व -व्यापक व अपरिवर्तनीय है ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही |
_____________________________________
अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ।
.ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है ।
________________________________________
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,
और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है |
सामवेद की महत्ता को लेकर
श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का
पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है ;
या तो तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है ।
या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का उपदेश नहीं ।
साम वेद संगीत का वेद है और स्वरयोग की साधना-शब्दब्रह्म का अभ्यास ही नहीं वस्तुतः एक साधना है नाद-ब्रह्म की उपासना है ।
सृष्टि की आदिम विद्या भी यही स्वर विधायिका है ।
जिसका अवलम्ब लेकर मनुष्य अपने भीतर के ‘सुन्दर’ को ही नहीं ‘शिव’ और ‘सत्य’ को भी रागी या वेरागी होकर उल्लसित कर सकता है ।
और उस आन्तरिक तृष्णा की तृप्ति कर सकता है जिसकी लालसा उसे विविध विविध कामनाएँ और प्रवृत्तियाँ अपनानी पड़ती है।
वास्तविक रूप से सांसारिक वासनाओं का शमन करने वाली औषधि संगीत है ।
‘संगीत’ के योगसूत्र में यही स्पष्ट किया गाय है।
कि योग साधना के अनेक प्रकारों में नादयोग की स्वर साधना का भी महत्त्व पूर्ण स्थान है।
संगीत वैखरी वाणी की स्वर मयी अभिव्यञ्जना है ।और वैखरी कण्ठ से उत्पन्न होनेवाले स्वर का एक विशिष्ट प्रकार है ।
जो उच्च तथा गम्भीर और बहुत स्पष्ट स्वर होने से वैखरी संज्ञा अभिहित है।
वह वाणी या वाक् जिसमें स्वर और व्यञ्जन ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई देती है 'वह वैखरी है ।
व्याकरण दर्शन के अनुसार वाग के चार भेदों (परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी) में स्थूलतम श्रवणीय भेद वैखरी का ही है ।
संगीत वस्तुत जीवन की व्याख्या है ।
आपको विदित है कि नवजात शिशु का रुदन वस्तुत स्वरों का एक आलापमयी प्रवाह ही है । व्यक्ति जब संसार में आता है और जाता है तब भी उसका समन्वय कहीं न कहीं रूदन से है ।
अत: संगीत को कृष्ण जी ने अपने जीवन का विलास और उल्लास माना ।
परन्तु कृष्ण के मत का विरोध असंगत है ।
_________________________________________
परन्तु इस बात के -परोक्ष संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे।
जिन्हें ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव
(देवों को न मानने वाला) भी कह कर सम्बोधित किया गया है ।
श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं
कि यह ग्रन्थिका अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है ।
परन्तु मनुःस्मृति श्रीमद्भगवत् गीता के विपरीत स्थिति में वैदिक कर्मकाण्ड परक मान्यताओं का समर्थन करती है मनुःस्मृति में वर्णन है कि
सामवेदः स्मृत पित्र्यस्तस्यात् तस्याशुचिर्घ्वनिः।
(मनु:स्मृति । 4।124)
रुद्रः साममयोऽन्तेच तस्यात्तस्याशुचि र्ध्वनिः।
(मार्कण्डेय पुराण 102।106)
अर्थात् सामवेद का अधिष्ठात्री पितर देवता है ।
इस कारण इस साम वेद की ध्वनि
अपवित्र व अश्रव्य है ।
मनुःस्मृति में सामवेद को हेय
और ऋग्वेद को उपादेय माना ।
वस्तुत अब यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भगवद् गीता और वेद या मनुःस्मृति एक ही ईश्वर की वाणी हैं या एक ही ईश्वर का प्रतिवादी करती हैं ऐसा नहीं है ।
क्यों कि श्रीमद्भगवद् गीता के दशवें श्लोक के बाइसवें श्लोक (10/22) में कृष्ण के मुखार-बिन्दु से नि:सृत वाणी है।👇
" वेदानां सामवेदोsस्मि = वेदों में सामवेद मैं हूँ"
और इसके विरुद्ध मनुःस्मृति में तो यहाँं तक वर्णन है कि सामवेद की ध्वनि ही अशुभ व अपवित्र है । "👇
______________________________________
सामध्वनावृग्ययजुषी नाधीयीत कदाचन" मनुःस्मृति(4/123)
सामवेद की ध्वनि सुनायी पड़ने पर ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन कभी न करें !
अब तात्पर्य यह कि मनु:स्मृति के विरुद्ध श्रीमद्भगवत् गीता में अन्य तीनों वेदों को हेय और केवल सामवेद को उपादेय माना।
वैसे भी सामवेद संगीत का आदि रूप है ।
यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित साँग (Song) साम शब्द से व्युपन्न है ।
Old English – sang "voice, song, art of singing;
metrical composition adapted
for singing, psalm, poem," from
Proto-Germanic –songwho
Old Norse –söngr,
Norwegian –song,
Swedish –sång,
Old Saxon, Danish,
Old Frisian,
Old High German,
German –sang,
Middle Dutch– sanc,
Dutch –zang,
Gothic –saggw
s), from PIE songwh-o- "singing, song," from :– sengwh- "to sing, make an incantation"
पुरानी अंग्रेज़ी में सेंग"
प्रोटो-जर्मेनिक में साँग्वो
गीत-गायन से गायन, स्तोत्र, कविता," के लिए रूपांतरित धातु रचना पश्चिमी, पुराने उच्च जर्मन, जर्मन में सेंग, मध्य डच में सैंग, डच में सैंग,
गोथिक सेग्गॉ धातु रूप songwh-o- "गायन, गीत," से सम्बद्ध "sengwh- "गाने के लिए, एक गाना बनाने के लिए"
पता होना चाहिए कि कृष्ण मुरली को बजाने वाले और सबको नाच नचाने वाले श्रेष्ठ संगीतकार थे ।
परन्तु इनकी संगीत भी आध्यात्मिक नाद -ब्रह्म का गायन था । 👇
______________________________________
नहि अंग नृतो त्वन्यं विन्दामि राधस् पते: राये धुम्नाय शवसे च गिर्वण: (ऋग्वेद 8/24/12)
हे सबको नचाने वाले राधा के पति 'मैं बल ,धन और ज्योति प्राप्त करने के लिए तुम्हारे अतिरिक्त किसी को नहीं पाता।
वास्तव में एेसी अनेक ऋचाऐं हैं जिनमें राधा , कृष्ण तथा वृषभानु गोप के वर्णन की अभिव्यञ्जना होती है ।
--मनु-स्मृति कार संगीत को विलासिता तक ही देखता है
कामं क्रोधे च लोभं च नर्तन गीत वादनम्।
--मनु:-स्मृति 2।17
न नृत्येदथ्वा गायेत्र वादि-त्राणि वादयेत्।
(मनु:-स्मृति 4।64)
इन वाक्यों से काम, क्रोध, लोभ जैसे दुर्गुणों की पंक्ति में ही गीत-नृत्य की गणना की गई है।
परन्तु संगीत भक्ति का साधक है । नाद ब्रह्म का आराधक है ।
मनु: स्मृति की रचना उस समय को ध्वनित कर रही है जब समाज में राजे महाराजे संगीत को मुजरा और विलासी महफिलों की शान समझते थे ।
आगे चलकर उन्होंने संगीत जीवी व्यक्ति को अनाचारी, अधर्म, गर्हित, बताते हुए कहा है कि न तो उनके साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करें और न उनका भोजन -जल ही ग्रहण करें।
उन्हें ब्राह्मण होने पर भी शूद्रवत् समझे।
यह अभिप्राय व्यक्त करने वाले मनुस्मृति में निम्न श्लोक हैं।
कुशील वो ऽ वकीर्णी च वृषली पति रवेच।
एतान् विगर्हिताचाराना पांक्तेयान् द्विजा धमान्।
द्विजाति प्रवरो विद्वानुभयत्र विवर्जयेत्।
--मनु-स्मृति 3।155,167
स्तेन गायक योश्चात्र तक्ष्णों वार्धुषिकस्य च।
-मनु-स्मृति 4।210
प्रेप्यन् वाधु षिकांश्चैव व्रिपान शूद्र वदाचरेत्।
मनु-स्मृति:–8।102
ब्राह्मणो नैव गायेत्र नृत्येत्।
अर्थात् ब्राह्मण न तो गाये और न नाचे।
मनुस्मृति में नृत्य गायनऔर वाद्य को ‘तौर्यत्रिक’ संज्ञा देते हुए उसे त्याज्य कागज व्यसन कहा गया है।
तौर्यत्रिकं वृथाटया च कामजो दशको गणः।
- मनु-स्मृति :-7।47
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्।
- मनु:स्मृति 7।4 5
इन दोनों ही निर्देशों में संगीत की भर्त्सना की गई है और उससे बचने के लिए कहा गया है।
संगीतकारों की गवाही को राजदरबारों में अप्रामाणिक मानने की बात मनु-स्मृति कार ने कहीं है और उन्हें अविश्वस्त ठहराया है।
न साक्षी नृपतिः कार्यो न कारुक कुशीलवौ।
मनु स्मृति 8।65
याज्ञवल्क्य स्मृति 3।70 में नारद स्मृति 1।4।146 में भी यही मत व्यक्त किया गया है।
पद्मपुराण भूमि- खण्ड 75।30 में राजा ययाति के महान् व्यक्तित्व और आदर्श राज्य का वर्णन किया गया है। साथ ही उनके पतन का कारण गीत वाद्य में रुचि लेने लगना भी बताया है।
--जो राजपूती काल की परिस्थितियों को ध्वनित करता है ।
कामस्य गीत लास्येन हास्येन ललितेन च।
मोहितो राज राजेन्द्रः काम संसक्त मानसः।
- पद्म-पुराण भूमि-खण्ड 77।1
कामुक गीत, वाद्य, नृत्य, हास्य विलास में राजा ययाति का मन मोहित हो गया और वे अपनी गरिमा खो बैठे।
श्रीमद्भागवत में साधु को संगीत सीखने , गाने एवं सुनने का निषेध किया गया है और कहा गया है कि इस कुचक्र में फँसकर वे अपनी हिरनों जैसी दुर्गति न करायें।
ग्राम्यगीतं न श्ररगुयाद् यतिर्वनचरः क्वचित्
शिक्षेत् हरिणाद् वद्धान् सृगयो गीत मोहितम्।
(भागवतपुराण 11-8।17)
अगले श्लोक में इसका प्रमाण देते हुए भागवतकार ने बताया है कि शृंगी ऋषि का पतन इसी कुचक्र में फँसने के कारण हुआ था।
बाणभट्ट ने अपने कादम्बरी ग्रन्थ में चन्द्रापीड आदर्श राज्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि उस राज्य में ‘एणकानाम् गीत व्यसनम् हिरनों के अतिरिक्त और किसी को संगीत का व्यसन नहीं है।
हरिण को कुरंग कहा जाता है :-कुरङ्ग' कौ रङ्गति--अच्। अर्थात् --जो कु :-शब्द का रंग :-आनन्द लेता है । जो शब्द से आनन्दित होता है ।
वस्तुत: 'वह मोर और हिरन ही हैं ।
मोर केवल हर ध्वनि को बादलों की गड़गड़ाहत समझता है । और उसे बादलो से -जल की अपेक्षा है ।
वाल्मीकि रामायण में रावण की स्त्रियों के अनेक दूषणों में से एक यह भी गिनाया है कि वे संगीत परायण थीं।
नृत्य वादित्र कुशला राक्षसेन्द्र भुजाड्·कगाः।
-बाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड 10।32
काचिद् वीणाँ परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशिते।
10।37
अन्या कक्ष गते नैव मडडु के नासिते क्षणा।
10।38
विपंची परिगह्यान्याँ नियता नृत्य शलिनी।
इन सभी विवरणों में राक्षसियों को नाचने, गाने वाली, अनेक प्रकार के वाद्य यन्त्रों के साथ लटकाये रहना वाली, उन्हें साथ लेकर सोने वाली बताया गया है।
एक ओर असुर ललनाओं की इस काम संगीत व्यसन से ग्रस्त स्थिति का वर्णन है। दूसरी ओर भगवान राम भरत जी को अयोध्याकाण्ड 100।68 में संगीत व्यसन से सर्वथा दूर रहने का उपदेश देते हैं।
गायक वादकैश्चानथ्यैः संयोगः कामः।
-कौटिल्य अर्थशास्त्र 8।1।4
अर्थात् गायन, वादन कामोत्तेजक और अनर्थमूलक हैं।
नट नर्तकी विट वेश्याकुनृपेष्व नृताडम्बरं वक्तव्यः।
-वार्हस्पत्य अर्थशास्त्र 1-54
आचार्य बृहस्पति ने नट, नर्तक, वेश्या, कुनृप को समतुल्य रखते हुए इन आडम्बरों की भर्त्सना की है।
भरत नाट्य शास्त्र में संगीत को तीन भागों में विभक्त माना है-
“गीतं वाद्यं नर्तनं च त्रयं संगीत मुच्यंते”।
अर्थात् गाना, बजाना और नाचना तीनों को संगीत कहते हैं।
इसी ग्रन्थ के अन्त में उल्लेख है ऋषियों ने संगीत को शाप दिया और उसे शूद्रों का कार्य घोषित किया।
निब्रह्यणों निराभूतः शूद्रा चारो भविष्यति।’
36।34
अर्थात् वह विज्ञ व्यक्तियों से तिरष्कृत होगा एवं शूद्रों द्वारा अपनाया जाएगा
क्षेमेन्द्र रचित कला विलास ग्रन्थ में नृत्य गीतकारों को जनता के धन का अपव्यय कराने वाला और अर्थ व्यवस्था को नष्ट भ्रष्ट करने वाला बताया है-
अर्थो नाम जनानां जीवित
मखिल क्रिया कलापस्य।
तं संहरन्ति धूर्ता
छगल गला गायका लोके॥1॥
निःशेष कमला कर कोषं अग्ध्वापि
कुमुदमास्वाद्यक्षीणा गायन भृंगा
मातंगा प्रणयतां यान्ति ॥2॥
अर्थात्-धन मानव जीवन की एक आवश्यकता है। पर बकरे के गले में लटकने वाले निरर्थक थन की तरह यह निकम्मे गायक, नर्तक उसे ऐसे ही झटक ले जाते हैं। ये लोग लक्ष्मी का भी खजाना खाली कर सकते हैं। निरन्तर फूलों का रस चूसते रहने पर भी अतृप्त ही रहते हैं। मत्त लोगों को ढूँढ़कर उनके वे मित्र बने रहने का प्रपञ्च रचते हैं।
चारुचर्या ग्रन्थ में गीत, वाद्य, विलास, व्यसनों की निन्दा करते हुए इन्हें शत्रु के समान घातक बताया गया है-
न गीत वाद्याभि रर्तिर्विलास व्यसनी भवेत्।
बीणा विनोद व्यसनी वत्सेशः शत्रुणा हतः।
उपरोक्त अभिवचनों में केवल कुत्सित संगीत की-वासना भड़काने में संलग्न कुरुचिपूर्ण संगीतकारों की ही भर्त्सना की गई है।
सत्संगीत पर इस प्रकार के आक्षेप नहीं है।
वह तो जन जीवन में भावनात्मक उत्कर्ष का ही पथ प्रशस्त कर सकता है।
संसार भर के मनीषियों ने सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने वाले संगीत की महत्ता और आवश्यकता का एक स्वर से प्रतिपादन किया है। इस प्रकार के अभिवचनों में से कुछ इस प्रकार है-
संगीत से आत्मा की मलीनता धुलती है -आवेर वेच
गहराई में उतरो तुम्हें हर पदार्थ के अन्त में एक दिव्य संगीत उभरता दिखाई देगा। -कार्लाईल
संगीत आत्मा के ताप को शान्त कर सकता है -महात्मा गाँधी
संगीत में क्रूर हृदयं को भी कोमल बनाने वाला जादू भरा पड़ा है -जेम्स वाटसन
कितने ही महामानवों ने संगीत के सम्बन्ध में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है-
संगीत मानव की विश्व भाषा है। - लाँग फैलो
संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है -शेखसादी
संगीत टूटे हुए हृदय की औषधि है -ए॰ हन्ट
संसार मुझसे चित्रों में बात करता है - मेरी आत्मा उसका उत्तर संगीत में देती है-रवीन्द्रनाथ
राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है ।
अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं|
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं।
आराधिका और राधिका शब्द मूलतः एक हैं ।
राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में वृषभानु गोप के घर हुआ ।
यादव प्रारम्भ से ही गोपालक रहे हैं ।
अत: इसी वृत्ति गत विशेषण से समन्वित यादव गोप कहे गए हैं ।
स्वयं यदु एक चरावाहे अथवा गोप के रूप में ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में वर्णित हैं। 👇
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था में शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की -परोक्ष चेष्टा की गयी ।
अहीरों को तो पुराणों और स्मृतियों में बहुतायत से शूद्र या दस्यु घोषित कर दिया ।
केवल पद्म-पुराण और हरिवंश पुराण ही गोपोंं को यादव रूप में सकारात्मक रूप में वर्णन करते हैं ।
यादवों के आदिम पूूर्वज यदु को गोप के रूप वर्णन ऋग्वेद में है 👇
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं ।
(ऋ०10/62/10/)
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति
( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की -परोक्ष चेष्टा की गयी ।
विशेष:- इस ऋचा का व्याकरणीय विश्लेषण -
उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त (घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ
वस्तुत यहाँं प्रकृति भाव सन्धि व षष्ठी तत्पुरुष समास का भाव है ।
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप ।
अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है ।
---जो एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है
---जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं ।
दास जन-जाति के विषय में ऐतिहासिक विवरण निम्न है ।👇
__________________________________________
The Dahae (दाहे) , also known as the Daae, Dahas(दहास) or Dahaeans
(Latin: Dahae; Ancient Greek: Δάοι, Δάαι, Δαι, Δάσαι Dáoi, Dáai, Dai, Dasai; Sanskrit: Dasa; Chinese Dayi 大益)
were a people of ancient Central Asia.
A confederation of three tribes –
the Parni पणि , Xanthii जन्थी and Pissuri पिसूरी
– the Dahae lived in an area now comprising much of modern Turkmenistan तुर्कमेनिस्तान .
The area has consequently been known as Dahestan, Dahistan and Dihistan.
दाहेस्तान ,दाहिस्तान , दिहिस्तान ।
present-day Turkmenistan
Branches
Parni, Xanthii and Pissuri
Relatively little is known about their way of life. For example, according to the Iranologist
A. D. H. Bivar, the capital of "the ancient Dahae (if indeed they possessed one) is quite unknown."
The Dahae dissolved, apparently,
some time before the beginning of the 1st millennium. One of the three tribes of the Dahae confederation, the Parni, emigrated to Parthia
(पार्थियन -जो आधुनिक समय में उत्तर पूर्वीईरान है ।)
(present-day north-eastern Iran),
where they founded the Arsacid dynasty.
अब आश्चर्य इस बात का है ; कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता ;
केवल भागवत महात्म्य में राधा का वर्णन है ।
यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बन्धनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई।
दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नन्द, राधा आदि गए थे।
क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं ।
राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....
परन्तु वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख है।
...राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है|
वेदों में राधा शब्द सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मण्डल १,२ ...में ...राधस् शब्द का प्रयोग हुआ है।
....जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है....
ऋग्वेद के २ मण्डल के सूक्त ३-४-५ में ..सुराधा ...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है...सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है|
पुराणों में राधा धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी है ।
ऋग्वेद-५/५२/९४..में -- राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं।
..यथा..
“ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो
गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”
अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
“गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |
" इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ०)
--ओ राधापति वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं।
उनके द्वारा सोमरस पान करो।
" विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस :
सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/७):- ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।
त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही ...(ऋग्वेद )
इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के सन्देह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं।
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : ---(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद )
राधा वह व्यक्तित्व है जिसके कमलवत् चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं।
तमिलनाडू की गाथा के अनुसार --दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादव के समकक्ष हैं |
एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे |
उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था |
तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्तीरीय संहिता के अनुसार ---विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं |
नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति ।
श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी---नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है ।
जो दक्षिण की राधा है |
एक कथा के अनुसार राधा के कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
ब्रह्मा जी ने वसुदेव कृष्ण को सर्वप्रथम देवता स्वीकार करके उनकी प्रिय शक्ति श्रीराधा को सर्वश्रेष्ठ शक्ति कहा है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आराधित होने के कारण उनका नाम 'राधिका' पड़ा।
इस उपनिषद में उसी राधा की महिमामयी शक्तियों को उल्लेख है। उसके चिन्तन-मनन से मोक्ष-प्राप्ति की बात कही गयी है।
सनकादि ऋषियों द्वारा पूछ जाने पर ब्रह्मा जी उन्हें बताते हैं कि वृन्दावन अधीश्वर श्री कृष्ण ही एकमात्र सर्वेश्वर हैं।
वे समस्त जगत् के आधार हैं।
वे प्रकृति से परे और नित्य हैं।
उस सर्वेश्वर श्री कृष्ण की आह्लादिनी, सन्धिनी, ज्ञान इच्छा, क्रिया आदि अनेक शक्तियां हैं।
उनमें आह्लादिनी सबसे प्रमुख है।
वह श्री कृष्ण की अंतरंगभूता 'श्री राधा' के नाम से जानी जाती हैं।
श्री राधा जी की कृपा जिस पर होती हैं, उसे सहज ही परम धाम प्राप्त हो जाता है।
श्री राधा जी को जाने बिना श्री कृष्ण की उपासना करना, महामूढ़ता का परिचय देना है।
श्रीराधाजी के 28 नाम
श्री राधा जी के जिन 28 नामों से उनका गुणगान किया जाता है वे इस प्रकार हैं-
1-राधा,
2-रासेश्वरी,
3-रम्या,
4-कृष्णमत्राधिदेवता,
5-सर्वाद्या,
6-सर्ववन्द्या,
7-वृन्दावनविहारिणी,
8-वृन्दाराधा,
9-रमा,
10-अशेषगोपीमण्डलपूजिता,
11-सत्या,
1सत्यपरा,
12-श्रीकृष्णवल्लभा,
13-वृषभानुसुता,
14-गोपी,
15-मूल प्रकृति,
16-ईश्वरी,
17-गान्धर्वा,
18-राधिका,
19-रम्या,
20-रुक्मिणी,
21-परमेश्वरी,
22-परात्परतरा,
23-पूर्णा,
24-पूर्णचन्द्रविमानना,
25-भुक्ति-मुक्तिप्रदा और
26-भवव्याधि-विनाशिनी।
यहाँ 'रम्या' नाम दो बार प्रयुक्त हुआ है।
ब्रह्माजी का कहना है कि राधा के इन मनोहारिणी स्वरूप की स्तुति वेदों ने भी गायी है।
जो उनके इन नामों से स्तुति करता है,
वह जीवन मुक्त हो जाता है।
यह शक्ति जगत् की कारणभूता सत, रज, तम के रूप में बहिरंग होने के कारण जड़ कही जाती है।
अविद्या के रूप में जीव को बन्धन में डालने वाली 'माया' कही गयी है।
इसलिए इस शक्ति को भगवान की क्रिया शक्ति होने के कारण 'लीलाशक्ति' के नाम से पुकारा जाता है।
इस उपनिषद का पाठ करने वाले श्रीकृष्ण और श्रीराधा के परम प्रिय हो जाते हैं और पुण्य के भागीदार बनते हैं।
वर्तमान कतिपय विद्वान् 'राधा' का अर्थ 'कृषि' से भी लगाते हैं, किन्तु यह उपनिषद का विषय नहीं है।
प्रेम के लिए अंग्रेजी भाषा में प्रचलित शब्द (love) का प्रयोग हमारी संस्कृति में असंगत व यथार्थ भाव का बोधक नहीं है।
यद्यपि साहित्य मनीषीयों ने ईश्वर विषयक रति को भक्ति और सन्तान विषयक रति को वात्सल्य तथा प्रेमी विषयक रति को ही श्रृँगार या स्थायी भाव काम कहा है
यूरोपीय भाषाओं में
(love)लव तो केवल लोभः और वासना का विशेषण है
उसमें प्रेम के जैसी आध्यात्मिक आत्मीय भावना कहाँ ! इसी विषय पर हमारा एक अल्प प्रयास ।
....
लव केवल यह पाश्चात्य संस्कृति का वासनामयी प्रदूषण ही है, जिसके आवेश में धूमिल-विचारक किशोर- वय विद्या की अरथी को वहन करने वाला विद्यार्थी होकर भी दिग्भ्रमित है।
यूरोपीय लव में त्याग और समर्पण का भाव ही नहीं हैं । परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
पाश्चात्य संस्कृति में "प्रेम - लोभ व वासना का अभिव्यञ्जक हो गया है ।
तैरहवीं शताब्दी में कबीर सदृश महान आध्यात्मिक सन्त भी " कहते हैं कि "
पोथी पढ़ पढ़ जग मरा भया न पण्डित कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय"
कबीर का प्रेम वासना का वाचक नहीं है।
वह तो भक्ति का अभिभासक है ।
वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव ( Love) शब्द संस्कृत भाषा में लुभःअथवा लोभः के रूप में प्रस्तावित है।
क्योंकि संस्कृत भाषा भारोपीय भाषा परिवार की शतम् वर्ग की भाषा होने से ग्रीक और लैटिन भाषा की बड़ी बहिन है ।
संस्कृत भाषा में लगभग 80℅ अस्सी प्रतिशत मूल तथा सांस्कृतिक शब्द यूरोपीय भाषाओं के सदृश हैं ।
________________________________________
लव शब्द जो कि लैटिन में लिबेट( Libet )तथा लुबेट (Lubet) के रूप में विद्यमान है । ..जिसका संस्कृत में रूप है :-- लुब्ध ( लुभ् क्त ) भूतकालिक कर्मणि कृदन्त रूप व्युत्पन्न होता है।
संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है :- (काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना) .
. वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ दिखाई देता है ,
परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि ही है ।
अंग्रेजी भाषा में यह शब्द (Love )लव शब्द के रूप में है ।
तथा जर्मन में लीव (Lieve) है , तो ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में (Lufu )
लूफु के रूप में है ।
यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में प्रेम के नाम पर वासना का उन्मुक्त ताण्डव है ।
वहाँ प्रेम के नाम पर इन्द्रिय-सुख मात्र है ।
जबकि प्रेम निःस्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है, प्रेम तो भक्ति है ।
जबकि भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।
इन्हीं सन्दर्भों में राधा और कृष्ण का जीवन चरित हमारी विवेचना का विषय है ।
सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में - ________________________________
राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी । यह शब्द वेदों में भी आया है ।👇
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् अच् । टाप् ):- अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है वह राधा है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है ।👇 _____________________________________
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।।
(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।
_______________________________________
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/७)
_________________________________________________
सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा स्वरूप ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सवितारं (सबको जन्म देने वाले) प्रभु हमारी रक्षा करें
हम उनका आह्वान करते है।
________________________________________________
त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) _________________________________________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें।
जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।
त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) ________________________________________________
अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण "अग्नि" के सदृश् गमन करने वाले हैं।
ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !
उपर्युक्त इन दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया है ।
श्रीमद्भगवद् गीता वेदों की अनोपयोगिता विषय में स्पष्ट उद्घोष करती है ।
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके .
तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45)
श्रीमद्भगवद् गीता (2/46)
----हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं
अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को त्याग कर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो !
जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त कर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53)
जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है।
समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;
उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।
अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मषु कौशलम्" तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय।
सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा
समत्वं योग उच्यते।।
ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग
( मध्य मार्ग)
महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।
जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं
एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा
अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ;उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं।
अष्टाध्यायी के ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिं’ इस सुप्रसिद्ध सूत्र के अनुसार जो परलोक और पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को स्वीकार करता है
वह आस्तिक है ।
और जो इन्हें नहीं मानता वह नास्तिक कहाता है। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।
प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
‘
अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।
श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
वहाँ उन्होंने कहा है–भिक्षुओं !
कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ;
जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है—
“मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करने वाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था।
सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ।
वहां भी मैं इस नाम का था। सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।“ इत्यादि।
अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है।
श्लोक है-👇
’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि।
सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।‘
इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले!
मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
इस पर टिप्पणी करते हुए पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है।
जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे।
स्वर्ग नरक यद्यपि मन के उन विकल्पों के काल्पनिक प्रतिरूप है ।
जो जड़ता और चेतना के संवाहक होते हैं ।
भौगौलिक रूप से उत्तरीय ध्रुव का हेमर पास्त के समीप वर्ती स्वीडन ही स्वर्ग है ।
और नहीं की दक्षिणा वर्ती नेरके नारको आदि नरक हैं ।
धीरे धीरे जब देव-संस्कृति के लोग भूमध्य रेखीय स्थलों पर आये तो तब भी दक्षिणा वर्ती या दक्षिणीय ध्रुव को नरक नाम दे दिया ।
महात्मा बुद्ध के आस्तिक होने से संबंधित अगला प्रश्न यह है कि क्या वह अनीश्वरवादी अर्थात ईश्वर में विश्वास न रखने वाले थे?
यदि वे पूर्ण रूपेण परम् सत्ता को स्वीकार नहीं करते तो वे नैतिक मूल्यों को प्रतिपादित नहीं करते ।
क्यों कि जब कुछ है ही नहीं तो पाप करने में डर किसका ?
महात्मा बुद्ध ने जीवन पर्यन्त मन के शुद्धिकरण
के लिए तपश्चर्या की यदि ईश्वरीय तथा आत्मीय सत्ता को बुद्ध अस्वीकार करते तो क्या वे नैतिक पाठ अपने शिष्यों के पढ़ाते ?
सायद कदापि नहीं
यदि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है ,
तो क्यों बुद्ध ने सत्याचरण को जीवन का आधार बनाया ?
बुद्ध ने जीवन का स्वरूप इच्छाओं को स्वीकार किया ।
इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है ।
वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है ।
जो आत्मा का स्वभाव है ।
संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं ।
अन्त में हम अपने भावोद्गारो को इन पक्तियों मे अभिव्यक्त करते हैं ।👇
---------------------------------------------------------------
ये शरीर केवल एक रथ है ।
आत्मा "रोहि "जिसमें रथी है ।
इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े ।
बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।
मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?
लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
यहाँ मञ्जिलों से पहले ही दुर्गति है ।।
---------------------------------------------------------------
अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है !
मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा ,
केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है !
अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!
अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं ।
जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं ।
अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ;
तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है।
यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है।
मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है।
मनैव मनुष्य: मन ही मनुष्य है;मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है ।
मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है ; उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ;
अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं।
उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है।
_______________________________________________
सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत है ।
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है ।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है ।
और आत्मा प्राणी जीवन की ,
इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं!
🌞
सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान है।
और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होना भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।
..मैं योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ,
जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप
प्राप्त किए हैं।
...इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषिदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ
श्री-मद्भगवद् गीता तथा कुछ उपनिषदों के श्लोकों को उद्धृत किया है।
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही एक अंग है
जिसे महाभारत में पाँचवीं सदी में
सम्पृक्त किया गया है
परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा रचा गया।
कोई भी प्रति महाभारत की दसवीं सदी से पूर्व की नहीं है ।
महाभारत के आदिपर्व में महात्मा बुद्ध का वर्णन है ।
गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।
वह कृष्ण के मत के बहुतायत से अनुमोदक अवश्य है ;
परन्तु कुछ वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने कुछ प्रक्षिप्त श्लोक संलग्न कर दिए हैं ।
श्रीमद्भगवद् गीता का निर्माण पाँचवीं सदी में रची
_______________________________________
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥
(श्रीमद्भगवद् गीता 17/23 )
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्" (वह), "सत्" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)
परन्तु शंकराचार्य के गीता भाष्य को देखिए👇
ओ३म् ,तत् सत् यह तीन प्रकार का -ब्रह्म का निर्देश ( संकेत) है ।उस ब्रह्मा ने ब्राह्मण , वेद और यज्ञ पैंदा किए ( विहिता: निर्मिता इति शंकर:)
इस का भावार्थ यही है कि ब्राह्मण सृष्टि के आरम्भ में वेदों और यज्ञों के साथ बनाए अब -परोक्ष व्यञ्जनात्मक शैली में यही अर्थ प्रकट है
कि ब्राह्मण जन्म से होता है ।
👉👉👉👉 👈👈👈👈
श्रीमद्भगवत् गीता का निम्न श्लोक भी प्रक्षिप्त है ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ 35
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है।
अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है
और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥
व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है।
आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है।
जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है।
कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है।
इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है।
सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है।
ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।
इस श्लोक को बड़ी चतुराई से वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने धर्म के नाश का भय बता कर साधारण जनता को ब्राह्मणों के अनुसार रहने की हिदायत दी है ।
रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने यह श्लोक कृष्ण के सिद्धान्तों के नाम पर समायोजित किया है।
अब विचारणीय तथ्य यह है कि यह बौद्ध कालीन स्थितियों को इंगित करता है ।
यद्यपि धर्म शब्द यूनानी तथा रोमन संस्कृतियों में क्रमश तर्म और तरमिनस् (Term )(Terminus ) के रूप में विद्यमान है ।
टर्मीनस् रोमन संस्कृतियों में मर्यादा का अधिष्ठात्री देवता है ।
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस (Terminus) की पूजा सबीन जन-जाति के मूल की थी
जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के ई० पू० 753 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं ।
संस्कृत साहित्य में सन्दर्भित गुप्त कालीन
अमरकोश में धर्म शब्द का अर्थ प्रासंगिक है ।
धर्म पुंल्लिंग और नपुंसकलिङ्ग रूप ।
धर्मः
समानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण
1।4।24।1।1
स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः।
मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥
आचारः
समानार्थक:धर्म,समय Time / Term
3।3।139।1।1
धर्म पुंल्लिंग वैदिक भाषा में धर्म शब्द है ।
कर्मकाण्डीय नियम, भा.श्रौ.सू. 7.6.7
(ये उपभृतो धर्मा.....पृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); देखें-7.6.9 में ‘स्रुवधर्म’, ‘पयोधर्म’।
ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।
धर :- पहाड़, धरा ।
धर्म की परिभाषा :- किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव, नित्य नियम ।
जैसे, आँख का धर्म देखना, सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना ।
विशेष—ऋग्वेद में (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है
यह अर्थ सबसे प्राचीन है । 💥🌸
किसी मान्य ग्रन्थ में, आचार्य़ या ऋषि द्बारा निदिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति के अर्थ किया जाय ।
वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।
जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।
विशेष—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है ।
जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।
संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है ।
वस्तुत कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करने वाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।
यद्यपि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था ।
वह कर्म जिसका करना किसी सम्बन्ध स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो
वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिय़े करना चाहिए ।
किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार ।
अर्थात् वर्ण-व्यवस्था मूलक समाज की कार्य-प्रणाली या आचरण रूढ़िवादी ब्राह्मणों की दृष्टि में धर्म है ।
जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।
विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद के लिये तीनों वणों की सेवा करना ।
जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्बारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्बर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है ।
इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गुह्स्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है ।
जैसे व्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि ।
गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि ।
यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए ।
दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं ।
जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना ।
जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना ।
निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय ।
जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्द करने पर प्रायश्चित करना ।
इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है । ५. वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो ।
विशेष—स्मृतिकारौ ने वणं, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना । ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आलश्यक है । मनु ने वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—
धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चारी न करना), शौच इंद्रिथनिग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध ।
मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है । वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती ।
मनु ने कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रंक्षा करता है ।
अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतिय़ों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, यहाँ तक कि परलोक आदि पर विश्वास न रखनेवाले योरप के आधिभौतिक तत्ववेत्ताओं को भी समाज की रक्षा के निमित्त इस समान्य धर्म का स्वीकारक करना पड़ा है । उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है ।
बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है ।
जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।
पुंलिंग
समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य;
पुंलिंग
मज़हब (रिलिजन)।
तर्मन् नपुं।
यूपाग्रम्
समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन्
2।7।19।1।2
यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥
अवयव : यूपकटकः
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, अचलनिर्जीवः, अचलनिर्जीववस्तु
शब्दसागरः
तर्मन्¦ n. (-र्म) The top or term of the sacrificial post. E. तॄ to pass up, and मनिन् aff.
Apte
तर्मन् [tarman], n. The top of the sacrificial post.
Monier-Williams
तर्मन् n. " passage "See. सु-तर्मन्
तर्मन् m. n. the top of the sacrificial post( cf. Lat. terminus) L.
तर्मन् तर्य See. p. 439 , col. 2.
(तरतीति । तॄ “सर्व्वधातुभ्यो मनिन् ।” उणां ४ । १४४ । इति मनिन् ।) यूपाग्रम् । इत्यमरः । २ । ७ । १९ ॥
तर्मन् a. good for crossing over; सुतर्माणमधिनावं रुहेम Ait. Br.1.13;
(cf. also यज्ञो वै सुतर्मा)..
ययाऽति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेमेति यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा ...
अंग्रेज़ी में Term के अनेक अर्थ हैं ।👇
अवधि
पद
समय
शर्त
सत्र
परिभाषा
ढांचा
सीमाएं
बेला
मेहनताना
फ़ीस
मित्रता
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं ।
गीता कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं।
कृष्ण द्रविड संस्कृति के नायक थे ।
यह तथ्य अटपटा अवश्य लग सकता है परन्तु यही सत्य है;जिन्हें चतुर ब्राह्मणों ने कृष्ण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें अपने -ग्रन्थों में युग-- पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित किया ।
और ब्राह्मण हित मूलक मत कृष्ण पर आरोपित करके इस प्रकार वर्णित किए हैं; कि उसमें कुछ भी कृत्रिम अनुभव न हो ।
__________________________________________
कृष्ण चमत्कारी पुरुष थे ,और इनका जन्म गोप अथवा आभीर जाति में हुआ था ।
--जो यादवों के क्रमश वृत्ति गत और प्रवृत्ति-गत विशेषण थे ।
ब्राह्मणों ने कालान्तरण में यादवों को केवल व्यवसाय गत विशेषणों से ही सम्बोधित किया ।
परन्तु स्वयं को वंशगत विशेषणों से ही सम्बोधित किया
अब आप समझिए कि एक चतुर्वेदी ब्राह्मण का बेटा
किसी भी वेद की मण्डल या सूक्त तो दूर की बात ऋचा भी न जानता हो फिर भी रूढ़िवादी अन्ध-भक्त उन जाहिलों को पण्डित जी , चौबे जी या चतुर्वेदी ही कहते हैं ।
क्यों कि ब्राह्मण तो जन्म से ही पैदा होते हैं ।
______________________________________