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मैं कौन खामखां !

24 जुलाई 2019

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सही कहा है किसी समझदार ने कि अपने तो फिर जी लेने दें लेकिन समाज में ' मैं कौन खामखां ' की मानसिकता वाले जान लेकर ही मानना चाहते हैं।

माता-पिता भले ही मान लें-संतान बालिग है, अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र है। जहां रहे खुश रहे । संतान ने भी सार्वजनिक रूप से माफ करने की गुहार लगा ली हो। भले ही अपने किए को तर्कसंगत मानते हुए।

विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि 'खामखां' बनकर गालियां देने और कोसने से क्या हासिल होगा। कुलटा, नाक कटाने वाली और न जाने क्या-क्या कहना क्या सचमुच जरूरी और शोभनीय है?

किसी भी कारण से सही यदि अपना गैर भी लगने लगे तो भी किसी माता-पिता और परिजन को दूसरों के द्वारा अपनों को गाली देना कभी बर्दाश्त नहीं होता। उनकी विवश चुप्पी समर्थन नहीं होती।

पितृसत्तात्मक अहंकारी सोच ((जिससे कितनी ही नारियां भी डसी लगती हैं) किसी को भी न‌ अपने से ऊपर समझती है और न ही संवेदनशील होती है।

पीड़ित (वह चाहे कोई हो, किसी भी पक्ष का) के जख्मों पर नमक छिड़कना कितना जायज है, मनुष्यों और रिश्तों को वस्तु समझने वाले कब समझेंगे।

- दिविक रमेश


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