*मानव जीवन मे
धर्म और अधर्म का बहुत बड़ा महत्व है | धर्म का पालन करके मनुष्य समाज में सम्मान तो प्राप्त करता ही है अन्त में वह उत्तम गति को भी प्राप्त हो जाता है वहीं अधार्मिक मनुष्य समाज में उपेक्षित रहकर अधोगति को प्राप्त होता है | वैसे तो धर्म करने के अनेक साधन हैं परंतु धर्म के मुख्यत: चार प्रकार कहे गये हैं ! दान , शील , तप एवं भाव , इनमें भी मुख्य है भाव | किसी भी धार्म्क कृत्य में भाव की ही प्रधानता होती है | भाव के न होने पर दान , शील एवं तप भी निरर्थक ही होते हैं | पूजा , पाठ , जप - तप , संयास , वैराग्य , मान - अपमान , सिद्धि आदि में भाव की प्रमुख भूमिका है | भाव की प्रधानता से ही धर्म धर्म बनता है | यह भाव की प्रधानता है कि पत्थर की मूर्तियों में भगवान प्रकट हो जाते हैं | भक्त प्रहलाद ने भगवान का दर्शन कभी नहीं किया था परंतु उसका भाव था कि ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है | इसी भाव से उसने अपने पिता दैत्यराज हिरणाकश्यप से कहा था कि "खम्बे में भी ईश्वर है" और उसी खम्भे से भगवान नरसिंह का प्राकट्य हो गया | यदि मनुष्य की भावना पवित्र एवं सकारात्मक है तो उसे उसकी भावना के अनुरूप ही फल प्राप्त होता है | प्रत्येक प्राणी ईश्वर का ही अंश है ऐसा हमारे सभी धर्मग्रंथों में वर्णन मिलता है | इसी भाव से मनुष्य अपना धर्म पालन करता चला आ रहा है | भगवान वेदव्यास नारायण के अंशावतार थे उन्होंने संसार के प्राणियों को वेदों के दुर्लभ
ज्ञान को सुगम बनाने के लिए पुराणों की रचना की | कथाओं का आयोजन आदिकाल से होता चला आ रहा है व्यास गद्दी पर बैठने वाले व्यास को नारायण के भाव से देखने वालों का कल्याण होता रहा है | कथा व्यास के भाव भी यजमान के लिए कल्याणकारी ही रहा करते थे | भाव की प्रधानता ही धर्म को प्रधान बनाता है | यदि भाव नहीं है तो कोई भी धार्मिक कृत्य दिखावा ही बनकर रह जाता है | इसीलिए हमारे मनीषियों ने भाव की प्रधानता प्रतिपादित की है |* *आज के अर्थप्रधान युग में धर्म नीलाम हो रहा है | धर्म के प्रत्येक साधनों को धन से तोला जाने लगा है | मनुष्य द्वारा आज अनेक धार्मिक कृत्य तो किये जा रहे हैं परंतु उन कृत्यों में धन की प्रधानता एवं भाव की शून्यता ही देखने को मिलती है | आज यदि यजमान अपने यहाँ कथाओं का आयोजन करता है तो मोक्ष की भावना कम और भव्यता दिखाने की भावना अधिक ही होती है | आज इस भावना से पवित्र व्यासगादी भी अछूती नहीं रह गयी है | आज जहाँ यजमान की भावना परिवर्तित हुई है वहीं कथाव्यास भी बहुरंगी हो गये हैं | व्यास गादी पर विराजमान कथाव्यास में आज न तो यजमान नारायण का दर्शन कर पा रहा है और न ही कथाव्यास की भावना ही नारायण वाली रह गयी है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह कह सकता हूँ कि आज
देश का उद्धार नहीं अपितु अध:पतन हो रहा है | आज मनुष्य अनेक प्रकार भोतिक साधनों का संग्रह तो कर रहा है परंतु धर्म के साधन कम होते जा रहे हैं | धर्म के साधनों के कम होने का मुख्य कारण यह है कि आज का मनुष्य मौज मस्ती में ही सारा जीवन व्यतीत कर देता है | मोक्ष पाने की भावना के दर्शन बहुत मुश्किल से हो रहे हैं | जब तक मनुष्य में किसी भी कर्म , धर्म , या वस्तु में भावना की प्रधानता नहीं होगी तब तक सारे कृत्य व्यर्थ ही हैं |* *धर्म - अधर्म सदैव भावों की निर्मलता पर ही निर्भर होते हैं | भावों की प्रधानता पर ही परिणाम भी प्राप्त होते हैं | जिस कर्म में भाव न हो वह अधार्मिक ही हो जाता है अत: भाव की प्रधानता महत्वपूर्ण है |*