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नेताओं ने राजनीति के लिए अल्लाह और राम को बना दिया ब्रांड एबेंजडर

30 जुलाई 2019

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नेताओं ने राजनीति के लिए अल्लाह और राम को बना दिया ब्रांड एबेंजडर

मॉब लिंचिंग के नाम पर सेकी जा रहीं राजनीतिक रोटियां

पहले असहिष्णुता और अब मॉब लिचिंग बनें शब्दों के हथियार

लोकतंत्र के मंदिर में याद किये जा रहे है अल्लाह और राम

कहीं असहिष्णुता का नया मुखौटा मॉब लिचिंग तो नही?

हर बार राजनीति की पाठशाला से ही क्यों निकल कर आते है ऐसे शब्द?

हर घटना को दिया जा रहा मॉब लिंचिंग का नाम

ऐसी घटनाओं के लिए मीडिया का एक समूह क्यों रहता है उत्तेजित?

फेम पाने का नया शॉटकर्ट: जय श्री राम और अल्लाह ओ अकबर?

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आज हम चर्चा कर रहे हैं राजनीती कीं पाठशाल से उपजे नये शब्द मॉब लिंचिंग की। जी हां, क्या होता है मॉब लिचिंग? क्या इस शब्द का किसी धर्म या मजहब से कोई लेना-देना है? अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप गलत हैं, क्योंकि कुछ धर्म के ठेकेधार और मीडिया के कुछ अत्यंत जागरूक लोगों ने अपनी स्वार्थ, ठेकेदारी, फेम और टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इस शब्द का धार्मिक तुष्टीकरण कर दिया है। पिछले कुछ दिनों में हमने यह शब्द अखबारों का लीड बनते देखा है। न्यूज चैनलों में छाया रहा और कुछ माननीय नेताओं की जुबान से बरसते रहा है। यहां तक कि लोकतंत्र के मंदिर में भी यह शब्द गूंज रहा है। अगर मॉब लिचिंग की पारिभाषा पर गौर करें, तो यह किसी धर्म या संप्रदाय से नहीं जुड़ा, लेकिन इसका इस्तेमाल ही ऐसा हो रहा है कि इसकी परिभाषा बदलती जा रही है। मॉब लिचिंग को किसी धर्म या मजहब के आधार पर पारिभाषित कर उसे समाजिक सौहार्द्र बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाा गलत है। कुछ लोग अपना निजी स्वार्थ साधने के लिए मॉब लिचिंग शब्दबाण का इस्तेमाल कर रहे हैं।


मॉब लिंचिंग का किसी धर्म या संप्रदाय से कोई लेना देना नहीं

बिना किसी व्यवस्थित न्याय प्रक्रिया के, किसी अनौपचारिक अप्रशासनिक समूह द्वारा की गयी हत्या या शारीरिक प्रताड़ना को मॉब लिचिंग कहा जाता है। इस शब्द का उपयोग अक्सर एक बड़ी भीड़ द्वारा अन्यायिक रूप से कथित अपराधियों को दंडित करने के लिए या किसी समूह को धमकाने के लिए, सार्वजनिक हत्या या अन्य शारीरिक प्रताड़ना को चिह्नित करने के लिए उपयोग किया जाता है। यहां एक बात गौर करने वाली बात है कि इसमें कहीं भी धर्म या मजहब शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। अब आप और हम उन समाज के ठेकेदारों, जो मॉब लिचिंग को धर्म या मजहब के चश्में से देखते हैं, उनसे यह सवाल कर सकते है कि क्या आप सही है? शायद उनके पास कोई जवाब ना हो या उनके पास कोई बेतुका जवाब हो, तो आश्चर्य नही होना चाहिए। यह सवाल उनकी दुकानदारी पर अंगुली उठानेवाला है, इसलिए उनका तिलमिलाना भी वाजिब है।

तेजी से बढ़ी हैं ऐसी घटनाएं

यह जानकर हैरानी होगी कि पिछले कुछ माह में इस तरह की दर्जनों चर्चित घटनाएं सामने हुईं, जिन्हें मॉब लिंचिंग नाम दे दिया गया। इन सभी घटनाओं में एक चीज कॉमन है कि ये सभी भीड़ द्वारा अंजाम दी गयीं। लेकिन कुछ मीडिया और नेता इन्हें अलग- अलग चश्मों से देखते है। उनके पास जो शब्दकोष है, शायद उसमे मॉब लिचिंग की परिभाषा कुछ अलग ही है। उनके अनुसार मॉब लिंचिंग तब होती है, जब पीडित कोई विशेष धर्म का हो। वे चिल्ला-चिल्ला कर अपनी वाली मॉब लिंचिंग का प्रसार करते हैं। यदि पीड़ित विशेष धर्म का न हो, तो वे मामूली सी खबर चला देते हैं कि भीड़ ने एक व्यक्ति को मार डाला। उन्हें यह अच्छी तरह से पता होता है कि इससे न तो उनकी टीआरपी बढ़ेगी और ना उनका नाम होगा। अखबारों और चैनलों में में किसी पिछले पन्ने पर कहीं कोने में दो लाइन में खबर समाप्त या फिर हेडलाइंस में जिक्र करके न्यूज का दी एंड।

अब तो आलम यह है कि अगर आप मॉब लिचिंग शब्द का प्रयोग कही गलती से कर दें, तो यही मीडिया और धर्म के कुछ ठेकेदार बिना खबर को पढ़े और समझे विशेष धर्म की दुहाई देने लगते हैं। साफ-साफ उनकी शब्दों में कहें तो मॉब लिंचिंग पर सिर्फ और सिर्फ विशेष धर्म का कॉपीराइट हो गया है। अब उन्हें कौन समझाये कि मॉब मतलब भीड़ होती है और भीड़ की कोई धर्म नही होता।

अपने आस-पास के लोगों से पूछे की मॉब लिंचिंग क्या होती है, तो मालूं होगा कि ये मीडिया वाले और नेता कितने अच्छे शिक्षक है। जिन्होंने कुछ ही दिनों में समाज को यह पाठ पढ़ा दिया कि मॉब लिंचिंग का मतलब किसी धर्म विशेष की भीड़ द्वारा किसी विशेष धर्म से जुड़े व्यक्ति की हत्या या पिटाई होती है।


मॉब लिचिंग के नाम पर क्यों सेकी जा रही है राजनीतिक रोटियां

हमारे देश में एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग है, जिसने ऐसी घटनाओं को हवा देना का ठेका ले रखा है। वैसे तो ये कुम्भकर्ण की तरह ना जाने कहा सोये रहते हैं, लेकिन जैसे ही ऐसी कोई घटना देश तो क्या विश्व के किसी भी कोने में घटती है, तो इनके कान खड़े हो जाते है। फिर जाग जाते हैं और लोकतंत्र की दुहाई देकर हंगामा शुरू कर देते हैं। सड़कों पर रैलियां, नारेबाजी, आगजनी, तोड़फोड़, कैडल मार्च का दौर शुरू हो जाता है। यह देख कर आम लोगों के मन में कभी - कभी एक ही आवाज उठती है : साइमन गो बैक। अब साइमन कहा से आ गया, यह सोचनेवाली बात है। हमे आजाद हुए 70 साल हो गये। अंग्रेजों को हमने 70 साल पहले ही खदेड़ दिया, लेकिन आज अचानक जहन में साइमन और इंकलाब वाली फीलिंस क्यों आने लगी। हम तो आजाद भारत में सांस ले रहें है। हम तो उस धरती पर है जहां रमजान में राम और दिवाली में अली का नाम आता है। यहां सरकार भी हमारे द्वारा ही चुनी जाती है। तो फिर सवाल उठता है कि यह सब रैलियां, नारेबाजी, आगजनी, तोड़फोड़ आखिर किसके खिलाफ। सोचिये सरकार हमारी, लोग हमारे, देश हमारा, शहर हमारा, समाज हमारा, तो फिर दोष किसका?

जी हां दोष हमारा है। यहां दोषी भी हम और पीड़ित भी । ऐसी घटना को अंजाम देने वाले लोग भी हमारे जैसे ही है और हमारे ही समाज में ही रहते हैं। पीड़ित भी हमारे और आपके बीच के हैं। लेकिन हम और आप जैसे ही कुछ लोग कुछ चंद नेताओं के बहकावे में आकर उस मॉब का हिस्सा बन जाते हैं और अनजाने में ऐसी घटनाओं को अंजाम दे बैठते हैं। इसके बाद समाज जल उठता है और उसकी आंच में ये नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने लगते है और इनकी दुकान चलने लगती है।


पहले असहिष्णुता और अब मॉब लिंचिंग

सोचनेवाली बात है, मॉब लिंचिंग नया शब्द नहीं है। फिर अचानक यह शब्द इतना प्रचलित कैसे हो गया। अगर पिछले साल की बात करें तो आपको याद होगा कि इसी तरह से एक शब्द असहिष्णुता प्रचलित हुआ था। सड़क से लेकर सदन तक इसकी गूंज सुनायी पड़ती थी। आज भी ठीक उसी तरह मॉब लिंचिंग भी सड़क से लेकर सदन में चर्चा का विषय बना हुआ है। कहीं असहिष्णुता का नया मुखौटा मॉब लिंचिंग तो नही कभी -कभी तो ऐसा लगता है कि कहीं मॉब लिंचिंग असहिष्णुता का नया मुखौटा तो नहीं। असहिष्णुता की रट लगाने वाले कई लोगों को तो उसका मतलब तक पता नहीं था। उसी तरह आज भी मॉब लिंचिंग का मतलब ज्यादातर लोग नहीं जानते। समाज के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए तो यह शब्द संजीवनी जैसा है। ये शब्द उनकी जुबान पर आते ही, वे ज्ञान का प्रवचन देने लगते हैं। उनके ज्ञान के इस सागर में समाज के कई लोग बह जाते हैं और समाज को अशांत कर देते हैं।


हर बार राजनीति की पाठशाला से ही क्यों निकल कर आते है ऐसे शब्द

बहुत मुस्किल से असहिष्णुता से पिंड छुटा था कि मॉब लिंचिंग आ गया। सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसे शब्दों के जन्मदाता कौन हैं। राजनीति की वह कौन सी पाठशाला है, जहां से ऐसे शब्द बार-बार वायरस की तरह फैल जाते हैं। आखिर उस पाठशाला के अध्यापक और प्राचार्य कौन हैं? देखा जाये, तो हमारे देश में कुछ राजनीतिज्ञ ही हैं,जो इस पाठशाला को अपने कर कमलों से चलाते हैं। इन्ही की पाठशाला में तो असहिष्णुता और मॉब लिंचिंग की नयी परिभाषा लिखी जाती है। उनके ज्ञान का यह प्रवाह कुछ लोगों के मस्तिक में घर कर जाता है और समाज को बदनाम किया जाता है। अगर उनकी यह पाठशाला बंद हो गयी, तो वे नेता किस काम के। समाज अगर शांत हो गया, तो उन्हें पूछेगा कौन। अगर वे हंगामा नहीं करेंगे, तो उनकी पाठशाला कैसे चलेगी, उन्हें वोट कैसे मिलेंगे। वे एमपी, एमएलए और मंत्री कैसे बनेंगे। इसलिए शायद लोकतंत्र के मंदिर में भी यह लोग इन शब्दों को इस्तेमाल कर अपनी पाठशाला को प्रमोट करने लगते हैं।



हर घटना मॉब लिचिंग ही क्यों?

तबरेज के साथ मॉब लिचिंग और वहीं विकास को भीड़ ने मारा। झारखंड में हुई दो घटनाएं बड़ा उदाहरण हैं। पहली घटना है, तबरेज की हत्या और दूसरी, रांची में विकास पर कातिलाना हमला। दोनों घटनाओं में पीड़ित आम इंसान है। एक ही देश का है। तो दोनों घटनाओं में क्या फर्क है। एक मॉब लिचिंग और दूसरा भीड़ का शिकार क्यों। ध्यान से पढ़िये एक तबरेज है और दुसरा विकास। उक्त पाठशाला के शिक्षक और छात्रों की बात करें, तो तबरेज के साथ मॉब लिंचिंग हुआ था और विकास के साथ कभी भी मॉब लिचिंग नहीं हो सकता। आप तो समझदार है अब तक तो समझ ही चुके होंगे। अब आप ही बतायें की दानों के साथ क्या हुआ। इन घटनाओं में दोनो के साथ गलत हुआ और इसमें शामिल सभी दोषियों को सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन दोनों पाड़ितों के साथ समाज भेदभाव करें वह भी तो सही नहीं। इन दोनों घटनाओं में दोषी भीड़ ही है, तो तबरेज और विकास में फर्क क्यों।


ऐसी घटनाओं के लिए मीडिया का एक समूह क्यों रहता है उत्तेजित?

फेम पाने का नया शॉटकर्ट: जय श्रीराम और अल्लाह हू अकबर?

पिछले कुछ महीनों की बात करें तो ज्यादातर न्यूज चैनलों में कुछ लोग एक- दूसरे पर चिल्लाते नजर आते है। एक दूसरे पर आरोप लगाते दिखायी पड़ते हैं। कोई बोलता है कि जय श्रीराम बोलों और कोई कहता है, कि अल्ला हू अकबर बोलो। कौन होते हैं ये लोग। क्या करते है। किसी को पता तक नहीं होता और जब भी ऐसी कोई घटना होती है, तो न जाने यह लोग कहां से अवतरित हो जाते है। अगर आप गौर से इनकी बातों को सुनेंगे, तो आपके नसों में खून तेजी से दौड़ने लगेगा, अंग-अंग फड़कने लगेगा और समाज का हर दूसरा आदमी दुश्मन लगने लगेगा। शायद उस दिन नींद ना आये, और इसी दौरान आप मोबाइल पर फेसबुक खोल लेते है, और धार्मिक टिप्पणी करने पर मजबूर हो जाते हैं। इसी चक्कर में कुछ उत्तेजित करने वाले पोस्ट भी मोबाइल स्क्रीन पर नजर आते है और उसमें लिखा होता है अगर सच्चे हिंदू या मुस्लिम हो तो शेयर करों। यह देखते ही कइयों की उंगलियां शेयर करने के लिए हिलने लगती है और वे शेयर कर अपनी भड़ास निकालने लगते हैं। उस समय नहीं देखते कि इस पोस्ट का समाज पर क्या असर होगा और इस पोस्ट से कहीं किसी की भावनाओं को ठेस तो नहीं पहुंच रही है। लेकिन उस समय सामने न्यूज चैनलों में अवतरित महानुभाओं की वाणी मन-मस्तिष्क पर हावी रहती है।

देखते ही देखते पोस्ट पर लाइक और कमेंट सेक्शन में धार्मिन नारों की बाढ़ आ जाती है। चंद दिनों में ही आप मशहूर हो जाते हैं। घरों पर ऐसे शिक्षक और मीडिया का पहुंचना शुरू हो जाता है। धर्म के कुछ रक्षक भी साथ में खड़े हो जाते हैं। दो दिन तक वे आपको टीवी स्क्रीन पर दिखा-दिखा कर अपनी टीआरपी बटोरेंगे और कुर्सी पर बिठा आपको नेता जैसा फील करायेंगे और फिर भुला देंगे।

भगत सिंह और अस्फाक जय श्री राम और अल्ला हू अकबर में बंध कर रह जाते, तो शायद हम आज आजाद ना हो पाते। जैसे ही हमने राम और रहीम को अलग माना, इन लोगों ने भारत और पाकिस्तान बना डाला।


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31 जुलाई 2019

प्रियंका शर्मा

प्रियंका शर्मा

दोषी भी हम और पीड़ित भी, बिलकुल सहमत हूँ , आपको ये लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएं भी देती हूँ , समाज को आपकी इस जानकारी की आज बहुत ज़रूरत है . और देश बाट कर , भगवान बाट कर , ये सब कर के नुकसान किसका हुआ , ये बहुत बड़ी बात है . आख़री 2 लाइन्स , लेख को पूरा कर देती है , और हमें शर्मिन्दा होने पे मजबूर करती हैं .

31 जुलाई 2019

anubhav

anubhav

ईश्वर के नाम पर राजनीति करना बहुत गलत है, खुद लड़े-मरें लेकिन भगवान या अल्लाह को बीच में लाना उन्हें ठेस पहुंचाने के समान है।

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