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योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है ; इसीलिए योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय अथवा एकता अपेक्षित है ।
तृतीय चरण की प्रस्तुति ...
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योग’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप से है ।
इस चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से ही योग शब्द निष्पन्न होता है।
इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।
और चित्त की वृत्ति क्या हैं ?
अर्थात्- चित्त का व्यापार ।
वस्तुत यह मन की ही चञ्चलता है
--जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है।
योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं निम्न प्रकार से हैं।
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१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध।
चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) से है ;
जो स्वभाव जन्य हैं ।
साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है :--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन)
की शक्ति देता है।
साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।
स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं:— 👇
1- मन, 2-बुद्धि, 3- चित्त और 5-अहंकार ।
इसे ही अन्त:करण चतुष्टय कहते हैं।
१- संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि कहते हैं ( -जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है; और वही बुद्धि है ।
और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं ।
ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं ।
योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।
वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं।
वैसे जीव शब्द दिव् धातु का विकसित रूप है ।
उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती। 🌸🌸🌸
योगसूत्र के अनुसार चित्त-वृत्ति पाँच प्रकार की है
मन ही चित्त की रूप है — १-प्रमाण, २-विपर्यय, ३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण;
ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं ।
चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ; नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।
१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है ।
२-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना "विकल्प "है
३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है
४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है; यह जाग्रति का बोध है ।
पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पक्षगोलक लिखा है।
परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान हृदय न मानकर मस्तिष्क में माना है; जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्र-स्थान है ।
खोपड़ी के अन्दर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।
वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारों के सम्पादन होता हैं ।
ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।
भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।
जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है
और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है ;
इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।
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पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।
यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है।
यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन के रूप हैं।.
(पीनियल ग्रन्थिका का स्वरूप) _____________________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।
उपस्थिति:- मानव में पीनियल ग्रन्थिका लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।
पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है
और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।
पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन
भी कहा जाता है।
जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।
वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।
और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है ।
योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है ।
और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ; और ज्ञान ही जान है ।
अस्तित्व की पहिचान है ।
कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है । 👇 ________________________________________________
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।
इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।
( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ )
अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है ; अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
--जो स्वयं चालक नहीं है ।
यह शरीर रथ है ।
बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।
एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता के रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।
--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है ।
भारोपीय भाषाओं में
आत्मा के अतिरक्त रूप प्रचलित हैं ।
(प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है।
आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।
और प्रेरणा कोई कर्म नहीं एक निर्देशन है !
अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ;
परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से लोग के द्वारा प्रेत शब्द का अर्थ ही बदल गया !
इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।
प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे । कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में है परन्तु शान्ति पर्व में समायोजित है कुछ शब्दों के अन्तर के साथ।
महाभारत के भीष्म पर्व में समायोजित श्रीमद्भगवत् गीता उपनिषद् कठोपोपनिषद का रूपान्तरण न सही परन्तु 'बहुत से श्लोक दोनों के समान हैं।
निम्न गद्यांशों में महाभारत का 'वह श्लोक देखें महाभारत के स्त्री पर्व के अन्तर्गत सातवें अध्याय के शलोक 13-14 में वर्णन है कि
" विद्वान् पुरुष कहते हैं कि प्राणियों का शरीर रथ के समान है ; सत्व सारथी है इन्द्रिय घोड़े हैं ।
मन लगाम है और जो पुरुष स्वेच्छा पूर्वक दौड़ते हुए घोड़ों के वेग का अनुसरण करता है ।
वह तो इस संसार चक्र में पहिए के समान घूमता रहता है।13-14👇
रथ: शरीरं भूतानां सत्वामाहुस्तु सारिथिम् ।
इन्द्रियाणि हयानाहु:कर्मबुद्धिस्तु रश्मय:।13।
तेषां हयानां यो वेगं धावतामनुधावति।
स तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तते।14।
यस्तान् संयमते बुद्ध्या संयतो न नवर्तते ।
ये तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तिते।15।
भ्रममाणा न मुह्यन्ति संसारे न भ्रमन्ति ते।
किन्तु जो संयम शील होकर बुद्धि के द्वारा उन इन्द्रियरूपी अश्वों को नियन्त्रण में रखते हैं ।
वे फिर इस संसार में नहीं लौटते।
जो लोग चक्र की भांति घूमने वाले इस संसार चक्कर में घूमते हुए भी मोह के वशीभूत नहीं होते उन्हें फिर संसार में नहीं भटकना पड़ता।।15। _________________________________________
यही बात कठोपोपनिषद में भी दो चार शब्दों के अन्तर से है 👇।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरों का कथा रूप में वर्णन है।
यम और नचिकेता का संवाद हुआ था कि नहीं यह प्रमाणित तथ्य नहीं है अपितु तथ्य ज्ञान की प्रमाणिकता का है ।
कि यह ज्ञान सत्य है अथवा असत्य ।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध स्पष्ट करते हैं ।
संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन हम्हें प्रभावित करते हैं ।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्,
बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् )
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु आवश्यक है ।
अगले मन्त्र में उल्लेख है )
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
अन्वय:-(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः )
मनीषियों, विवेकी पुरुषों ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर-रूपी रथ के द्वारा काल पथ पर भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान
उन्हें भी रहा ही होगा ।
किन्तु उनके प्रयास रहे थे ;
कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।
इसी लिए उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के सर्था विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी विचार धारा
को प्रदर्शित करते हैं ।
तृतीय चरण की प्रस्तुति ...
यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219