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क़लम से

11 अक्टूबर 2019

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featured imageआज फिर मन हुआ कुछ लिखा जाए ... क्या क्यों किस लिए पता नहीं...... खाली कागज खाली जिंदगी... ना कोई खाका ना पैमाना ना ही शब्दों का सुनहरा जाल... खाली आसमान खाली मैदान.... कल्पना के घोड़े यूं ही छोड़े... दिशाहीन हो सरपट सरपट भागा जाए.. आज फिर मन हुआ कुछ लिखा जाए.... बात नहीं लम्हा नहीं.... एहसासों को फिर क्यों कैसे लफ्ज़ों में फिर ढाला जाए... आंखें बंद तो अंधेरा दिखता... आंखें खोलूं तो क्या निहारा जाए... सपनों की अब उम्र हो चली... कौन सा सपना पाला जाए.... जाने अनजाने देखें बहुतेरे.... किसका नाम पुकारा जाए... खामोशी भी अजब नशा है.. छलका छलका यह पैमाना जाए... यू भी तकदीर तो सब कुछ जानती है... अनुमान जिंदगी का क्यों लगाया जाए... आज फिर मन हुआ कुछ लिखा जाए... शिप्रा राहुल चंद्र
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रक्षा बंधन

23 अगस्त 2015
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आज सुबह नीला का पत्र का मिला ।प्यारे भैया भाभी ,रक्षा बंधन के पवन पर्व पर आप सभी को राखी भेज रही हूँ ।संभव हुआ तो राखी के पर्व पर आने का प्रयास करूंगी , पर विनय को छुट्टी मिले न मिले , इसीलिए सोचा राखी भेज देती हूँ ,आप सभी की

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अंदाज़

4 नवम्बर 2015
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मुस्कुराने के नहीं ढूंढते बहाने खिलखिला के हँसते है अब ज़िंदगी ने करवट जो ली जीने का दम  भरते  है अब ज़मी पर पैर  टिकते   नहीं आसमा छूने की तमन्ना रखते है अब राह  है कांटो भरी तो क्या गम  है चुभ न जाए ये कुछ इस तरह बच कर निकलते है अब मन करता है जो भी अब ख्वाहिशो का दामन कस कर पकड़ते है अब आँखों में ये

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अंदाज़

10 नवम्बर 2015
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मुस्कुराने के नहीं ढूंढते बहाने खिलखिला के हँसते है अब ज़िंदगी ने करवट जो ली जीने का दम  भरते  है अब ज़मी पर पैर  टिकते   नहीं आसमा छूने की तमन्ना रखते है अब राह  है कांटो भरी तो क्या गम  है चुभ न जाए ये कुछ इस तरह बच कर निकलते है अब मन करता है जो भी अब ख्वाहिशो का दामन कस कर पकड़ते है अब आँखों में ये

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उलझन

10 नवम्बर 2015
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मेरी एक कविता खो  गयी  है ढूंढती फिर रही हूं सब  जगह किताबो के बीच  में मेज़ की दराज में पर्स की जेब में हैरान हूं परेशान हूं मिल नहीं रही उलझन है भरी क्या लिखा था कुछ याद नहीं पर जो भी था आप सब पढ़ते तो शायद खुश होते आनंद उठाते औरो को भी पढ़वाते पर क्या अब कहु की खो गयी है मेरी एक कविता खो गयी है किस

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एक मुक्कमल जहाँ

28 अप्रैल 2016
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पत्थर की दीवारे  ऊँचे किनारे  सन्नाटे गलियारे एक मुक्कमल जहाँ कभी थी रौनके खिलखिलाती थी हंसी कभी शाम ढलते ही जगमगाते थे  आले दिए भर रौशनी लिए चुपचाप बैठे है ऐसे आज  गोया कोई काम ही नहीं ख़ूबसूरती है कायम अंदाज़ वोही हज़ारो हाथ लगे थे इन्हे बनाने में हज़ारो पेट भरे थे मैहँताने 

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कल

11 अक्टूबर 2019
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कल... अजीब है यह कल... कि आता ही नहीं .... रहता है साथ हर पल.... कि जाता भी नहीं...

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क़लम से

11 अक्टूबर 2019
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आज फिर मन हुआ कुछ लिखा जाए ... क्या क्यों किस लिए पता नहीं...... खाली कागज खाली जिंदगी... ना कोई खाका ना पैमाना ना ही शब्दों का सुनहरा जाल... खाली आसमान खाली मैदान

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क्षड़िकाएँ

13 अक्टूबर 2019
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खत्म हुआ दिन.... बातें तमाम हुई... उलझने मुस्कुराहटे... निंदा चापलूसी...

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