*इस धराधाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य सबकुछ प्राप्त करना चाहता है | परमात्मा की इस सृष्टि में यदि गुण हैं तो दोष भी हैं क्योंकि परमात्मा गुण एवं दोष बराबर सृजित किये हैं | यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह क्या ग्रहण करना चाहता है | जीवन भर अनेक सांसारिक सुख साधन के लिए भटकने वाला मनुष्य सबकुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता | हमारे महापुरुषों ने शांति का अनुभव करके मानवमात्र को इसे ग्रहण करने का उपदेश दिया है | जीवन में बिना शांति के अनेक वाह्य सुख का अनुभव तो हो सकता है परंतु आंतरिक सुख का अनुभव मनुष्य शांति प्राप्त होने बाद ही कर सकता है | मनुष्य को शान्ति का अनुभव कैसे हो सकता है इस विषय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है :--"आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशान्ति यद्वत् ! तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्रोन्ति न कामकामी !!" अर्थात :- जैसे सभी नदियों के जल समुद्र को विचलित किए बिना पूर्ण रूप से समुद्र में समा जाते हैं वैसे ही सभी प्रकार के भोग- विलास जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं | वहीं मनुष्य शांति प्राप्त करता है | भोगों की कामना करने वाले व्यक्ति को शांति नहीं मिलती है | जिस प्रकार नदियां अपने मार्ग में आने वाली सभी प्रकार की वस्तुओं को बहा कर समुद्र में ले जाती हैं , उसी प्रकार कामनाओं की नदी की प्रचंडधारा का तेज आवेग भी भौतिकवादी व्यक्ति के मन को बहाकर ले जाता है | धीर - गम्भीर , योगी का मन उस महासागर की तरह है जिसमें कामना रूपी सरिताएं बिना आंदोलित किए समाहित हो जाती है | मानव कामनाएं अनंत हैं | मन को जीते बिना शांति की कामना करना व्यर्थ है | यदि शांति प्राप्त करने की कामना है तो सर्वप्रथम अपने मन में उत्पन्न भोग - विलास रूपी कामना पर विजय प्राप्त करना होगा अन्यथा मनुष्य के मन को शांति नहीं मिल सकती |*
*आज मनुष्य के पास अनेकों सुख सुविधायें तो हैं परंतु उसको शांति नहीं है | शांति न मिलने का कारण यही है कि आज मनुष्य के मन की कामनायें असीम हो गयी हैं | कुछ प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य और कुछ प्राप्त कर लेने के चक्कर में पड़कर अशान्त बना रहता है | आज मनुष्य को संतोष नहीं है और जब तक संतोष रूपी धन मनुष्य को नहीं प्राप्त होता तब तक उसके जीवन में शांति नहीं आ सकती | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देख रहा हूँ कि परिवार से लेकर समाज तक , राष्ट्र से लेकर विश्व पटल तक चारों ही ओर अशांति का वातावरण फैला हुआ है | इसका मुख्य कारण है मनुष्य की असीम नैतिक / अनैतिक कामनायें | आज मनुष्य अपने मन पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा है और अशांति के दलदल में धंसते हुए अधोपतन की ओर अग्रसर है | शांति की खोज में मनुष्य अनेक स्थानों का भ्रमण करके अनेक महापुरुषों की शरण में जाता है परंतु उसे शांति का अनुभव नहीं हो पाता | यदि शांति का अनुभव करना है तो कहीं भी जाने की अपेक्षा मनुष्य को अन्तर्मुखी होकप स्वयं में भ्रमण करना चाहिए , अपने मन को झकझोरना चाहिए जिससे मन की कुत्सित भावनायें पतित होकर नष्ट हो जायं | जब मनुष्य को संतोष प्राप्त हो जायेगा तभी शांति का अनुभव किया जा सकता है |*
*मनुष्य जीवन भर भौतिक सम्पदाओं का संचय करने में लगा रहता है ! यह आवश्यक भी है परंतु इन्हीं के साथ मनुष्य को आध्यात्मिक पथ का पथिक बनकर स्वयं के जीवन में सद्गुणों का भी संचय करते रहना चाहिए ! अन्यथा यह दुर्लभ जीवन व्यर्थ व्यतीत हो जायेगा |*