*सनातन धर्म के मानने वाले भारत वंशी सनातन की मान्यताओं एवं परम्पराओं को आदिकाल से मानते चले आये हैं | इन्हीं मान्यताओं एवं परम्पराओं ने सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया है | सनातन की संस्त परम्पराओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वैज्ञानिकता भी ओतप्रोत रही है | हमारे देश में आदिकाल से परम्परा रही है कि दिये हुए दान का एक भी अंश यदि उपभोग किया जाता है तो मनुष्य का पुण्य तो क्षीण होता ही है साथ ही वह नरकवासी भी बनता है | शास्त्र / पुराणों में अनेक ऐसे कथानक प्राप्त होते हैं जहाँ दिये हुए दान का भूलवश भी उपयोग कर लेने पर दण्ड का भागी बनना पड़ा है | मनुष्य वोसे तो जीवन भर जाने - अन्जाने अनेक प्रकार के दान किया करता है परंतु मनुष्य के हाथ से किया जाने वाला "कन्यादान" सर्वश्रेष्ठ एवं महत्वपूर्ण दान होता है | इसीलिए कन्या के यहाँ का अन्न जल का उपभोग कन्यादाता को कदापि नहीं करना चाहिए | कुछ लोगों का मत है कि जब कन्या को पुत्र की प्राप्ति हो जाय तब कन्यादाता अन्न जल ग्रहण कर सकता है , परंतु ऐसा कोई निर्देश कहीं भी शास्त्रों में देखने को नहीं मिलता है | जिस घर में कन्या दे दी उस घर की बात तो दूर है हमारे पूर्वज उस पूरे गाँव का जल नहीं ग्रहण करते थे , क्योंकि उनकी मान्यता थी कि यह पूरा गाँव एक दिन बाराती बनकर हमारे द्वार पर गया था और मेरे द्वारा पूजित है , कुछ न कुछ दान देकर इन सबको विदा किया गया है तो इनके घर का भी अन्न जल ग्रहण करना उचित नहीं है | परंतु समय के साथ लोगों की मान्यताओं में परिवर्तन स्पष्ट देखा जा रहा है | यह परिवर्तन न तो प्राचीन भारतीय परम्परा थी और न ही शास्त्रोक्त है |*
*आज जिस प्रकार सनातन की प्राचीन परंपराओं का लोप हो रहा है वह किसी से छुपा नहीं है | जिस प्रकार लोग मनमाने ढंग से धर्म की व्याख्या करने लगे हैं उसी प्रकार आज लोग अपनी कन्या के यहां भोजन भी करने लगे हैं | लोगों का तर्क होता है कि चलते समय हम कन्या को उतना दे देते हैं जितना भोजन का दाम होता है | परंतु ऐसा कहने वाले सभी बुद्धिजीवियों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह बताना चाहूंगा कि हमारे शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि जिस गाय का दान कर दिया जाए उस गाय का दूध धन देकर भी प्रयोग में नहीं लिया जा सकता है | जब दान की हुई गाय के दूध को हम धन देकर भी लेने के अधिकारी नहीं है तो कन्या के यहां भोजन करके उसके बदले उसको धन देना कहां तक उचित है ?? प्राचीन काल में ऐसी मान्यता थी कि जिस गांव मे हम अपनी कन्या का विवाह करते थे उस गांव से अपने घर के लिए बहू नहीं लाते थे , क्योंकि ऐसी मान्यता थी कि एक बार मैंने जिनको अपने दरवाजे पर पूजित किया है उनके द्वारा मैं भला कैसे पूजित हो पाऊँगा ! परंतु आज यह देखा जा रहा है गांव की बात छोड़ दो जिस घर में कन्या का विवाह किया जाता है उसी घर से अपने बेटे के लिए लोग बहू ला रहे हैं | यही कारण है आज हमारी आने वाली पीढ़ी संस्कार विहीन होती जा रही , क्योंकि हम स्वयं अपनी प्राचीन मान्यताओं को नहीं मान रहे हैं तो आने वाली पीढ़ी से क्या आशा क़ी जाए | आज रिश्तेदारियों में अनेक प्रेम प्रसंग सुनने को मिलते हैं इसका कारण यही है कि हमने अपनी संस्कृति और सभ्यता का त्याग कर दिया है | जब हम स्वयं सनातन के विपरीत आचरण कर रहे हैं तो अपनी आने वाली पीढ़ियों को वैसा आचरण करने से कैसे रोक पाएंगे | यह एक विचारणीय विषय है |*
*सनातन की मान्यताएं सदैव से दिव्य रही हैं | आज भी समाज में उन को मानने वाले लोग हैं जो किसी के बरगलाने पर भी अपनी मान्यताओं को नहीं छोड़ रहे हैं | इसीलिए सनातन को दिव्य एवं शाश्वत कहा जाता है |*