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आस्था और विश्वास का पर्व -" छठ पूजा "

31 अक्टूबर 2019

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" छठ पूजा " हिन्दूओं का एक मात्र ऐसा पौराणिक पर्व हैं जो ऊर्जा के देवता सूर्य और प्रकृति की देवी षष्ठी माता को समर्पित हैं। मान्यता है कि -षष्ठी माता ब्रह्माजी की मानस पुत्री हैं,

प्रकृति का छठा अंश होने के कारण उन्हें षष्ठी माता कहा गया जो लोकभाषा में छठी माता के नाम से प्रचलित हुई। पृथ्वी पर हमेशा लिए जीवन का वरदान पाने के लिए ,सूर्यदेव और षष्ठीमाता को धन्यवाद स्वरूप ये व्रत किया जाता हैं। सूर्यदेव की पूजा अन्न -धन पाने के लिए और षष्ठीमाता की पूजा संतान प्राप्ति के लिए ,यानि सम्पूर्ण सुख और आरोग्यता के कामना पूर्ति हेतु इस व्रत की परम्परा बनी।


यह त्यौहार बिहार का सबसे लोकप्रिय त्यौहार हैं जो झारखंड ,पूर्बी उत्तरप्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र में भी मनाया जाता हैं। वर्तमान समय में तो यह त्यौहार इतना ज्यादा प्रचलित हो चूका हैं कि विदेशो में भी स्थान पा चूका हैं। छठपूजा की बहुत सी पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं ,पुराणों के अनुसार प्रथम मनुपुत्र प्रियव्रत और उनकी पत्नी मालिनी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ये व्रत पहली बार किया था। ये भी कहते हैं कि भगवान राम और सीता जी भी वनवास से अयोध्या लौटने के बाद राज्याभिषेक के दौरान उपवास कर सूर्य आराधना की थी। द्रोपदी और पांडवों ने भी अपने राज्य की वापसी की कामना पूर्ति के लिए यह व्रत किया था। ये भी कहते हैं कि सूर्यपुत्र कर्ण ने इस व्रत को प्रचलित किया था जो अङ्गदेश [ जो वर्तमान में मुंगेर और भागलपुर जिला हैं ] के राजा थे। राजा कर्ण सूर्य के उपासक थे वो प्रतिदिन नदी के पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे और बाहर आकर प्रत्येक आगंतुको को दान देते थे।


छठीमाता कौन थी ? सूर्यदेव से उनका क्या संबंध था ?छठपर्व की उत्पति के पीछे पौराणिक कथाएं क्या थी ?इस व्रत को पहले किसने किया ?इस व्रत के पीछे मान्यताएं क्या थी ? ढेरों सवाल हैं परन्तु मेरे विचार से सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये हैं कि - इस व्रत के पीछे कोई सामाजिक संदेश और वैज्ञानिक उदेश्य भी था क्या ? जैसा कि मैंने इससे पहले वाले लेख [ हमारे त्यौहार और हमारी मानसिकता ] में भी इस बात पर प्रकाश डाला हैं कि -हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचलित प्रत्येक त्यौहार के पीछे एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक और सामजिक उदेश्य छिपा होता था।

तो चलें, चर्चा करते हैं कि - छठपूजा के पीछे क्या -क्या उदेश्य हो सकते थे ?छठपर्व को चार दिनों तक मनाएं जाने की परम्परा हैं।नियम कुछ इस प्रकार हैं -

पहला दिन - सुबह जल्दी उठकर गंगा के पवित्र जल से स्न्नान करना और उसी शुद्ध जल से भोजन भी बनना ,घर ही नहीं आस -पास की भी सफाई करना ,नदियों की भी सफाई विस्तृत रूप से करना ,भोजन मिट्टी के चूल्हे में आम की लकड़ी जलाकर ताँबे या मिट्टी के बर्तन में ही बनाना ,भोजन पूर्णरूप से सात्विक होना चाहिए [लौकी की सब्जी ही बनती हैं क्योकि वो स्वस्थ के लिए फायदेमंद होती हैं ] पहले आस -पास के वातावरण को शुद्ध करना फिर खुद को बाहरी और अंदुरुनी दोनों शुद्धता प्रदान करना ,खुद को बिषैले तत्वों से दूर करके लौकिक सूर्य के ऊर्जा को ग्रहण करने योग्य बनाना अर्थात पहला दिन -" तीन दिन के कठिन तपस्या के लिए खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने का दिन।"


दूसरा दिन - पुरे दिन निर्जला उपवास रखना , शाम को शुद्धता के साथ रोटी , गुड़ की खीर और फल मूल को केले के पत्ते पर रखकर पृथ्वी माँ की पूजन करना और वही प्रसाद व्रती को भी खाना और जितना हो सके लोगों को बाँटना। इस तरह ,पृथ्वी जो हमारा भरण -पोषण करती हैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता जताते हैं। दूसरा दिन सिर्फ एक बार रात्रि में वो प्रसाद ही भोजन करते हैं।


तीसरा दिन -पुरे चौबीस घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं ,संध्या के समय पीले वस्त्र पहनकर ,नदी के जल में खड़े होकर ,डूबते सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं ,उन्हें फल -मूल और पकवान अर्पण करते हैं। जल और सूर्य की ऊर्जा हमारे जीवन का आधार हैं ,उन्हें भी अपनी श्रद्धा अर्पित कर धन्यवाद देते हैं।सूर्य की पूजा कर जब घर आते हैं तो पाँच गन्नो का घेरा बनाते हैं उसके अंदर एक हाथी रखते हैं, एक कलश में फल मूल और पकवान भर कर हाथी के ऊपर रखते हैं ,बारह मिट्टी के बर्तन में भी फल मूल और पकवान भरकरऔर बारह दीपक जलाकर उस हाथी के चारों तरफ सजाकर रखते हैं। पाँच गन्ने पंचतत्व के प्रतीक जिससे हमारा शरीर बना हैं ,हाथी और कलश सुख समृद्धि के प्रतीक ,बारह मिट्टी के बर्तन हमारे मन के बारह भाव के प्रतीक ,इन समृद्धों को जीवन में देने के लिए ईश्वर को धन्यवाद स्वरूप जगमगाते दीपक।

चौथा दिन - उन्ही सब समग्रियों के साथ उगते सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित कर अपनी आरोग्यता के कामना के साथ व्रत का समापन। उसके बाद व्रती अन्न -जल ग्रहण करती हैं और जो भी सामग्री पूजा में प्रयोग की गई होती हैं, उस प्रसाद को अधिक से अधिक लोगों में बाँटते हैं।

छठपूजा की पूरी प्रक्रिया हमें शारीरिक और मानसिक शुद्धता प्रदान करने के लिए हैं ताकि हमारी आरोग्यता बनी रहे। पूजा की पूरी विधि हमें अपने जीवन दाता के प्रति कृतज्ञता जताना सिखाता हैं ,उगते सूर्य से पहले डूबते सूर्य को अर्घ्य देना हमें सिखाता हैं कि घर परिवार में हम अपनी संतान [ जो उगते सूर्य हैं ] के प्रति तो स्नेह रखते हैं परन्तु अपने वुजूर्गों [ जो डूबते सूर्य के समान हैं ]को पहले मान दें।

छठपूजा के रीति रिवाज़ों पर अगर चिंतन करे तो पाएंगे कि -यही एक त्यौहार हैं जिसकी पूजा में किसी ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं पड़ती ,इसमें जाति का भी भेद भाव नहीं दिखता ,बाँस के बने जिस सुप और डाले में प्रसाद रखकर अर्घ्य अर्पण करते हैं वो समाज की नीची कहे जाने वाली जाति के पास से आता हैं ,मिट्टी के बर्तन को भी मान देते हैं। इस व्रत में अनगिनत सामग्रियों का प्रयोग होता हैं जो सिखाता हैं कि -प्रकृति ने जो भी वस्तु हमें प्रदान की हैं उसका अपना एक विशिष्ट महत्व होता हैं इसलिए किसी भी वस्तु का अनादर नहीं करें। इस व्रत में माँगकर प्रसाद खाना और व्रती के पैर छूकर आशीर्वाद लेने को भी अपना परम सौभाग्य मानते हैं। व्रती चाहे उम्र में छोटी हो या बड़ी,पुरुष हो या स्त्री ,चाहे वो किसी छोटी जाति का भी हो, उन्हें छठीमाता ही कहकर बुलाते हैं। इसतरह ये पर्व अपने अभिमान को छोड़ झुकना भी सिखाता हैं।


व्रत से पहले समृद्ध लोग हर एक व्रतधारी के घर जाकर व्रत से सम्बन्धित वस्तुएँ अपनी श्रद्धा से देते हैं जिसे पुण्य माना जाता हैं यानि यह व्रत हममें सामाजिक सहयोग की भावना भी जगाता हैं। मान्यता हैं कि -जब आप कठिन रोग या दुःख से गुजर रहे हो तो भीख माँगकर व्रत करने और जमीन पर लेट लेटकर घाट [नदी के किनारे ]तक जाने की मन्नत माँगे ,आपके सारे दुःख दूर होगें। अर्थात प्रकृति हमें सिखाती हैं -अपने गुरुर अपने अहम को छोड़ों तुम्हारे सारे दुःख स्वतः ही दूर हो जायेगे।


छठपूजा की पूरी प्रक्रिया में बेहद सावधानी बरती जाती हैं। कहते हैं कि -छठीमाता एक गलती भी क्षमा नहीं करती ,ये डर हमें अनुशासन भी सिखाता हैं -जीवन में हर एक कदम सोच -समझकर रखें ,आपकी एक भी गलती को प्रकृति क्षमा नहीं करेंगी और उसकी सज़ा आपको भुगतनी ही पड़ेंगी।


परिवार के साथ और सहयोग का महत्व तो हर त्यौहार सिखाता हैं परन्तु छठपूजा परिवार के प्यार ,सहयोग और एकता का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत करता हैं। इस व्रत में सिर्फ एक व्यक्ति व्रत रखता हैं जो ज्यादातर परिवार की स्त्री मुखिया ही होती हैं ,बाकी सारा परिवार सहयोग और सेवा में जुटा रहता हैं। 20 साल पहले तक तो यही नियम था. परिवार ही नहीं पुरे खानदान में एक स्त्री व्रत रखती थी [परन्तु बदलते वक़्त में बहुत कुछ बदल गया हैं ]इस पूजा में सारा खानदान एकत्रित होता था। जैसे बेटी के व्याह में सब एकत्रित होते हैं तथा अपने श्रद्धा और सामर्थ के अनुसार सेवा और सहयोग करते हैं। जब आखिरी दिन छठीमाता की विदाई हो जाती हैं तो घर का वहीं वातावरण होता हैं जैसे बेटी के विदाई के बाद होता हैं ,वही थकान ,वही उदासी ,वही घर का सूनापन। [वैसे बिहार में छठिमाता को पृथ्वीलोक की बेटी ही मानते हैं जो साल में दो बार ढ़ाई दिनों के लिए पीहर आती हैं ]


मुझे आज भी अपने बचपन की छठपूजा के दिन बड़ी शिदत से याद आती हैं [बचपन से लेकर जब तक शादी नहीं हुई थी ] हमारा पूरा खानदान[ जो लगभग 30 -35 सदस्यों का था] बिहार स्थित बेतिया शहर में दादी के घर छठपूजा के लिए एकत्रित होता था। साल के बस यही चार दिन थे जो पूरा खानदान बिना किसी गिले -शिकवे के सिर्फ और सिर्फ ख़ुशियाँ मनाने के लिए एक जुट होता था। व्रत सिर्फ दादी रखती ,माँ -पापा उनके सेवक होते और मैं और मेरी छोटी बुआ माँ पापा के मुख्य सहयोगी।दादी के गुजरने के बाद परिवार की मुखिया होने के नाते माँ ने व्रत शुरू किया और मैं उनकी सेवक बनी ,मेरी छोटी बहन सहयोगी। समय बदलाव के साथ हर परिवार में व्रत रखने लगे और यह त्यौहार खानदान से परिवार में सिमट गया। अब तो हर कोई अकेले अकेले ही व्रत रखने लगे ,परिवार की भी उन्हें जरूरत नहीं रही।

इतने सुंदर ,पारिवारिक ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सन्देश देने वाले इस त्यौहार को हमारे पूर्वजों ने कितना मंथन कर शुरू किया होगा। लेकिन आज यह पावन- पवित्र त्यौहार अपना मूलरूप खो चूका हैं। इसकी शुद्धता ,पवित्रता ,सादगी ,सद्भावना ,और आस्था महज दिखावा बनकर रह गया हैं। छठपूजा में व्रती पूरी तपश्विनी वेशभूषा में रहती थी और आज की व्रती अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करती रहती हैं। जिस प्रकृति की हम पूजा करने का ढोंग कर रहे हैं उसका इतना दोहन कर चुके हैं कि वो कराह रही हैं। जिसका दंड छठीमाता हमें दे भी रही हैं पर हम अक्ल के अंधे देख ही नहीं पा रहे हैं। प्रकृति विक्षिप्त हुई पड़ी हैं ,समाज दूषित हो चला हैं ,परिवार बिखर चूका हैं ,व्यक्ति बाहरी और अंदुरुनी दोनों तरह से अपना स्वरूप बिगाड़ चूका हैं ,अपनी शुद्धता ,पवित्रता ,शांति और खुशियों को खुद ही खुद से दूर कर चूका हैं ,ऐसे में कैसे छठीमाता का आगमन होगा और कैसे उनकी पूजा होंगी ? यदि दिखावे की पूजा हुई भी तो क्या वो फलित होंगी ?

सही कहते हैं हमारे बड़े बुजुर्ग कि -

" ना अब वो देवी रही ,ना वो कढ़ाह "


[अर्थात ,ना पहले जैसे भगवान में आस्था रही ना ही वैसी भावना से पूजा ]


फिर भी, इसी उमींद के साथ कि- एक ना एक दिन शायद हम अपने त्योहारों को उसी मूलरूप में फिर से वापस ला सकें। ऐसी कामना के साथ छठपूजा की हार्दिक शुभकामनाएं, छठीमाता आप सभी के घर परिवार को सुख ,शांति ,समृद्धि और आरोग्यता प्रदान करें।







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