संसार में आसक्त लोगों के कल्याण के लिए कर्म योग हैं -'कर्म योगस्तु कामिनाम' Iमनुष्य का कर्तव्य -कर्म करने में अधिकार हैं,फल में नहीं-"कर्मण्येाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" Iअर्थात बिना कर्म किये मेरे सपने बेकार हैं ,मेरी योजनायें कचरा हैं तथा मेरे लक्ष्य असंभव हैं, इन सभी का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं हैं ,जब तक कि मैं किसी कार्य को करना प्रारम्भ न करुँ। मैं उचित समय का इंतजार नहीं कर सकता मैं आज से ही अपितु अभी से अपने कर्म का प्रारम्भ करुँगा। अच्छे से अच्छा नक्शा भी किसी को जमीन पर एक कदम भी आगे नहीं पहुँचा सकता। किसी भी प्रकार की अमूल्य शिक्षा भी किसी को को एक पैसा कमाने में या किसी के तारीफ के काबिल नहीं बना सकती ,जब तक कि उस पर अमल नहीं किया जायें। केवल कर्म ही वह आग हैं जो मेरे सपनों ,मेरी योजनाओं और मेरे लक्ष्यों को जीवंत बनाती हैं। कर्म ही वे आहार और पेय हैं जिनसे मैं अपनी सफलता को पोषण देता हूँ। कर्म में इतनी शक्ति हैं कि वह आतंक के शेर को शांति की चींटी में बदल सकता हैं। मैं आज के कामों से नहीं बचूँगा ,उन्हें कल पर नहीं टालूंगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि कल कभी नहीं आता हैं। मैं अभी कर्म करुँगा और उसके करने से मुझे सफलता मिलेगी या नहीं ये तो हम पर निर्भर नहीं कर सकता हैं। हाँ लेकिन हम पर ये निर्भर जरूर करता हैं कि हम अपने सफलता के लिए सौ प्रतिशत कार्य करें। किसी के लिए कर्म करना उतना ही स्वाभाविक नहीं बन जाता हैं जैसे कि पलकें झपकाना। इन शब्दों के द्वारा मैं अपनेमस्तिष्क को इस तरह बना लूँगा कि वह मेरी सफलता के लिए आवश्यक हर काम को तत्परपूर्वक करें। जब शेर को भूख लगती हैं तब वह खाता हैं ,जब गरुड़ को को प्यास लगती हैं ,वह जल पीता हैं जब तक वे कर्म नहीं करेंगे ,वे मर जायेंगे। यदि मुझमें सफलता की भूख हैं ,तो मुझे कभी आलस नहीं करना होगा। अतः मैं आज से ही ,अभी से काम करुँगा। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में "उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जायें "
हमारे अनुसार कर्म ,"हमारे शब्द ,हमारे कार्य ,हमारी भावनायें ,हमारी गतिवधियां"। हमारे सोच विचारों से ही हमारे कर्म बनते हैं।
तपेगा जो ,गलेगा वो।
गलेगा जो ,ढलेगा वो।
ढलेगा जो ,बनेगा वो ,बनेगा वो।