*उत्पत्ति - पालन और प्रलय ही सृष्टि की गतिशीलता का उदाहरण है | जो भी प्राणी इस संसार में जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है | इस धरा धाम पर जन्म लेने के बाद प्राणी विशेषकर मनुष्य अपने जीवन काल में अनेकों प्रकार के लोगों से मिलता है , अनेकों प्रकार की भाषा बोलना सीखता है और अनेकों कृत्य करता है परंतु इस संसार में सबसे पहला शब्द मनुष्य जो बोलता है वह है "मां" | यह एक ऐसा शब्द है जिसमें पूरी दुनिया समाहित होती है , किसी और शब्द में शायद उतनी मिठास नहीं होती जितनी मिठास एवं लगाव "मां" शब्द में छुपी होती है | संवेदना एवं भावना का एहसास दिलाने वाले इस महान शब्द के आगे संसार के सभी रिश्ते नाते गौण हो जाते हैं | ईश्वर का दूसरा रूप बनकर इस धरा धाम पर ममता लुटाने वाली परम शक्ति का नाम है "मां" | ईश्वर प्रत्येक प्राणी के ऊपर अपना स्नेह नहीं लुटा सकता शायद इसीलिए उसने "माँ" रूपी अपना प्रतिबिंब इस पृथ्वी पर अवतरित किया है जो कि बिना किसी स्वार्थ के अपनी संतान की हर आवश्यकता के लिए सदैव तैयार रहती है | जीवन की प्रथम गुरु एवं सच्ची मित्र माँ ही होती है अपनी ममता की छांव में अपने बच्चों को सहेजने वाली मां आवश्यकता पड़ने पर उनके लिए सहारा भी बन जाती है और अपना सब कुछ अपनी संतान पर निछावर कर देती है | ऐसा निश्चल प्रेम और कहीं भी देखने को नहीं मिलता है | माँ का स्थान भगवान से भी बढ़कर है क्योंकि भगवान तो हमारे भाग्य में सुख और दुख दोनो लिखकर धरती पर भेजते हैं परन्तु हमारी माँ हमें सिर्फ और सिर्फ़ सुख ही देना चाहती है | प्रेम की पहली अनुभूति माँ के सानिध्य मे होती है और पूरे जीवन वैसी प्रेम की अनुभूति शायद कभी नही मिलती क्योंकि माँ परमात्मा की स्वयं एक गवाही है | माँ त्याग है , तपस्या है , सेवा है , माँ स्नेह की मूर्ति और ममता की धारा है | कुल मिलाकर हम अगर शब्द हैं, तो वह पूरी भाषा है “माँ की बस यही परिभाषा हैं” | इसलिये जब कभी यदि परमात्मा का दर्शन करने की इच्छा हो तो अपनी माँ का दर्शन कर लेना चाहिए |*
*आज के आधुनिक युग में जहाँ एकल परिवारों की संख्या बढ़ी है लोग आधुनिकता में अंधे होकर परमात्मा की प्रतिनिधि "माँ" की भी अवहेलना एवं उपेक्षा कर रहे हैं | यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस बच्चे के लिए "माँ" अपना सबकुछ त्याग कर देती ! भोजन , पानी , नींद यहाँ तक कि स्वयं के परमेश्वर पति से दूरी बनाते हुए बच्चे के हित के लिए लड़ भी जाती है वही बच्चा बड़ा होकर अपनी "माँ" का ध्यान नहीं दे पाता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज में देख रहा हूँ कि लोग अपनी माँ को अपने सुख के लिए वृद्दाश्रम में छोड़ देते हैं और परमात्मा को पाने के लिए तीर्थों का भ्रमण करते हुए अनेक पूजा - अनुष्ठानादि कराते रहते हैं | जिस "माँ" ने अपने बच्चे के लिए अपना सारा सुख त्याग दिया वही "माँ" आज अपने ही बच्चों के द्वारा उपेक्षित होकर जीवन जीने को विवश दिखाई पड़ रही है | "माँ" के आशीर्वाद की ताकत तो सारा संसार जानता है इतना सब कुछ सहन करने के बाद भी एक "माँ" के मुखारविन्द से कभी भी अपने बच्चे के लिए श्राप नहीं निकलता है | "माँ" का यही आचरण उसे महान बनाता है | "माँ" की ममता के तुल्य संसार में कुछ भी नहीं है | आज इन्हीं पुत्रों और पुत्रबधुओं के कारण "माँ" नाम का परमात्मा असहाय , निराश्रित , उपेक्षित एवं सिसकभरा जीवन जी रहा है | माँ को उपेक्षित करके परमात्मा की कृपा पाने की अपेक्षा करना महज मूर्खता ही कही जायेगी | इस संसार को कर्मप्रधान कहा गया है यहाँ जो जैसा करता है उसको वैसा ही फल प्राप्त होता है यद्यपि इस सिद्धांत की दुहाई तो सभी लोग देते हैं परंतु यह नहीं जानते कि जिस प्रकार वृद्धावस्था में किसी (माँ) निराश्रित जीवन जीने को विवश कर रहे हैं वैसा ही समय आगे उनके लिए प्रतीक्षा कर रहा है | संसार में अनेकों रिश्ते और रिश्तेदार कभी भी "माँ" की समानता नहीं कर सकते हैं | "माँ" के दूध का कर्ज मनुष्य जीवन भर नहीं चुका सकता | यदि परमात्मा को प्रसन्न रखने और पाने की लालसा है तो सर्वप्रथम "माँ" को सम्मान देते हुए प्रसन्न रखना होगा | जिस प्रकार किसी न्यायालय के न्यायाधीश तक अपनी बात पहुँचाने के लिए एक अधिवक्ता का होना आवश्यक है उसी प्रकार परमात्मा रूपी न्यायाधीश के दरबार में अपने वाद की उचित बहस करने के लिए "माँ" रूपी अधिवक्ता की आवश्यकता पड़ेगी | अत: माँ को सदैव प्रसन्न रखना पड़ेगा |*
*एक बात सदैव याद रखना चाहिए कि संसार में पत्नी अनेक मिल सकती है , भाई कई बन सकते हैं परंतु नौ महीने तक अपने उदर में रखकर असहिय पीड़ा सहकर जन्म देने वाली "माँ" का स्थान कोई दूसरा नहीं ले सकता |*