*ईश्वर की बनायी यह सृष्टि बहुत ही विचित्र है , यहां एक ही भाँति दिखने वाले मनुष्यों के क्रियाकलाप भिन्न - भिन्न होते हैं | मनुष्य के आचरण एवं उसके क्रियाकलापों के द्वारा ही उनकी श्रेणियां निर्धारित हो जाती है | वैसे तो मनुष्य की अनेक श्रेणियां हैं परंतु मुख्यतः दो श्रेणियों में मनुष्य बंटा हुआ है | प्रथम सज्जन एवं द्वितीय दुर्जन | सज्जन एवं दुर्जन के बीच सारा संसार चल रहा है इसी को हमारे महापुरुषों ने संत एवं असंत कहा है | मानव समाज में सन्त और असंत दो ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनमें भिन्नता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है | जहां सन्त का व्यक्तित्व उत्कृष्ट होता है वही असंत सदैव निकृष्टता का परिचय देता रहता है | संत एवं असंत की पहचान करनी हो तो वेशभूषा से नहीं बल्कि उनके गुणों के आधार पर ही हो सकती है क्योंकि बाहरी वेशभूषा के आधार पर आडंबर करके भले ही कोई व्यक्ति सन्त बनने का प्रयास करें परंतु उसका यह प्रयास बहुत देर तक नहीं चल पाता और एक ना एक दिन उसका भेद खुल ही जाता है | सज्जन एवं दुर्जन या सन्त एवं असन्त इसी संसार में पैदा होते हैं परंतु अपने गुणों के माध्यम से आचरण करके अपनी श्रेणियां स्वयं निर्धारित कर लेते हैं | दुर्जन व्यक्ति स्वयं की वेशभूषा बनाकर संत बनने का दिखावा करके लोगों को छलने का प्रयास करता है परंतु उसकी दशा कालनेमि वाली होती है , अर्थात उसका भेद खुल जाता है | वहीं दूसरी ओर विकृत रूप बना लेने के बाद भी साधु व्यक्ति का सम्मान कम नहीं होता | जहां सन्त कल्याणकारी होते हैं वही मनुष्य के दुर्भाग्य का उदय होने पर असंतों का संग प्राप्त हो जाता है | प्रत्येक मनुष्य को किसी भी सन्त या असन्त की पहचान करने के लिए इनके चमक - दमक एवं पहनावे पर ना जाकर के उनके आचरण एवं गुणों का आकलन करना चाहिए | सन्त अपनी बड़ाई एवं गुणों का वर्णन नहीं सुनना चाहते हैं वही दूसरों के गुण एवं उसकी बड़ाई सुनने में उन्हें विशेष हर्ष होता है , क्योंकि वास्तविक संतों के हृदय में समता और शीतलता का वास होता है और यह कभी न्याय का त्याग नहीं करते हैं | सब से प्रेम करने वाले यह सन्त सरल स्वभाव के होते हुए मानव कल्याण के लिए निरंतर कार्य करते रहते हैं | आवश्यकता है संत एवं असंत के पहचान करने की | इनकी पहचान ना हो पाने पर मनुष्य सन्त के वेश में घूम रहे असंतो के द्वारा ठग लिया जाता है |*
*आज के आधुनिक युग में सबसे कठिन है संत एवं असंत में भेद करना | आज के चमक दमक भरे युग में अनेक लोग सन्त वेश में घूम रहे हैं जिनका चरित्र बिल्कुल भी समाज का हितेषी नहीं कहा जा सकता | अपनी दुर्जनता के कारण गृहस्थ धर्म का त्याग करके सन्त बने कुछ लोग भोली - भाली जनता को कुछ चमत्कार दिखा के स्वयं के आधीन कर रहे हैं | प्रायः लोग विचार करते हैं कि संत और असंतों में भेद किया जाय ?? ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस में संतों के लक्षण बताने का प्रयास करूंगा ! जहां बाबा जी ने बताया है कि :- "षट विकार ज़ित अनघ अकामा ! अचल अकिंचन सूचि सुखधामा !!" अर्थात :- सन्त सदैव षट विकारों ( काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद और मत्सर पर विजय प्राप्त करके पापरहित , कामनारहित , निश्चल (स्थिरबुद्धि) अकिंचन (सर्वत्यागी) भीतर एवं बाहर से पवित्र , सुख के धाम , असीम ज्ञानवान , इच्छारहित मिताहारी , सत्यनिष्ठ , कवि , विद्वान एवं योगी होते हैं | यह लक्षण जिस भी सन्त के भीतर दिखाई पड़े उसे ही सन्त मांगना चाहिए , अन्यथा सन्त वेश में जीवन यापन करने वाले दुर्जन ही हो सकते हैं | जिन गुणों की चर्चा बाबा जी ने मानस में की है आज के परिवेश में वह सारे गुण एक साथ किसी भी सन्त में मिल पाना असंभव दिख रहा है | आज प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के विषयों में लिप्त होकर के जीवन यापन कर रहा है | जहां संतों का कार्य होता था मानव मात्र का कल्याण करना वहीं आज संत समाज भी स्वार्थ बस कार्य करने लगा है | अतः एक बुद्धिमान व्यक्ति का यह कर्तव्य बनता है कि किसी भी संत की वेशभूषा , चमक-दमक पर ना जाकर के उनके चरित्रों एवं गुणों का आकलन करके ही उनकी शिष्यता या उनका सानिध्य प्राप्त करें , क्योंकि सत्संग संतो के माध्यम से ही प्राप्त होता है इसलिए संतो से सत्संग एवं असंतों से दूरी बनाए रखने में ही मनुष्य का कल्याण है |*
*जिस प्रकार कुल्हाड़ी द्वारा चन्दन को काट देने पर भी चन्दन अपना गुण उसे देकर के सुगंधित और सुवासित कर देता है उसी प्रकार अपना अहित होने पर भी सन्त अपनी छाप अहित करने वाले पर भी छोड़ देता है | इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए |*