*ईश्वर द्वारा बनाई गयी सृष्टि बहुत ही देदीप्यमान एवं सुंदर है | मनुष्य के जन्म के पहले ही उसे सारी सुख - सुविधायें प्राप्त रहती हैं | जन्म लेने के बाद मनुष्य परिवार में प्रगति एवं विकास करते हुए पारिवारिक संस्कृति को स्वयं में समाहित करने लगता है | मनुष्य का जीवन ऐसा है कि एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता , वह चाहे जैसा भी कर्म हो परन्तु मनुष्य कुछ न कुछ कर्म प्रत्येक मनुष्य करता ही रहता है | शायद इसीलिए इस सृष्टि में कर्म को ही प्रधान माना गया है | गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए "कर्मयोग" का विस्तृत वर्णन किया है | प्राय: कहा जाता है कि "कर्म ही पूजा है" | तो वह कौन सा कर्म है जो पूजा की श्रेणी में रखा जा सकता है | सनातन धर्म में नित्य देव पूजन करना अनिवार्य बताया गया है परंतु कभी कभी ऐसा समय भी जीवन में उपस्थित हो जाता है कि कार्यों की अधिकता में उलझे रहते हुए बहुत चाहकर भी मनुष्य पूजा नहीं कर पाता और मन में उदास हो जाता है कि आज हम पूजा नहीं कर पाये | जबकि ऐसा विचार कभी भी नहीं प्रकट होना चाहिए , क्योंकि हमारे महापुरुषों ने कर्म को ही सबसे बड़ी पूजा बताते हुए कहा है कि :- जब मनुष्य कोई भी कार्य करने के पहले यह निश्चय कर लेता है कि मैं जो काम कर रहा हूं वह भगवान के लिए कर रहा हूं , यदि व्यापारी है तो यह समझ ले कि व्यापार भगवान के लिए कर रहा है , जीवन में कोई भी कार्य करने के पहले यदि मनुष्य उसे भगवान के प्रति समर्पित करते हुए फिर मन में यह विचार कर ले कि यह सारा कार्य ईश्वर के लिए कर रहे हैं तो मनुष्य के हृदय में कभी कर्तापन का भाव नहीं आएगा और यही कर्म पूजा बन जाएगा | किसी भी पूजन अनुष्ठान में एक विधान होता है समर्पण का , उस विधान का पालन करते हुए मनुष्य को प्रत्येक कर्म ईश्वर को समर्पित करते हुए स्वयं उसके बोझ से बच के रहना चाहिए | ईश्वर को समर्पित कर्म ही सबसे बड़ी पूजा कहीं गई है | ऐसा विचार करके कर्म करने वाले मनुष्य कभी भी परिणाम की चिंता न करके सकारात्मकता से अपने कर्म में तत्पर रहता है | गीता में भगवान ने इसे ही कर्मयोग एवं निष्काम कर्म कहा है |*
*आज मनुष्य का जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि दिन रात वह काम ही करता रहता है परंतु इतना करने के बाद भी उसे संतुष्टि नहीं होती है और ना ही वह स्वयं को सुखी मानता है | जब कर्म ही पूजा है तो पूजा करके भला कोई दुखी कैसे रह सकता है ? यदि कर्म करने के बाद भी मनुष्य दु:खी है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह कि मनुष्य आज कोई भी कार्य निष्काम भाव से ना करके अपने लिए कर रहा है | जहां मनुष्य में कर्तापन का भाव आ जाता है वही मनुष्य के जीवन में दुख प्रारंभ हो जाता है | निष्काम भाव से कर्म करने वाला आज बड़ी कठिनता से दिखाई पड़ता है , प्रत्येक मनुष्य सकाम भाव से अपने लिए , अपने परिवार के लिए कर्म कर रहा है और वह कोई भी कर्म ईश्वर को समर्पित नहीं करना चाहता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इतना जानता हूं यदि अपने कार्यक्षेत्र में मनुष्य व्यस्त रहते हुए किसी भी पूजन अनुष्ठान का पालन नहीं कर पा रहा है और उसके कर्म के द्वारा अनेकों लोगों का भरण पोषण हो रहा है तो उसका कर्म ही सबसे बड़ी पूजा मानी जाएगी | जैसा कि बताया गया है कि कोई भी कर्म करते हुए हृदय में यह विचार अवश्य रखना चाहिए कि मैं यह कार्य अपने लिए नहीं बल्कि ईश्वर के लिए कर रहा हूं | समर्पण की भावना जिस दिन मनुष्य के अंदर उत्पन्न हो जाएगी उसी दिन उसका प्रत्येक कर्म पूजा बन जाएगा , अन्यथा मनुष्य जीवन भर अपने परिवार व समाज के लिए कार्य करते करते मृत्यु के निकट पहुंच जाता है परंतु उसे शांति एवं सुख का अनुभव नहीं हो पाता | इसका कारण एक ही है कि वह सारे कार्य करते हुए भी अपने कर्म को पूजा न मानकरके दायित्व समझकर कर रहा है | जिस संलग्नता व श्रद्धाभाव से मनुष्य किसी भी पूजन अनुष्ठान में बैठता है उसी संलग्नता व समर्पण भाव से कर्म को पूजा मान करके करने वाले मनुष्य कभी भी दुखी नहीं हो सकते |*
*इस सृष्टि में कर्म ही प्रधान है बिना कर्म किये कोई भी नहीं रह सकता परंतु कर्म पूजा की श्रेणी में तभी गिना जा सकता है जब वह सकारात्मक एवं ईश्वर को समर्पित हो |*