अभी
शब्दनगरी पर एक बड़ा अच्छा और मार्मिक शब्दचित्र पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ... डॉ
दिनेश शर्मा का लिखा “महानगर का तपस्वी”... आप लोग भी पढ़ें...
महानगर
का तपस्वी - दिनेश डॉक्टर
प्रोपर्टियों के रेट गिरने के बाद से वर्मा का हौसला
काफी हिला हुआ था और कल शाम जब मैंने उसे कहा कि अब प्रॉपर्टीयों की कीमतें और भी
गिरेंगी तो पहली बार उसकी आँखों में मैंने घोर उदासी और टूटन देखी । सामने वाली
सोसायटी में वर्मा का एक दो बेड रूम वाला फ्लेट उसकी एक मात्र संपत्ति और सहारा
बचा है । एक वक्त था जब प्रॉपर्टीयों की कीमतें दिन रात छलांग लगाती थी और वर्मा
मुझे रोक कर बड़ी ख़ुशी ख़ुशी सुनाता था " डेढ़ करोड़ दा हो गया जे, तुसी मेरे तों पुच्छे बगैर ना बेचना किस्सी नूँ । इक साठ तो कम्म हाँ ना
भरना जे बेचना हो तां " । बात असल ये थी कि मेरा और वर्मा का फ्लैट साथ साथ
मिले हुए थे ।
उसे लगता था कि अगर मैंने अपना फ्लेट कम कीमत पर बेच
दिया तो उसके फ्लैट की कीमत भी कम आंकी जायेगी, जो उसे कतई बर्दाश्त नहीं था । जिस फ्लेट को उसने बीस बरस पहले चार पांच
लाख का खरीदा था उसकी कीमत डेढ़ करोड़ या इक साठ कहते हुए उसके चेहरे पर पूरी दुनिया
की मिलकियत का भाव बड़े जोश से उतरता था । जब भी मिलता था तो मोटे चश्में के पीछे
और घनी भोहों के नीचे चमकती मुस्कराती आँखे फ्लेट की कीमत बताते और भी हौसले से
भरी नज़र आती ।
दरअसल बात ये भी थी कि बेहद तकलीफ भरे उन दिनों में
जब वर्मा के हफ्ते के चार पांच दिन बेटी के ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए किसी खून
देने वाले ब्लड डोनर को तलाशते बीतते थे तो इस फ्लेट की बढ़ती कीमतें ही उसे खाक
में मिलने के डर से बचाती थी । जिस दिन से वर्मा को दो बेटियोँ में से छोटी के , जिसे वो बहुत चाहता था, थेलेसिमिया से पीड़ित होने का
पता चला, उसकी दुनिया ही बदल गयी । पहले अच्छा चलता हुआ
व्यापार ठप्प हुआ फिर धीरे धीरे बैंक खाते खाली हुए और गहने और कीमती चीजें बिकी ।
एक प्लाट भी बेटी की बीमारी की भेंट चढ़ गया । कमाई का एक मात्र जरिया बची फुटपाथ
पर जुगाड़ से बनायीं किताबों और मैगजीन की खुले आसमान के नीचे एक छोटी सी दूकान जो
सोसायटी के मैनेजमेंट ने उसकी मुसीबतों और भलमनसाहत के मद्देनजर उसे सोसायटी के
गेट और नाले पर बनी छोटी सी पुलिया के बीच लगाने की इज़ाज़त दे दी ।
तेज़ धूप निकलती तो बांस की पतली पतली खपच्चियों पर
तनी प्लास्टिक की एक काली पन्नी किताबों और उसके सलवटों भरे सर पर तन जाती । बारिश
आती तो वही पन्नी किताबों के ढेर पर चारों तरफ से लपेट कर बाँध दी जाती और वर्मा
चुपचाप सेक्युरिटी गार्ड के लकड़ी के खोखे में टूटी कुर्सी पर जा कर बैठ जाता और बारिश
के रुकने का इंतज़ार करता । जब बारिश लंबी चलने का अंदेशा होता तो वर्माऔर उसकी
बीवी, जिसकी एक टूटी टांग पर डेढ़ साल तक
प्लास्टर चढ़ा रहा था और जो अब हमेशा लंगड़ाती ही चलती थी, धीरे
धीरे सब किताबों को सर पर ढो कर अंदर फ्लेट में ले जाते ।
तरस खा कर सोसायटी के गार्ड्स भी कभी कभी मदद कर देते
। जब तक बेटी जिन्दा रही तो वर्मा का संघर्ष हफ़्तों महीनों और सालों तक उसके लिए
खून तलाशने का ही रहा । हफ्ते में दो बार ट्रांसफ्यूजन होना ही था, चाहे खून खरीदो या बल्ड डोनर तलाश करो । धीरे धीरे पैसे भी चुक गए और
दयालु ब्लड डोनर्स भी । थके हारे क़दमों से जब पुलिया के टूटे तख़्त पर वो अंदर से
ढो ढो कर किताबें तरतीब से सजाता तो आसानी से अंदाज़ा हो जाता कि आज खून का इंतज़ाम
हुआ या नहीं । दुकान तो खैर क्या चलती , बस उसकी अँधेरी उदास
रात का एक टिमटिमाता दिया भर थी । कभी उसी दूकान पर किताबों के बीच ज्योतिष के
पंचाग सज जाते तो वक्त की ज़रुरत के हिसाब से कभी होली के रंग, पिचकारियां, दिवाली के पटाखे, राखियाँ
वगैरा वगैरा ।
नीचे से आती गंदे नाले की बदबू, धूप, धूल, तेज़ ट्रैफिक के शोर
और धुंए के बीच लगभग पाँच फुट दस इंच लम्बे, भरे जिस्म वाला
टूटी कुर्सी पर बैठा वर्मा अक्सर निरपेक्ष तपस्वी सा लगता था । क्रोध करते उसे
किसी ने नहीं देखा । एक शास्वत और शांत उदास मुस्कान उसके चेहरे पर हमेशा चस्पा
रहती थी । एक वक्त ऐसा भी आया कि बचा खुचा यह दो बेड रूम का आसरा भी बेटी की
बीमारी के हवन में होम होने वाला था । पर ऊपर वाले को दया आ गयी और उसकी बेटी को
उठा ले गया । बेटी की मौत के बाद भी उसकी शांत उदास मुस्कान वैसी ही बनी रही । पर
अब कभी कभी फीकी हंसी भी हंस लेता था । और फिर नोटबंदी हो गयी । प्रॉपर्टीयों की
कीमतें लुढ़कने लगी । 'इक साठ ते डेढ़ करोड़ दा फ्लेट' सवा करोड़ - एक करोड़ पर झूलने लगा ।
वर्मा ने न तो फ्लेट खरीदना था और न ही बेचना था पर
कोई गणित था जो बिगड़ गया था । सो कल शाम जब मैंने उसे बताया कि प्रॉपर्टीयों की
कीमतें और भी नीचे आएँगी तो मुझे पहली बार उसके बचे खुचे हौसले की दीवार भरभरा कर
ढहती हुई दिखी । घनी भोहों के नीचे और मोटे चश्मे के पीछे उसकी आँखों में क्या भाव
था, अँधेरे की वजह से मैं पढ़ नहीं पाया
पर एक लंबी गहरी सांस लेकर बोला "तुस्सी हौसला रक्खो । घबराण दी कोई लोड नई ।
ऐ पार्लियामेंट दे इलेक्शन हो जाण दो फिर तुस्सी देखना प्रॉपर्टीयां दी कीमतां
दुगनी तिगनी हो जाणगी । तुसी मेरे तों पुच्छे बगैर ना बेचना किसी नूँ ।"
महानगर का तपस्वी पुलिया के तख़्त पर बनी किताब की
दुकान के साथ रक्खी टूटी कुर्सी पर जाकर चुपचाप बैठ गया था । शांत उदास मुस्कराहट
पर कुछ नए किस्म की रेखाएं खिंचने लगी थी ।
https://shabd.in/post/111215/-1787677