समुद्र के किनारे चलते चलते रास्ते में एक शांत सी दुकान देखी तो कुछ पीने और सुस्ताने के इरादे से उसमे ही घुस गया । यह दरअसल एक शराब खाना था जो मुख्य टूरिस्ट मार्ग पर न होने की वजह से इस समय वीरान था । अंदर रेड और व्हाइट वाइन के कांच के बड़े बड़े जार थे, लकड़ी के बड़े बड़े गोल हौद थे जिनमे वाइन बनने से पहले अंगूर फर्मेंट हो रहे थे । एक तरफ लकड़ी के ऊंचे ऊंचे बॉटल रैक थे जिनमे सालों के हिसाब से वाइन की बोतलें लिटा कर जमाई गयी थी । मुझ जैसा प्रौढ़ अवस्था का अकेला हिंदुस्तानी सैलानी क्योंकि टूरिस्ट्स के किसी भी वर्ग में आराम से फिट नही होता तो लोगो की - खास तौर पर रेस्टोरेंट होटल या दुकानों के मालिक की जिज्ञासा का आसानी से पात्र बन जाता है । वाइनरी के पचास बरस के हंसमुख मालिक माटो को जब पूछने पर मैंने बताया कि मैं हिंदुस्तान से हूँ तो उसे हैरानी हुई क्योंकि वो मुझे साउथ अमेरिकन समझ रहा था । माटो ने बताया कि क्योंकि हिंदुस्तानी वो भी मेरी उम्र के, कभी अकेले नही दिखते तो उसे ये भ्रम हुआ । माटो अपनी बनाई रेड वाइन खुद ही अकेला काउंटर पर बैठा पी रहा था । मैंने भी एक ग्लास ऑर्डर किया और बैठ गया । माटो ने जब बताया कि वो और उसके बहुत सारे दोस्त सैलानियों की बेसाख्ता बढ़ती भीड़ से बहुत चिंतित है तो मुझे कुछ अजीब लगा । उसने बताया कि उसे लग रहा है कि उसका शहर जो एक शांत खूबसूरत चरित्रवान लड़की की तरह था अब भौंडी वैश्या बन रहा है जो हर वक़्त बिकाऊ है । सब लोगों ने अपने घरों में सैलानियों के लिए गेस्ट हाउस बना दिए है, ज्यादातर स्त्री पुरुष कमाने की अंधी दौड़ में अपनी कारों को उबर में टेक्सी बना कर दिन रात दौड़ा रहे है । पुराने शहर में जहां सदियों से हज़ारो पुराने परिवार बसते थे अब महज दो चार सौ लोगों को छोड़कर सबने अपने मकान और दुकान पैसे और कमाई के लालच में 'बाहर वालों' को बेच दिए हैं ।
एक तरफ माटो जहां खुश था कि उसकी वाइनरी पर ज्यादा लोग आ रहे है और उसकी कमाई बढ़ रही है दूसरी तरफ वो इस बात को लेकर खासा परेशान दिखा कि उसके खूबसूरत शहर का आखिर होगा क्या । दस बरस पहले माटो ने क्रूज़ शिप की दुनिया भर में मुफ्त सैर कराने वाली बढ़िया नौकरी छोड़ कर यह वाइनरी शुरू की थी इस उम्मीद के साथ कि जीवन के आखिरी दिन वो सुकून से बढ़िया वाइन बनाते और शहर के भद्र लोगों का अपने दुकान में स्वागत कर उनसे गपशप करते बिताएगा पर अब वो शहर में हर दिन बढ़ती भीड़ की वजह से शंका और चिंताओं से घिरा हुआ था । मैंने बिल चुकाया और पानी में हिलती डुलती छोटी बड़ी नावों को देखते नए बंदरगाह की तरफ चल पड़ा ।
चलते चलते अपने खुद के छोटे से शहर ऋषिकेश के बारे में सोच रहा था जो पचास पचपन साल पहले एकदम शांत और खूबसूरत जगह थी । सर्दियों में रात के नौ बजते बजते पूरे शहर में एक ठंडा सन्नाटा पसर जाता था जो अगले दिन सुबह साढ़े चार बजे मंदिरों की घंटियों और सड़क पर इक्का दुक्का गंगा स्नान को जाती स्त्रियों के मुंह से निकलती गंगा आरती की दबी दबी स्वरलहरियों से ही टूटता था । आज वही ऋषिकेश बारहों महीने चौबीसों घंटे लगते ट्रैफिक जाम, डीजल के धुएं, लाखों यात्रियों द्वारा फेंके गए प्लास्टिक के कचरे, सैंकड़ों लाउडस्पीकरों पर कान फाड़ देने वाले धार्मिक शोर, हर दूसरे तीसरे घर में खुले गेस्टहाउस, कदम कदम पर खड़ी रेहड़ियों और सड़कों गलियों में बेतरतीब खड़ी हज़ारों कारों बसों ट्रकों से घुट गया है । काशी नाथ सिंह ने अपने उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ में बनारस और बनारस के आर्थिक संघर्षों से जूझते सदियों पुराने पारम्परिक परिवारों पर विदेशी सैलानियों के संक्रमण को जिस शिद्दत से उतारा है , वो संसार के किसी भी देश के ख़ूबसूरत और आकर्षक पर्यटन स्थल के चरित्र संक्रमण की गाथा है ।
पोलेस में, जो बड़ी बोट द्वारा दुब्रोवोनिक से 1 घंटे 45 मिनट की दूरी पर है, शांत और खूवसूरत मलजेट नेशनल पार्क है । पार्क में घूमने के लिए वहाँ उतरते ही बैटरी वाली साइकिले किराए पर मिल रही थी । पार्क क्योंकि काफी बड़ा है तो किराए पर साइकिल लेना ही ठीक समझा गया । वापसी की बोट छह घण्टे बाद थी तो वक़्त काफी था । टूरिस्ट्स तो यहां भी थे पर ज्यादा नही । क्रोएशयन लोग मोल भाव में यकीन नही करते । जो दाम बोल दिया उससे टस से मस नही होंगे । साइकल का किराया दो सौ कून यानी दो हज़ार रुपए बताया गया । मैंने हिंदुस्तानी लिहाज़ में डेढ़ सौ पर बात पटाने की कोशिश की तो दुकानदार लड़के ने ठंडे लहजे में समझा दिया कि वो किसी भी तरह दो सौ से कम नही लेगा । साइकिल तो लेनी ही थी तो उसी भाव पर ले ली । साइकिल हल्की थी और हल्का सा पैडल घुमाते ही बैटरी पावर पुश देकर गति खुद ही बढ़ा देती थी ।
पूरा घने वन वाला हर भरा नेशनल पार्क एक बड़ी नीली शांत झील के चारो तरफ फैला हुआ था । चारो तरफ पांच छह किलोमीटर लंबा साइकिल ट्रेक था जिस पर सिर्फ पैडल वाली या बैटरी वाली साइकिल चलाने की ही इजाज़त थी । झील के बीच में एक छोटा से द्वीप था जहाँ एक छोटी बोट के ज़रिये पहुंच सकते थे । पता लगा वहां एक पुराना चर्च और खाने पीने का रेस्तरां है । भूख भी लगी थी तो पहुंच गया । वेटर एक लंबा तगड़ा शुष्क स्वभाव वाला पुलिस वाला ज्यादा नज़र आया । मुझ पर रौब डाल कर वो ऑर्डर भी ले गया जो मेरी मर्जी नही थी । एक बड़ी प्लेट में भुनी हुई मछली, झींगे, ऑक्टोपस और केकड़े ले आया । क्रोएशयन लोगों का मुख्य आहार सी फ़ूड ही है । इटली के प्रभाव की वजह से रिसोटो और पिज्जा भी खूब खाया जाता है । खाना तो ताज़ा और ज़ायकेदार था पर बिल देख कर जेब खुद ब खुद ही ढीली हो गयी । पुलिसिये वेटर का रौब देखकर कुछ टिप भी देनी पड़ी ।